यदि आक्रामक मुहिम वाली कंपनियों की रफ्तार मौजूदा अंदाज में ही जारी रही, तो आने वाले दिनों में क्रिकेटर और क्रिकेट स्टेडियम दोनों ही ब्रैंडेड विज्ञापनों से लबरेज नजर आएंगे।
पर क्रिकेट खिलाड़ियों को ताजिंदगी किसी खास ब्रैंड से ही जुड़कर रहना होगा और ऐसा करना उनकी मजबूरी होगी। ऐसा नहीं है कि सिर्फ क्रिकेट खिलाड़ी ही इसकी जद में आएंगे, बल्कि पुरस्कृत पेशेवर, फिल्मी सितारे और मार्केटिंग एजेंटों पर भी यह शर्त लागू होगी।दरअसल, नकारात्मक अनुबंध इन दिनों एक दफा फिर विवाद का विषय बना हुआ है।
नकारात्मक अनुबंध से मतलब वैसे करार से है, जिसके तहत किसी खास सेक्टर की किसी खास कंपनी से जुड़ी शख्सियत उस क्षेत्र की किसी दूसरी कंपनी के साथ अनुबंध नहीं कर सकती। यानी उस शख्सियत को ताजिंदगी किसी एक कंपनी से ही जुड़कर रहना होगा। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश और 13वें वित्त आयोग की रिपोर्ट आने के बावजूद कॉन्ट्रैक्ट एक्ट के सेक्शन 27 में किसी तरह का संशोधन अब तक नहीं किया गया है।
यह मसला हाल में एक दफा फिर से सुर्खियों में तब आया, जब एक और क्रिकेटर को सुप्रीम कोर्ट में अभियोजन का सामना करना पड़ा। यह मसला परसेप्ट टैलंट मैनेजमेंट लिमिटेड बनाम युवराज सिंह का है। क्रिकेटर जहीर खान और इसी कंपनी के बीच इसी मसले पर जंग पहले से ही छिड़ी हुई है।
दोनों ही मामलों में परसेप्ट टैलंट का कहना है कि उसके साथ करार कर चुका कोई क्रिकेटर किसी दूसरी कंपनी के साथ कोई करार करने का मन बनाता है, तो इस हालत में उसे (परसेप्ट टैलंट को) ‘राइट ऑफ फर्स्ट रिफ्यूजल’ का अधिकार मिलना चाहिए। राइट ऑफ फर्स्ट रिफ्यूजल का अर्थ यह है कि क्रिकेटर के साथ नए अनुबंध का पहला मौका पुरानी कंपनी को दिया जाना चाहिए और यदि पुरानी कंपनी स्वेच्छा से अनुबंध नहीं करती, तो ही क्रिकेटर किसी नई कंपनी के साथ संबध्द हो सकते हैं।
इन दिनों परिसंपत्तियों, रोजगार, संयुक्त उपक्रम, शेयर ट्रांसफर, मनोरंजन और अनुबंध से जुड़े दूसरे व्यावसायिक समझौतों में राइट ऑफ फर्स्ट रिफ्यूजल की अवधारणा आम है।युवराज ने एक अनूठे अनुबंध पर दस्तखत किया।
इस अनुबंध के तहत युवराज ने जिस शर्त पर अपनी हामी भरी उसमें कहा गया था – ‘युवराज किसी नई कंपनी के साथ इंडोर्समेंट, प्रमोशन, विज्ञापन या सामान या सेवाओं से संबंधित किसी तरह का करार तब तक नहीं करेंगे, जब तक वे इस कंपनी को अपने नए ऑफर की जानकारी नहीं दे देते और यह कंपनी उस ऑफर की बराबरी करने के बारे में विचार नहीं कर लेती।’
युवराज के इस करार को नकारात्मक अनुबंध के तौर पर देखा गया और जूरी सदस्यों के बीच यह बहस का विषय बन गया। जहीर खान के मामले के बाद इस कंपनी ने अपने अनुबंध की शर्तों में थोड़ी तब्दीली कर दी।
दरअसल, जिन विंदुओं पर सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी को कमजोर पाया था, कंपनी ने करार की शर्तों में तब्दीली करते वक्त उन विंदुओं को ध्यान में रखा। इसके बावजूद कोर्ट ने पाया कि कंपनी द्वारा की गई तब्दीलियां कानून के प्रभाव को बदल पाने में नाकाम रही हैं और कंपनी की ओर से कोई भी नियम थोपा नहीं जा सकता।
12 साल पहले भी सुप्रीम कोर्ट में नकारात्मक अनुबंध से संबंधित एक मामला गया था। यह मामला गुजरात बॉटलिंग बनाम कोका कोला का था।
दरअसल, इन दोनों कंपनियों के बीच हुए अनुबंध के तहत गुजरात बॉटलिंग को कोका कोला के लिए प्रॉडक्ट्स की मैन्युफैक्चरिंग, बॉटलिंग, बिक्री आदि का जिम्मा सौंपा गया था। पर अनुबंध की शर्त यह थी कि गुजरात बॉटलिंग अनुबंध खत्म होने तक किसी दूसरी कंपनी (पेप्सी) के लिए ये काम नहीं करेगी।
गुजरात बॉटलिंग ने तर्क दिया कि अनुबंध की शर्तें व्यापार के नियमों के खिलाफ हैं। लिहाजा इन शर्तों का कोई मतलब नहीं है। पर सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात बॉटलिंग की दलील स्वीकार नहीं की। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा कि यह दलील पूरी तरह बेमानी है और यह व्यापार के नियमों के खिलाफ नहीं है, क्योंकि इसका दायरा महज कॉन्ट्रैक्ट की अवधि तक है।
कॉन्ट्रैक्ट एक्ट की धारा 27 में कहा गया है – ‘वैसा हर समझौता अमान्य माना जाएगा, जिसके तहत किसी को कानून के द्वारा इजाजत दिए गए किसी तरह का पेशा, ट्रेड या कारोबार करने से रोका जाए।’ हाल के दिनों में इस धारा की अहमियत काफी बढ़ गई है, क्योंकि इन दिनों फ्रैंजाइज समझौतों समेत दूसरे कई पक्षों का बोलबाला बढ़ा है।
कोका कोका केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कॉन्ट्रैक्ट एक्ट की धारा 27 न्यू यॉर्क के लिए तय ड्राफ्ट कोड से ली गई है और यह धारा व्यापार गतिरोध से संबंधित प्राचीन ब्रिटिश नीति पर आधारित है। यहां तक कि ब्रिटेन ने भी इस नियम को काफी आसान बनाया है।
भारत में वित्त आयोग भी सिफारिश कर चुका है कि आम लोगों और अनुबंध करने वाली पार्टियों के हितों को देखते हुए इस धारा में थोड़ी-बहुत नरमी बरती जानी चाहिए। वित्त आयोग करीब 3 दशक पहले यह सिफारिश कर चुका है, पर हमारे कानून निर्माताओं को अब तक इतना वक्त नहीं मिल पाया है कि वे इस सिफारिश पर दोबारा नजर डालकर इसकी पड़ताल करें।
जहीर खान का मामला 2 साल पहले आया था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया, उनके आधार पर कुछ मानक तय किए जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था – ‘अनुबंध खत्म होने के बाद की अवधि में भी प्रतिबंधात्मक नियम लागू किए जाने की बात बेमानी है और ऐसा करने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता।’
एक मसला संवैधानिक भी है। युवराज सिंह के केस की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा – इस तरह के नकारात्मक अनुबंध व्यक्ति के पेशे की स्वतंत्रता संबंधी मौलिक अधिकार की भावना के खिलाफ जाते नजर आते हैं।
मिसाल के तौर पर, कोई वकील अपने क्लाइंट पर यह बंदिश नहीं लगा सकता कि वह दूसरे वकील की सेवा न ले।लिहाजा जरूरत इस बात की है कि वक्त और कारोबार के तौर-तरीके बदलने के साथ-साथ कानून का तेवर भी बदले।