देश में नीट को लेकर मचे हो हल्ले के बीच ध्यान देने वाली बात यह है कि हमें सिर्फ तात्कालिक लक्षणों का समाधान नहीं करना चाहिए। बता रहे हैं अजय शाह और विजय केलकर
राष्ट्रीय अर्हता सह पात्रता परीक्षा (NEET) के संचालन में नाकामी ने काफी नाराजगी पैदा की है। यह सोचना संभव है कि नीट की समस्या को समझकर क्रियान्वयन में सुधार किया जाए।
हमें प्याज की तरह समस्या की परतें छीलकर गहराई में जाना होगा। देश के हर मेडिकल कॉलेज में छात्रों के दाखिले पर केंद्रीय नियंत्रण क्यों होना चाहिए? देश में चिकित्सा शिक्षा में इतनी कम सीट क्यों होनी चाहिए?
सबसे पहले तो यही लगता है कि हम परीक्षा को सही तरीके से कराने में नाकाम रहे इसलिए हमें उस व्यवस्था को सही करना होगा। हम कुछ और पुलिसकर्मियों तथा हथियारबंद वाहनों की मदद से पेपर को लीक होने से रोक सकते हैं।
देश में सरकारी संस्थानों से त्रुटिरहित प्रदर्शन की उम्मीद करना समझदारी नहीं है। देश की अधिकांश नीतिगत समस्याओं की तरह हमें यहां भी बेहतर विचारों की आवश्यकता है, न कि खराब विचारों के क्रियान्वयन की। परंतु सामान्य नजरिये से बेहतर काम कैसे किया जा सकता है?
एक बेहतर केंद्रीकृत परीक्षा
सवाल यह भी है कि इतनी बड़ी देशव्यापी परीक्षा की क्या जरूरत है जिसे एक ही तिथि को आयोजित करना पड़े? विभिन्न प्रकार के विद्यार्थियों के बीच एक सा प्रश्नपत्र वितरित करके उनसे उत्तर देने को कहना उनकी गुणवत्ता को जानने का एक खराब तरीका है।
‘आइटम प्रतिक्रिया सिद्धांत’ पर आधारित कंप्यूटरीकृत परीक्षण प्रत्याशियों का बेहतर आकलन करता है। ग्रैजुएट रिकॉर्ड इक्जामिनेशन इसी तरह काम करता है। अगर एक तयशुदा परीक्षा होती है तो बड़ी तादाद में लोग पूर्णांक हासिल करते हैं और उनसे कम अंक पाने वाले भी उनसे बहुत पीछे नहीं रहते।
आधुनिक सांख्यिकीय पद्धतियां 95 परसेंटाइल और 99 परसेंटाइल पाने वाले बच्चों में कठिन सवालों के जरिये अंतर कर लेती हैं। इसके लिए ढेर सारे प्रश्नों का सहारा लिया जाता है जिनमें से प्रत्येक सवाल के अतीत के प्रदर्शन पर आधारित शोध एवं आकलन का विषय होता है।
इस व्यवस्था में परीक्षण पूरे वर्ष जारी रहता है और परीक्षा लेने वाला परीक्षा लेने के लिए समय देता है। इस व्यवस्था में बाढ़, गर्मी या बीमारी जैसी स्थितियों से परीक्षा न दे पाने के मामले कम होते हैं। इसका संचालन आसान है। इस व्यवस्था में 25 लाख लोगों को एक ही दिन परीक्षा नहीं देनी पड़ती है बल्कि इसे रोज 10,000 लोगों की परीक्षा के रूप में भी आजमाया जा सकता है। प्रबंधन के नजरिये से भी यह अधिक व्यावहारिक है।
डेटा जारी करने, शोध, आलोचना आदि के लिए भी यही मुफीद है। साथ ही इससे यह भी सीखा जा सकता है कि कैसे साल में 250 बार रोज 10,000 लोगों की सफल परीक्षा ली जा सकती है। इसके लिए शैक्षणिक परीक्षा सेवा के स्तर पर संस्थागत क्षमता की आवश्यकता है। उसका स्तर जीआरई को कराने वाली निजी अमेरिकी कंपनी जैसा होना चाहिए।
परीक्षा संबंधी गतिविधियों को सरकार के हाथों से बाहर करने के लिए नीतिगत सुधारों की आवश्यकता होगी। इससे मदद मिलेगी लेकिन क्या हम और बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं?
कॉलेज में दाखिले की बेहतर व्यवस्था
कोई विश्वविद्यालय कई आवेदकों में से चयन कैसे करेगा? यह विश्वविद्यालय के प्रबंधकों और बोर्ड का चयन होगा। हर विश्वविद्यालय का उद्देश्य और उसकी रणनीति छात्रों के चयन की व्यवस्था को तय करेगी। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो सब पर एक समान लागू हो। कुछ विश्वविद्यालय विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित पर जोर देते हैं जबकि कुछ अन्य विभिन्न व्यक्तित्वों पर तथा अन्य लॉटरी आधारित आवंटन पर ध्यान दे सकते हैं।
यह बात हमें भारत में चकित कर सकती है लेकिन अमेरिका के डॉक्टरों का बहुत बड़ा तबका ऐसा है जिनका अतीत विज्ञान क्षेत्र में गहरा नहीं रहा है। डॉक्टरों को मजबूत संचार क्षमताओं, आलोचनात्मक सोच और समस्याओं को हल करने वाले कौशल की आवश्यकता होती है। ये गुण उदार और कला क्षेत्र की शिक्षा से उत्पन्न होते हैं।
किसी चिकित्सा महाविद्यालय का समझदार नेतृत्व ही ऐसी चयन प्रक्रिया निर्धारित कर सकता है जो उसकी नीतियों के साथ तालमेल वाली हो। ऐेसे में मेडिकल कॉलेज में दाखिला भारत में विभिन्न स्थितियों का एक हिस्सा मात्र है जिस पर बहुत अधिक सरकारी नियंत्रण है।
केंद्र सरकार के मेडिकल दाखिले पर नियंत्रण की कोई वजह नहीं है। हर मेडिकल कॉलेज को अपनी मर्जी से दाखिला करना चाहिए। हमें केंद्र सरकार को मेडिकल दाखिलों की प्रक्रिया से बाहर करने के लिए नीतिगत सुधारों की आवश्यकता होगी। इससे मदद मिलेगी लेकिन क्या हम बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं?
एक बेहतर चिकित्सा शिक्षा व्यवस्था
देश में चिकित्सकों की भारी कमी है, यहां तक कि भारत के बच्चे चीन और यूक्रेन तक जाकर पढ़ाई कर रहे हैं। घरेलू जरूरतों, मेडिकल टूरिज्म और विदेशी उपयोगकर्ताओं को टेलीमेडिसन सेवाओं की आपूर्ति आदि से लगता है कि मौजूदा की तुलना में 10 से 20 गुना डॉक्टर भी हमारे देश में आसानी से खप जाएंगे।
आधुनिक भारत में टेलीफोन कनेक्शन या स्कूटरों की कोई कमी नहीं है। भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं का हल इस बात में निहित है कि नीतिगत प्रक्रिया में बेहतर क्रियान्वयन के बजाय बेहतर विचारों को पेश किया जाए। मेडिकल कॉलेज में दाखिलों से जुड़े विवादों की वजह सीटों की कमी है। यह कमी सरकारी नियमों की गलतियों की वजह से है।
देश में सॉफ्टवेयर उद्योग के उभार के बारे में विचार कीजिए जब इंजीनियरों की कमी का जोखिम था। इसे नीतिगत सुधारों की मदद से हल किया गया और निजी शैक्षणिक संस्थान सामने आए।
शिक्षा बाजार और श्रम बाजार जानते हैं कि अच्छे और बुरे कॉलेजों में कैसे भेद करना है। छात्रों या नियोक्ताओं को गलत सूचनाओं से निपटने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। देश का निजी क्षेत्र जानता है कि शैक्षणिक संस्थानों को कैसे चलाना है, ढेर सारे प्रतिबंधों को कैसे हटाना है।
सरकारी प्रतिबंधों ने देश में कई विश्वविद्यालयों को मेडिकल कॉलेज खोलने से रोक रखा है जबकि वे निजी अस्पतालों के साथ साझेदारी में ऐसा कर सकते हैं। अच्छे निजी चिकित्सालयों के लिए यह बेहतर है कि वे अपने कामकाज के साथ चिकित्सा शिक्षा को शामिल करें।
एक चिकित्सा विश्वविद्यालय में ऐसे शिक्षक होने चाहिए जो केवल चिकित्सा सेवा के पेशे में नहीं हों। उन्हें शोधकर्ता भी होना चाहिए। निजी अस्पतालों के लिए यह बेहतर होगा क्योंकि इससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। इसके लिए पारंपरिक निजी अस्पतालों की तुलना में अलग तौर तरीकों की आवश्यकता होगी। सरकार की भूमिका शोध को फंड करने की व्यवस्था तैयार करना है जिसके जरिये ऐसे शोधकर्ताओं को अनुदान मिल सके।
(शाह एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता और केलकर पुणे इंटरनैशनल सेंटर के उपाध्यक्ष हैं)