नई औद्योगिक नीति केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त उपक्रम होनी चाहिए। एक ऐसी नीति जो कारोबारियों के अनुकूल होने के बजाय बाजार के अनुकूल हो। बता रहे हैं नितिन देसाई
वैश्विक अर्थव्यवस्था में इन दिनों सक्रिय औद्योगिक नीतियों के विस्तार का दौर है जिनके बारे में संदेह है कि वे कंपनी मालिकों को समृद्ध बनाने के अलावा शायद ही कुछ कर रही हैं।
उदाहरण के लिए चिप निर्माण को मौजूदा व्यापक सब्सिडी आधारित सरकारी समर्थन जो भूराजनीतिक चिंताओं से संचालित है वह विश्व स्तर पर क्षमता अधिशेष की स्थिति बना सकता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत कम हो सकती है और यह संरक्षणवादी उपायों को प्रेरित कर सकता है। इसके परिणामस्वरूप राज्यों में चिप इस्तेमाल करने वाली विनिर्माण गतिविधियों की लागत बढ़ सकती है।
बीते कुछ वर्षों में विश्व स्तर पर औद्योगिक नीतियों में विश्वस्तर पर विसंगति आई है और 2017 में जहां कुछ सौ नीतियां थीं, वहीं 2023 में उनकी संख्या 2,000 हो गई। अकेले भारत में 100 नीतियां हैं। भारत में ऐसी औद्योगिक नीतियों की एक परंपरा रही है। 10 वर्ष पहले 2014 में ‘मेक इन इंडिया’ पहल के रूप में इसका एक उदाहरण सामने आया था। तब से कई क्षेत्रों के लिए अलग-अलग उपाय घोषित किए गए।
कंपनियों को सब्सिडी समर्थन का प्राथमिक स्वरूप राजस्व का नुकसान है जो 2022-23 में 1.09 लाख करोड़ रुपये था। यह राशि कुल संग्रहित कॉर्पोरेशन कर की 13 फीसदी थी।
हाल ही में चिप निर्माण तथा कई अन्य उद्योगों के लिए उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना के तहत और अधिक प्रत्यक्ष सब्सिडी की घोषणा की गई। परंतु मेक इन इंडिया कार्यक्रम की अवधि (2014-15 से 2023-24) के दौरान विनिर्माण वृद्धि सकल मूल्यवर्धन में विनिर्माण की हिस्सेदारी पहले पांच सालों के 16-17 फीसदी से घटकर अंतिम पांच सालों में 14-15 फीसदी रह गई। चुनिंदा क्षेत्रों और कंपनियों पर केंद्रित सक्रिय औद्योगिक नीति की वजह से औद्योगिक वृद्धि में गति नहीं आई।
मेरा मानना है कि सरकार की औद्योगिक नीति बाजार के अनुकूल होनी चाहिए, न कि कारोबार के। क्योंकि बाजार के अनुकूल होना सांठगांठ वाले पूंजीवाद की ओर ले जाता है। सरकारी से निजी क्षेत्र पर केंद्रित होने के बाद भारत के विनिर्माण में जो वृद्धि आई उसमें बाजार के अनुकूल नीतियों का योगदान अधिक था, बजाय कि कारोबारी नीतियों में हस्तक्षेप के।
1991 के बाद सबसे उल्लेखनीय परिवर्तन था औद्योगिक लाइसेंसिंग को समाप्त करना और अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था में चरणबद्ध बदलाव करते हुए मात्रात्मक व्यापारिक नियंत्रणों का अंत, विनिमय दर सुधार और टैरिफ में कमी करना।
दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इन्होंने निजी निवेश पर असर डाला और वैश्विक वित्तीय तथा व्यापार अर्थव्यवस्था में भारत की उपस्थिति मजबूत की। हालांकि मेरी नजर में सबसे महत्त्वपूर्ण बदलाव वित्तीय बाजारों की संस्थागत व्यवस्था में नजर आया जिसने बचत-निवेश प्रवाह को प्रभावित किया। इसे अधिक प्रतिस्पर्धी बनाया और निजी निवेश को गति देने का काम किया।
ऐसे उल्लेखनीय बदलाव किए गए जिन्होंने वित्तीय बाजार को बदल दिया। सबसे प्रभावी बदलाव था बैकों और म्युचुअल फंड क्षेत्रों को निजी उपक्रमों के लिए खोलना। इससे इन सेवाओं की गुणवत्ता में काफी बदलाव आया। शेयर कारोबार को डीमैट की मदद से सहज बनाया गया और इससे लोगों की रुचि इसमें जागी। नियामकीय प्राधिकार के भी भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी के हाथ में जाना भी एक अहम बदलाव रहा।
सरकार की वित्तीय नीतियों में ऐसे तमाम बदलाव भी बीते चार दशक में देश की औसतन छह फीसदी की वृद्धि दर के पीछे अहम कारण रहे। वित्तीय बाजारों को उदार बनाने में भी निजी कॉर्पोरेट वृद्धि में मदद की। इससे निजी कंपनियों की नई पूंजी बढ़ी और म्युचुअल फंड में इजाफा हुआ। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के उभार के साथ बाजारों में खुलापन आना जारी रहा। ये कंपनियां छोटे ग्राहकों तक पहुंचती हैं और फिर अंत में फिनटेक कंपनियों का आगमन हुआ।
डिजिटल अधोसंरचना का तेज विकास भी वित्तीय व्यवस्था के व्यापक उदारीकरण के लिए अहम रहा है। इन बातों की वजह से निजी कॉर्पोरेट निवेश, सरकारी क्षेत्र की तुलना में तेजी से बढ़ा। दोनों के बीच का अनुपात 1990-91 के 0.37 से बढ़कर 2022-23 में 1.63 हो गया।
2022-23 में विनिर्माण के निवेश की बात करें तो निजी क्षेत्र 71 फीसदी, घरेलू क्षेत्र के छोटे उपक्रम 22 फीसदी और सरकारी क्षेत्र केवल 7 फीसदी के लिए जिम्मेदार रहा। वित्तीय क्षेत्र सुधार के कारण आए बदलाव का एक मानक सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की तुलना में बाजार मूल्यांकन की प्रतिशत के रूप में बढ़ती हिस्सेदारी है। 1991-92 से 2004-05 के बीच के 37 फीसदी से बढ़कर 2005-06 से 2023-24 के बीच यह औसतन 85 फीसदी हो गया। क्षेत्र और तकनीक के बारे निर्णय निवेश करने वाली कंपनियों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।
सरकार को क्षेत्र आधारित औद्योगिक नीति की मदद से उसे प्रभावित नहीं करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि विनिर्माण को विश्व अर्थव्यवस्था की दृष्टि से और अधिक खोला जाए और संरक्षणवादी नीतियों का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए। भारत में शुल्क दरें भी अन्य उभरते बाजारों की तुलना में अधिक हैं और हमें कम से कम उनके स्तर तक रहने का प्रयास करना चाहिए।
सरकार को प्रतिस्पर्धी बाजार की सहायता के अलावा भी कदम उठाने की आवश्यकता है। खासतौर पर यह सुनिश्चित करने के लिए कि बाजार संभावनाओं का निजी क्षेत्र की निर्णय प्रक्रिया पर प्रभावी असर होगा। शायद इनमें सबसे अहम है भूमि अधिग्रहण। यह कई के लिए बड़ी बाधा रहा है।
स्वामित्व और भूमि अधिग्रहण कानूनों की जटिलता तथा देश के कई हिस्सों में इनसे जुड़ी प्रक्रियाओं को देखते हुए उद्योगों के लिए सीधे जमीन मिल पाना मुश्किल होता है। बहरहाल, अगर सरकार जमीन का अधिग्रहण करती है और फिर उसे निवेशकों को पैकेज के रूप में देती है तो प्रक्रिया सहज हो जाती है। दीर्घावधि में औद्योगिक विकास को लेकर सरकार का समर्थन तकनीकी शोध और विकास जैसे क्षेत्रों पर केंद्रित रहना चाहिए। इसके साथ ही शिक्षा और कौशल विकास पर भी ध्यान देने की जरूरत है। उभरते क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा देने के लिए यह आवश्यक है।
सफल औद्योगिक नीति के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सकारात्मक सहयोग की आवश्यकता है। उद्योग को बढ़ावा देने वाले राज्यों में एक सफल उदाहरण है तमिलनाडु जो भूमि अधिग्रहण, श्रम की उपलब्धता और अन्य चीजों को लेकर काफी सहयोगी है। खासकर विदेशी नियंत्रण वाले उपक्रमों के मामले में ऐसा है।
नई औद्योगिक नीति केंद्र और राज्यों का साझा उपक्रम होना चाहिए। केंद्र सरकार को जरूरी अधोसंरचना विकास, प्रतिस्पर्धी बाजार प्रणाली, वित्तीय व्यवस्था की निगरानी के लिए व्यवस्था विकास आदि पर ध्यान देना चाहिए। राज्यों को भी भूमि अधिग्रहण को सहज बनाने पर काम करना चाहिए।
इसके साथ ही कुशल स्थानीय और प्रवासी श्रमिकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ पर्यावरण तथा अन्य मानकों के सहज प्रवर्तन पर ध्यान देना चाहिए। राज्यों के बीच आपसी सहयोग की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि राष्ट्रीय विनिर्माण मूल्य श्रृंखला की स्थापना की जा सके। अगर यह होता है तो नई औद्योगिक नीति न केवल रोजगार बढ़ाएगी बल्कि विनिर्माण के क्षेत्र में उत्पादन वृद्धि में भी मददगार होगी।