अमेरिका और यूरोप में बैंकिंग व्यवस्था को अस्थिर करने के खतरे को जन्म देने वाला तूफान अब मंद पड़ गया है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम राहत की सांस ले सकते हैं। मार्च में जिस तरह अचानक यह तूफान आया था उसी तरह दोबारा कभी भी आ सकता है।
अमेरिका में बैंकिंग विफलताएं और यूरोप में बड़े बैंकों का लगभग नाकामी के मोड़ तक पहुंच जाना यकीनन अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करेगा। ऐसे में दुनिया अछूती नहीं रह सकेगी। मौद्रिक नीति की तरह हमें विकसित देशों की बैंकिंग अस्थिरता का दुनिया के अन्य देशों पर क्या असर होता है यह देखना होगा।
हम आशा कर सकते हैं कि अमेरिका और यूरोप में वृद्धि दर में धीमापन आएगा। धीमी ऋण वृद्धि का असर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर पड़ेगा और उसमें कमी आएगी। अमेरिका और यूरोप में मंदी का असर निर्यात की मांग पर भी पड़ेगा जिससे अन्य देशों की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी। पूंजी की आवक और अधिक अनिश्चित होगी तथा विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए डॉलर में फंडिंग और महंगी हो जाएगी।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने वैश्विक वृद्धि के केवल 2.8 फीसदी रहने का जो ताजा अनुमान पेश किया है वह जनवरी 2023 के अनुमान से केवल 0.1 फीसदी कम है। यह आशावादी नजर आता है क्योंकि यह बैंकिंग क्षेत्र में लगे झटके से थोड़ा ही कम है। बैंकिंग में जोखिम के प्रबंधन की नाकामी की कीमत विश्व अर्थव्यवस्था को चुकानी होगी। लंबे समय से बैंक प्रबंधन और बैंक बोर्ड प्रतीक्षारत रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि बुनियादी सच्चाइयों का सामना किया जाए।
पहली बात, बैंक प्रबंधन अनावश्यक जोखिम लेते हैं। बैंक जिस उच्च नकदी पर काम करते हैं वहां प्रबंधकों को जोखिम वाले दांव का ऊंचा भुगतान होना भी तय होता है। जब बैंक नाकाम रहते हैं, प्रबंधकों को जेल या जुर्माने के रूप में ज्यादा कीमत नहीं चुकानी पड़ती।
दूसरी बात, बैंक प्रबंधन के जोखिम पर लगाम लगाने के लिए पूरी तरह बैंक बोर्ड पर भरोसा करना गलत है। बैंकों की नाकामी के इतिहास में कई बैंक बोर्डों की नाकामी शामिल है। बोर्ड चाहे बैंक के हों या गैर बैंकिंग कंपनियों के, उनके पास काम करने के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहन नहीं होता। सालाना रिपोर्ट में बोर्ड की जिस समझदारी और मार्गदर्शन की बात की जाती है वह नजर नहीं आता।
बैंकों की अस्थिरता की निगरानी की जिम्मेदारी बैंकिंग नियामक और निगरानी करने वालों पर है। नियमन को ऐसा ढांचा मुहैया कराना चाहिए जहां जोखिम लेने से बचा जाना हो। निगरानी के जरिये यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अनुपालन हो रहा हो। दोनों ही मामलों में अमेरिका और यूरोप के नियामक प्रतीक्षा ही कर रहे हैं।
सिलिकन वैली बैंक (एसवीबी) की नाकामी को व्यापक तौर पर ब्याज दरों और बाजार जोखिम के प्रबंधन में विफलता के कारण घटित माना जा सकता है। बैंक ने अल्पावधि का जमा एकत्रित किया और उसे दीर्घावधि की सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश कर दिया। जब ब्याज दरें बढ़ने लगीं तो बैंक के पास मौजूद सरकारी प्रतिभूतियों की कीमत कम होने लगी।
परंतु एसवीबी के सामने केवल यही जोखिम नहीं थे। ऋण का जोखिम भी बढ़ा था। एसवीबी ने स्टार्टअप को बहुत अधिक ऋण दे रखा था। नकदी का जोखिम भी काफी अधिक था। जमा में बहुत बड़ी हिस्सेदारी उच्च मूल्य वाले कॉर्पोरेट जमा की थी जिसे भारतीय नियामकीय क्षेत्र में थोक जमा कहा जाता है। खुदरा जमा की तुलना में इनकी प्रकृति अस्थिर होती है।
यह बात चरम राष्ट्रोन्मादी प्रतीत हो सकती है लेकिन यह सुझाव देना उचित होगा कि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था इन जोखिमों से निपटने के लिए बेहतर तैयार है। एसवीबी में जिन बाजार जोखिमों के कारण हालात बिगड़े, भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में उनके दोहराव की आशंका कम है। भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में सरकारी प्रतिभूतियों की औसत धारिता देनदारी के 29 फीसदी के बराबर है। ज्यादातर होल्डिंग परिपक्वता तक के लिए है और बाजार जोखिम से मुक्त है।
रिजर्व बैंक केंद्रीकरण के जोखिम पर करीबी नजर रखता है। उसने कर्जदारों के जोखिम लेने को लेकर कड़े मानक तय कर रखे हैं। संवेदनशील क्षेत्रों मसलन अचल संपत्ति, जिंस और पूंजी बाजार की बात करें तो वे प्रतिबंधित हैं। रिजर्व बैंक किसी भी औद्योगिक क्षेत्र या उत्पाद के समक्ष अतिरिक्त जोखिम की ओर तत्काल ध्यान आकृष्ट करता है।
बोर्ड और प्रबंधन की आरबीआई की निगरानी अन्य जगहों की तुलना में अधिक गहन है। बैंकों के चेयरमैन और प्रबंध निदेशकों के पदों पर नियुक्ति के लिए आरबीआई की मंजूरी जरूरी है। आमतौर पर वह तीन वर्ष के कार्यकाल की मंजूरी देता है लेकिन यह अवधि कम भी हो सकती है। प्रबंध निदेशकों और चेयरमैन के पद के लिए आयु सीमा है।
बैंकों के बोर्ड घटक तथा अंकेक्षण और जोखिम प्रबंधन समितियों के सदस्यों के लिए मानक हैं। अधिकांश नियामक अपनी भूमिका मुख्य कार्यपालक अधिकारी वेतन भत्तों का अनुपात तय करने तक सीमित रखते हैं। रिजर्व बैंक इसके अलावा मुख्य कार्यपालक अधिकारी की तयशुदा आय के विनिमय का काम भी करता है। वह कार्यकारी के वेतन और बैंकिंग के व्यवस्थागत जोखिम के संबंधों को अच्छी तरह समझता है।
रिजर्व बैंक, बैंक प्रबंधनों को जो दो रिपोर्ट उपलब्ध कराता है वे ध्यान देने लायक हैं: सालाना वित्तीय निगरानी रिपोर्ट और जोखिम आकलन रिपोर्ट। इससे जोखिम का पूरा विस्तार, व्यवस्था और प्रक्रिया की कमियां तथा बोर्ड का कामकाज तथा अनुपालन में कमियां आदि सभी सामने आते हैं। बैंकों के बोर्ड में बैठे लोग भी इन रिपोर्ट की उच्च गुणवत्ता की बात कहेंगे।
बाद में आरबीआई ने बैंकों के कारोबारी मॉडल की जांच परख भी शुरू कर दी। रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने भी हाल ही में यह बात स्वीकार की थी। दास ने कहा, ‘अब हम बैंकों के कारोबारी मॉडलों की गहराई से पड़ताल कर रहे हैं, यह बात शायद कई मौकों पर बैंकों को पसंद न आए।’
रिजर्व बैंक को नियमन और निगरानी को लेकर अपने रुख पर दुखी होने की जरूरत नहीं है। जाहिर है इसे सूक्ष्म प्रबंधन के रूप में देखा जाएगा लेकिन यह बैंकिंग क्षेत्र में स्थिरता लाने वाला भी है।
रिजर्व बैंक के रुख को रेखांकित करता हुआ एक दर्शन है। बैंक अलग-अलग स्तर का व्यवस्थागत जोखिम समेटे रहते हैं और इसलिए उन्हें प्रबंधन, बोर्ड और बाजार के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता है। बैंकों की समस्या का ठोस हल है पूंजी में जबरदस्त इजाफा लेकिन वह लंबा रास्ता है। तब तक रिजर्व बैंक के रुख की सराहना करनी होगी।
दुनिया पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं और अन्य अर्थव्यवस्थाओं पर उसके असर को बार-बार नहीं झेल पाएगी। अमेरिका और यूरोप को अपने बैंकिंग नियमन और निगरानी को सख्त बनाने की आवश्यकता है। भारत को जी20 की अपनी अध्यक्षता का लाभ लेकर रिजर्व बैंक के बैंकिंग व्यवहार को बढ़ावा देना चाहिए जिससे अन्य बैंकिंग व्यवस्थाएं लाभान्वित हो सकें।