क्या भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बैंकों का सूक्ष्म प्रबंधन करना शुरू कर दिया है? मैंने पिछले वर्ष दिसंबर में ‘बिज़नेस स्टैंडर्ड बैंकिंग सम्मेलन’ में अनौपचारिक चर्चा के दौरान गवर्नर शक्तिकांत दास से यह प्रश्न पूछ दिया था। मेरा प्रश्न सुनकर वह अचरज में दिखे। उन्होंने कहा, ‘मैं पहली बार ऐसा सुन रहा हूं।’ दास ने कहा था कि आरबीआई ने बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों की निगरानी पहले से बढ़ा दी है और पूरी व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त बना दी है। यह लगातार चलने वाली प्रक्रिया है।
आरबीआई ने निगरानी की विधि और दृष्टिकोण दोनों में बदलाव किए हैं। बात आंकड़ों तक ही सीमित नहीं रह गई है, आरबीआई अब बैंकों के कारोबारी स्वरूप पर भी ध्यान दे रहा है और आवश्यकता पड़ने पर बैंकों को फटकार भी लगा रहा है। इतना ही नहीं, आरबीआई बैंकों को विश्वास में भी ले रहा है। यह प्रक्रिया ‘परामर्श’ आधारित है।
कुछ चीजें तो साफ हो गई हैं। आरबीआई हमेशा से खराब छवि वाले बैंकरों को दूर रखने के लिए लगभग रोज ही कोई न कोई परिपत्र जारी करता रहा था। मगर अब ऐसा नहीं है। आरबीआई पूरी तरह सावधानी बरत रहा है। पहले जब कोई बैंक ग्राहकों से ऊंची ब्याज आय अर्जित करता था और अपना बहीखाता गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) से मुक्त दिखाता था तो आरबीआई उसकी प्रशंसा किया करता था। अब ऐसा नहीं हो रहा, आरबीआई सतर्क हो गया है और सभी आंकड़े खंगालने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंच रहा है।
निगरानी का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य जमाकर्ताओं एवं ग्राहकों की रक्षा करना, वित्तीय क्षेत्र को स्थिर रखना और आर्थिक वृद्धि के लिए रकम की उपलब्धता सुनिश्चित करना है। आरबीआई ने निगरानी का लक्ष्य नहीं बदला है मगर इसका तरीका जरूर बदल दिया है। यह बदलाव बड़ा ही नाटकीय रहा है। निगरानी के नए तौर-तरीकों पर नजर डालने से पहले पुरानी व्यवस्था टटोल लेते हैं।
पहले ज्यादातर मामलों में आरबीआई के प्रतिनिधि बैंकों में जाकर स्थिति का आकलन करते थे। पांच वर्ष पहले यह बदल गया और अब विभिन्न स्रोतों से आए आंकड़ों का विश्लेषण अधिक हो रहा है। एक तरह से निगरानी प्रक्रिया संतुलित हो गई है। आरबीआई विभिन्न अवधियों के आंकड़ों को खंगालने पर अधिक ध्यान दे रहा है।
इसके साथ ही बैकिंग नियामक के प्रतिनिधियों का बैंकों एवं वित्तीय संस्थान जाकर संवेदनशील विषयों पर ध्यान देने का सिलसिला भी जारी है। आरबीआई पहले ऋण खातों की जांच (ट्रांजैक्शन टेस्टिंग) करता था मगर नया निगरानी ढांचा स्पार्क गठित होने के बाद इसका ट्रांजैक्शन टेस्टिंग दायरा घट गया। स्पार्क ढांचा जोखिम आधारित निगरानी (रिस्क बेस्ड ऐसेसमेंट या आरबीएस) पर केंद्रित हो गया।
आरबीएस पेचीदा मॉडल है। इसकी शुरुआत के पहले चरण में 28 बैंक वित्त वर्ष 2013 से इसके ढांचे में लाए गए। इसके तहत बैंकों के समक्ष वर्तमान और भविष्य के जोखिमों की व्यापक समीक्षा शामिल थी। इससे केंद्रीय बैंक को समय रहते आवश्यक उपाय करने में मदद मिली।
आरबीएस के आने के बाद केमल्स (पूंजी पर्याप्तता, परिसंपत्ति गुणवत्ता, प्रबंधन, आय, नकदी और प्रणाली एवं नियंत्रण) प्रणाली चलन से बाहर होती गई। केमल्स प्रणाली अनुपालन आधारित थी और यह ट्रांजैक्शन टेस्टिंग पर अधिक केंद्रित थी।
केमल्स के तहत बैंकों को दो समूहों- भारतीय एवं विदेशी- में विभाजित किया गया। आरबीएस में यह वर्गीकरण बदल गया। अब बैंक उनके ढांचे, कारोबारी स्वरूप और जोखिमों के आधार पर समूहों में बांटे गए हैं।
आरबीआई ज्यादातर आरबीआई ऑन-साइट निरीक्षण पर ध्यान केंद्रित करता रहा है। पिछले कुछ वर्षों में यह सिलसिला बदला है। ऑन-साइट से ऑफ-साइट निगरानी की तरफ झुकाव बढ़ने से ट्रांजैक्शन टेस्टिंग अधिक विषयगत और नमूनों पर आधारित हो गई। यह प्रक्रिया साल भर चलता रहती है।
पहले निरीक्षण ज्यादातर बैंकों के मुख्यालयों तक सीमित रहे जबकि बड़ी शाखाएं, विशेष शाखाएं आदि छूटती गईं। यही कारण था कि मुंबई में मिंट रोड पर आरबीआई के केंद्रीय कार्यलय से महज 100 मीटर की दूरी पर पीएनबी के ब्रैडी हाउस शाखा में भारतीय बैंकिंग जगत का इतना बड़ा घोटाला हो गया और किसी को पता तक नहीं चला। यह शाखा आरबीआई के निरीक्षण के दायरे में कभी नहीं आई। अब अनुभवों से लैस केंद्रीय बैंक बुद्धिमानी के साथ निरीक्षण एवं निगरानी के तरीकों में बदलाव कर रहा है।
निगरानी का नया चलन 2014 में स्थापित सेंट्रल रिपॉजिटरी ऑफ इन्फॉर्मेशन ऑन लार्ज क्रेडिट्स (सीआरआईएलसी) पर आधारित है। सीआरआईएलसी से पहले फंसे ऋण से जुड़े आंकड़े एक जगह उपलब्ध नहीं थे। यह ढांचा तैयार होने के बाद बैंक हरेक महीने 5 करोड़ रुपये या इससे अधिक के ऋणों से जुड़ी जानकारियां देते हैं। एनपीए हो चुके ऋणों के लिए आंकड़े साप्ताहिक आधार पर दिए जाते हैं।
ऋण खातों के एनपीए में तब्दील होने की आशंका के मद्देनजर बैंकों को ऋणों को विभिन स्तरों पर स्पेशल मेंशन अकाउंट (एसएमए) में वर्गीकृत करना जरूरी है। आरबीआई और बैंक (मगर रेटिंग एजेंसियां नहीं) इन आंकड़ों को देख सकते हैं। इससे बैंकिंग प्रणाली को हरेक कर्जधारकों के भुगतान के रिकॉर्ड तक पहुंचने में मदद मिलती है।
पहले ऋण खातों को मानक बनाए रखने के लिए रकम बैंकों में इधर से उधर अंतरित होती थी। सीआरआईएलसी की मदद से आरबीआई वित्त वर्ष 2016 से परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा (एक्यूआर) करने लगी। इसका मकसद बैंकों के बहीखातों को फंसे ऋणों के जंजाल से मुक्त रखना है।
सीआरआईसीएलसी के अस्तित्व में आने से ठीक एक साल पहले केमल्स निगरानी व्यवस्था आरबीएस की तरफ बढ़ी थी। उस समय ज्यादातर बैंकों में आंतरिक नियंत्रण और जोखिम प्रबंधन कमजोर था मगर वे अपने शीर्ष प्रबंधन को खुश करने के लिए आतंरिक अंकेक्षण में हेरफेर करते थे।
मगर आरबीआई और सीआरआईएलसी ने काफी हद तक पारदर्शिता ला दी है। आरबीआई की नई निगरानी व्यवस्था का प्रमुख बिंदु सक्रिय रूप से बैंकिंग प्रणाली में अत्यधिक जोखिम की पहचान कर उन्हें दूर करने के लिए समय रहते प्रयास करना है।
हाल तक नियामक की पहल परिणाम आधारित थी। आरबीआई तभी कदम उठाता था जब फंसे ऋणों के मामले सामने आते थे। मगर अब बैंकिंग नियामक ने शुरू से ही लक्षणों पर ध्यान देना शुरू कर दिया है और समस्या के असली कारण तक पहुंचना शुरू कर दिया है।
अब निगरानी व्यवस्था में तारतम्यता भी बढ़ गई है। पहले आरबीआई केवल बैंकों पर ध्यान केंद्रित करता था और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की भी थोड़ी बहुत जांच हो जाती थी। मगर शहरी सहकारी बैंक ज्यादातर आरबीआई की नजरों में नहीं आ पाते थे। मगर अब आरबीआई सभी वित्तीय मध्यस्थों पर भी ध्यान दे रहा है।
संक्षेप में कहें तो निगरानी व्यवस्था का पूरा ढांचा इकाई से गतिविधि आधारित हो गया है। अब सीआरआईएलसी के बाद लीगल ऐंटिटी आईडेंटीफिकेशन (एलईआई) की शुरुआत होगी। यह 20 अंक वाला विशिष्ट कोड होगा जो वित्तीय लेनदेन में शामिल पक्षों की पहचान करेगा।
(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ सलाहकार हैं)