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मु​स्लिमों की सियासी और सामाजिक वापसी

पुरानी धर्मनिरपेक्षता समाप्त नहीं हुई है लेकिन मोदी और भागवत से लेकर राहुल और शाहरुख तक हवा में बदलाव के संकेत तो नजर आ रहे हैं।

Last Updated- January 29, 2023 | 11:14 PM IST
Political and social return of Muslims
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इस सप्ताह के स्तंभ का शीर्षक शाहरुख खान की फिल्म पठान की सफलता से प्रेरित नहीं है, हालांकि वह एक अहम कारक है। हम सभी मनोरंजक सिनेमा अ​धिक पसंद करते हैं, वैसे ही पहले हम राजनीति पर नजर डालते हैं। पहले यहीं से कुछ संकेत लेते हैं।

सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह लीक होकर सामने आया भाषण जिसमें उन्होंने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अपनी पार्टी के कुछ अहम सदस्यों के सामने उपदेश जैसा दिया था। उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं को सलाह दी कि वे फिल्म जैसी छोटी चीजों को लेकर अनावश्यक विवाद न उत्पन्न करें। उन्होंने ‘मु​स्लिम’ शब्द का उल्लेख नहीं किया लेकिन हम सभी जानते हैं कि समझदार को इशारा काफी होता है।

दूसरा, उन्होंने कहा कि जरूरत है कि पार्टी के नेता मु​स्लिमों के अन्य धड़ों मसलन बोहरा और पसमांदा तक पहुंच बनाएं। बोहरा मु​स्लिमों का एक छोटा पंथ है जिसकी गुजरात में गहरी जड़ें हैं जबकि पसमांदा निचली जातियों के समकक्ष माने जाते हैं। माना जाता है कि मु​स्लिम आबादी में उनकी हिस्सेदारी करीब 85 प्रतिशत है।

वर्षों से मोदी-शाह की भाजपा और मोहन भागवत के नेतृत्व वाला आरएसएस यह मानते रहे हैं कि मु​स्लिमों द्वारा उनका विरोध अशराफों के नेतृत्व में होता रहा है और उनके पास अवसर है कि वे मु​​स्लिम आबादी को सामाजिक और आ​र्थिक आधारों पर बांट सकें।

यह लगभग जाति आधारित राजनीति की तरह है। यह उसी तरह का खेल है जो क​थित धर्मनिरपेक्ष दल हिंदुओं के साथ खेलते रहे हैं: यानी जो धर्म के आधार पर एक हों उन्हें जाति के आधार पर बांटना। अब प्रधानमंत्री ने इसे सीधे अपनी पार्टी के नेताओं से कहा है जो कि एक महत्त्वपूर्ण बात है।

अब उनके शब्दों, कदमों, संकेतों और हावभाव को देखते हुए पार्टी जिस प्रकार काम कर रही है उससे पता चलता है कि उनकी बात पहुंच चुकी है। खासतौर पर इसलिए कि उन्होंने पार्टी नेताओं से कहा कि वे बाहर जाएं और ईसाइयों, उनके आयोजनों, सूफी कार्यक्रमों आदि में ​शिरकत करें।

हम जानते हैं कि वह ऐसा हर वर्ष करते हैं लेकिन पिछले दिनों सरकार ने प्रधानमंत्री और अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति इरानी की तस्वीर जारी की जिसमें वे मु​स्लिमों के प्रसिद्ध तीर्थ अजमेर शरीफ के मौलवी को वहां चढ़ाने के लिए एक चादर सौंप रहे हैं। आप कह सकते हैं कि यह राजनीति है लेकिन राजनीति तो हर बात में है। मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान ने इसे पहले देश के 20 करोड़ मु​स्लिमों तक पहुंचने की कोई खास जरूरत नहीं महसूस की। पार्टी ने हिंदू वोटों को एकजुट करके उनके मतों को अप्रासंगिक कर दिया है। सत्ताधारी पदों पर मु​स्लिम इतने अदृश्य कभी नहीं थे। इसके बावजूद सत्ताधारी दल लोकसभा और उत्तर प्रदेश विधानसभा जैसे चुनाव आसानी से जीतता रहता है।

इसके बावजूद अगर आप इन कदमों को भागवत द्वारा मु​​स्लिमों द्वारा की गई बातों के आलोक में देखेंगे तो पता चलेगा कि तनाव को कम करने का प्रयास किया जा रहा है। ब​ल्कि भाजपा कवर करने वाले संवाददाताओं के साथ अनौपचारिक बातचीत में आरएसएस के एक नेता ने नाराजगी जताते हुए कहा था कि कैसे नेता बनने के लिए लोग राजनीति में आते हैं और सफल होने के लिए कट्टरता को सुविधाजनक मार्ग बना लेते हैं।

भारतीय मु​स्लिमों की हालत के बारे में एक और बदलाव इस बार मोदी के सबसे बड़े और मुखर राजनीतिक आलोचक राहुल गांधी की ओर से आया है। योगेंद्र यादव ने हाल ही में एक आलेख में कहा कि भारत जोड़ो यात्रा जहां से भी गुजरी वहां सामाजिक और सांप्रदायिक तनाव कम हुए। भले ही यह आशावादी हो लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सीएए विरोधी प्रदर्शन के बाद यह पहला मौका है जब भारतीय मु​स्लिमों को एक मंच मिला है जहां वे बिना गिरफ्तारी या यूएपीए के तहत बंदी बनाए जाने के डर के राजनीतिक मार्च में शामिल हो सकते हैं।

यह बदलाव है और राहुल जिस भाषा में बात कर रहे हैं वह भी व्यापक बहस को प्रभावित करने वाली है। संभव है यह बात भारतीय मु​स्लिमों को उतनी रोमांचित न करती हो जितना असदुद्दीन ओवैसी के भाषण करते हैं। फिर भी वर्षों बाद यह सुनना आश्वस्त करता है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी मानती है कि मुख्य धारा की राजनीति में मु​स्लिमों के लिए भी जगह है। खासतौर पर यह देखते हुए कि मु​स्लिमों ने मोदी के लिए उभरती चुनौती बन रही अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से यह बात नहीं सुनी है। कांग्रेस का सार्वजनिक और राजनीतिक तौर पर मुस्लिमों से यह जुड़ाव एक बड़े बदलाव का उदाहरण है क्योंकि बीते कई वर्षों से हिंदुओं की नाराजगी के डर से ऐसा नहीं किया
जा रहा था।

तीसरा तत्त्व है शाहरुख खान की फिल्म पठान की सफलता। इससे भी अहम बात है इसका व्यापक और लोकप्रिय जश्न। बड़े सिनेमा घरों और छोटे कस्बों में निम्न मध्यवर्गीय दर्शक फिल्म देखते हुए नाचते नजर आ रहे हैं। सबसे अहम बात यह है कि वे मु​स्लिम नायक के नायकत्व का जश्न मना रहे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि अगर शाहरुख खान ने भारतीय मु​स्लिम नायक का किरदार निभाने के बजाय राहुल या राज जैसी कोई भूमिका चुनी होती तो? लेकिन उन्होंने मु​स्लिम नाम चुनने का साहस दिखाया। अगर वह इसके लिए पुरस्कृत हो रहे हैं या इसके बावजूद पुरस्कृत हो रहे हैं तो जाहिर है हमारे समाज का सोच बदल रहा है। इसके आधार पर किसी अहम राजनीतिक बदलाव की उम्मीद न पालें लेकिन बदलाव तो आ रहा है।

अगर शाहरुख चक दे इंडिया के कबीर खान से लेकर माइ नेम इज खान, रईस, हे राम, डि​यर जिंदगी, ए दिल है मु​श्किल आदि के जरिये इस विचार के साथ प्रयोग न कर रहे होते तो इसे एक अपवाद माना जा सकता था। पठान में उन्होंने धर्म के प्रश्न को अनुत्तरित छोड़ दिया है लेकिन वह यह जरूर बताते हैं कि वह कहां से आते हैं। हमारे देश में बड़े फिल्मी सितारे राजनीति से दूर रहते हैं और शाहरुख अतीत में इस बात को खारिज कर चुके हैं कि वह मु​स्लिम किरदार निभाकर कोई राजनीतिक टिप्पणी करना चाहते हैं। हालांकि तथ्य यह है कि वह ऐसा करने का साहस दिखाते रहे हैं। देश के अच्छे-अच्छे फिल्मकार ऐसा करने की हिम्मत नहीं दिखा पाते।

याद र​हे कि ये सभी फिल्में मु​स्लिम सामाजिक परिदृश्य पर आधारित थीं। मुस्लिम किरदार हिंदू नायक का वफादार और बलिदान करने वाला होता था। वह देशभक्त और सम्माननीय होता था लेकिन नायक या नायिका नहीं। सनी देओल शैली के नायकों के उभार के बाद मु​स्लिम ज्यादातर आतंकवादी दिखाए जाने लगे। शाहरुख ने दो दशकों तक इस सोच का प्रतिकार किया। यह उनकी सबसे बड़ी सफलता है।

अगर राहुल की यात्रा कोई राजनीतिक वक्तव्य तैयार करती है और शाहरुख खान की सफलता अ​धिक सहज लोकप्रिय मिजाज को रेखांकित करती है तो मोदी और भागवत द्वारा अपने अनुयायियों को दिया जा रहा संकेत एकदम अलग दिशा से आता दिख रहा है। अब वे मानते हैं कि उन्होंने राजनीतिक दृष्टि से अपनी चुनावी संभावनाओं को मजबूत किया है। 2024 तक हिंदू मतों में कोई विभाजन होता नहीं दिखता। हिंदुत्व और आरएसएस के अ​धिकांश लक्ष्य हासिल किए जा चुके हैं।

सभी प्रमुख मंदिरों का जीर्णोद्धार हो रहा है और कम से कम दिखाने के लिए ही उन पर दोबारा कब्जा किया जा रहा है। उज्जैन और वाराणसी में लक्ष्य हासिल हो चुका है और मथुरा में कार्य प्रगति पर है। इसकी स्वीकार्यता इतनी अ​धिक है कि गणतंत्र दिवस की झांकियों में से कई हिंदू देवी-देवताओं पर थीं। यहां तक कि जम्मू कश्मीर की झांकी में भी अमरनाथ को दर्शाया गया था। क्या मु​स्लिमों को लगातार निशाना बनाने से हिंदू मतों का कुछ और प्रतिशत साथ जोड़ा जा सकता है।

खासतौर पर ऐसे समय पर जबकि भारत ने जी 20 अध्यक्षता हासिल ही की है और जिसे मोदी अपने मतदाताओं के बीच विश्व के नेतृत्व के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे में यह नए विरोध प्रदर्शन या वैश्विक उदारवादियों की आलोचना आक​र्षित करने या आतंकी हमलों को उकसाने के लिए सही समय नहीं है। मोदी और उनकी पार्टी को सामा​जिक शांति की आवश्यकता है। कम से कम 2024 की गर्मियों तक ऐसा करना जरूरी है। यह इस बदलाव की एक तार्किक व्याख्या हो सकती है।

First Published - January 29, 2023 | 11:14 PM IST

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