राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार का दूसरा कार्यकाल समाप्त हो रहा है और इस बात की पूरी उम्मीद है कि यह सरकार एक बार फिर चुनकर आएगी, ऐसे में इस बात पर विचार करना उचित है कि अपेक्षाकृत उथलपुथल भरे पांच वर्षों में उसका प्रदर्शन कैसा रहा है। खासकर आर्थिक प्रबंधन के मामले में।
हमारा मानना है कि राजग सरकार के पहले पांच साल का कार्यकाल पूरी तरह सकारात्मक नहीं था। इस अवधि में दो बड़े सुधार देखने को मिले: पहला था ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया विधेयक तथा दूसरा भारतीय रिजर्व बैंक में ब्याज दर को लक्षित करने वाली औपचारिक व्यवस्था का गठन।
वस्तु एवं सेवा कर या जीएसटी तीसरा सुधार हो सकता था लेकिन दरों में कटौती के साथ उसका अंतिम संस्करण बहुत प्रभावी नहीं रह गया था। वैश्विक ईंधन कीमतों में भारी गिरावट का भी लाभ नहीं उठाया जा सका। ‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहल निवेशकों को आकर्षित करने की कवायद भर रह गई और जमीन पर कुछ ठोस सुधार नहीं हुआ। इसके अलावा नोटबंदी ने एक आत्मघाती कदम की भूमिका निभाई।
अगले पांच वर्षों में वैश्विक हालात बहुत सकारात्मक नहीं थे। अर्थव्यवस्था खासकर असंगठित क्षेत्र अभी भी जीएसटी और नोटबंदी के असर से जूझ रहा था कि तभी महामारी आ गई। 2013 के बाद से केंद्र ने राजकोषीय समावेशन की ओर रुख किया था और देश इस झटके के लिए तैयार नहीं था। परंतु राजग सरकार के दूसरे कार्यकाल की पहली बड़ी उपलब्धि थी महामारी का वृहद आर्थिक प्रबंधन।
केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने गारंटी की व्यवस्था के साथ लक्षित कल्याणकारी कदम उठाने शुरू किए और मांग बढ़ाने के लिए एकदम से राजकोषीय व्यय में इजाफा नहीं किया। यह कदम समझदारी भरा साबित हुआ। तब से अब तक सुदृढ़ीकरण की गति तेज हो सकती थी और होनी भी चाहिए लेकिन घाटे में गिरावट साफ थी।
मांग में इजाफा नहीं होने और केंद्रीय बैंक के मुद्रास्फीति को लक्षित करने के कारण भारत उच्च मुद्रास्फीति से बचा रहा जबकि दुनिया के कई देश इससे प्रभावित हुए। मुद्रास्फीति प्रबंधन को दी गई नीतिगत प्राथमिकता राजकोषीय नीति के माध्यम से भी साफ नजर आ रही है। कई बार इसकी वजह से दिक्कतदेह चयन भी करने पड़े। मिसाल के तौर पर चावल और प्याज जैसी चीजों पर किसी न किसी तरह का निर्यात प्रतिबंध। परंतु कुल मिलाकर मुद्रास्फीति के सतर्क प्रबंधन को सकारात्मक मानना होगा।
व्यय प्रबंधन और मुद्रास्फीति प्रबंधन के अलावा हम एक तीसरी उपलब्धि भी शामिल कर सकते हैं और वह है कई प्रमुख क्षेत्रों पर सरकार का सीधा ध्यान। इसमें सेमीकंडक्टर से लेकर नवीकरणीय ऊर्जा और अंतरिक्ष तक शामिल हैं। इन बातों ने निवेशकों की रुचि जगाई है। इसमें से कुछ हिस्सा पश्चिम और चीन से उधार ली गई समझ है। औद्योगिक नीति और कारोबारी क्षेत्रों में से चुनिंदा विजेताओं का चयन करना भारत के लिए नया नहीं है। इस रुख में भी कई दिक्कते हैं।
उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन या पीएलआई योजनाएं यकीनन निजी क्षेत्र के चयन और जोखिम लेने के क्षेत्र में सरकार के दखल का विस्तार हैं। परंतु इन क्षेत्रों पर खास ध्यान देने का व्यापक राजनीतिक निर्णय खासकर जलवायु परिवर्तन और आर्थिक सुरक्षा के क्षेत्र में ऐसा करना यकीनन बचाव योग्य है।
अधिक उल्लेखनीय उपलब्धि है अधोसंरचना निर्माण के लगातार प्रयास। भौतिक अधोसंरचना पर सरकारी व्यय दो बजटों में दोगुना कर दिया गया। यह कहना मुश्किल है कि इसमें से कितना धन भली भांति खर्च हुआ। निश्चित तौर पर राजमार्गों की स्थिति में सुधार हुआ है। परंतु एक सवाल यह भी है कि क्या भारतीय रेल जैसी परिसंपत्तियों के वास्तविक प्रबंधन पर बुरा असर पड़ा और वंदे भारत जैसी दिखाऊ उपलब्धियों तक सिमट गया।
अगर पता चलता है कि मल्टी मोडल कनेक्शन नहीं तैयार हुए मसलन बंदरगाहों पर निगरानी क्षमता जैसी अधोसंरचनाएं अभी भी गतिरोध की स्थिति में हैं तो कहा जा सकता है कि इस व्यय का प्रतिफल अपर्याप्त रहा है। वैश्विक पूंजी जुटाने की कोशिशों को कुछ हद तक कामयाबी मिली लेकिन ये प्रयास अधिक प्रभावी हो सकते थे अगर दीर्घकालिक पूंजी जुटाने के लिए समझदारी पूर्वक वित्तीय ढांचा तैयार किया गया होता।
इन तीन उपलब्धियों और एक संदेहास्पद उपलब्धि के साथ क्या हम इस सरकार को उत्तीर्ण घोषित कर सकते हैं? मैं निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकता। दो बड़े सवाल अनुत्तरित हैं। पहला यह व्यापक वृद्धि को कहां से गति मिलेगी। दूसरा यह कि रोजगार और नौकरियों में वृद्धि कैसे हासिल होगी?
जैसा कि शंकर आचार्य ने हाल ही में इसी समाचार पत्र में लिखा कि भारत को अगले 25 वर्षों तक तिमाही दर तिमाही आठ फीसदी से अधिक की वृद्धि हासिल करनी होगी तभी वह उच्च आय वाली अर्थव्यवस्था बन सकेगा। अतीत में कई देश ऐसा कर चुके हैं। परंतु हर मामले में वृद्धि के कुछ अहम स्रोत थे- महिलाओं समेत श्रम शक्ति में इजाफा, श्रम आधारित निर्यात में इजाफा, विदेशी निवेश से संचालित तेज औद्योगीकरण।
भारत में ऐसे कोई कारक नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि फिलहाल यह घरेलू मांग आधारित वृद्धि पर निर्भर है। फिर भी उपभोक्ता मांग विश्वसनीय नहीं है और इसका आधार भी व्यापक नहीं है। आखिरकार कोई भी देश केवल घरेलू मांग के आधार पर अमीर नहीं हुआ है।
इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न रोजगार का है। मांग इसलिए व्यापक नहीं है क्योंकि अच्छे रोजगार और सुरक्षित मेहनताना और संपत्ति वृद्धि में उतनी वृद्धि नहीं हो रही है जितनी होनी चाहिए। रोजगार के आंकड़ों के बारे में हम काफी बातें कर सकते हैं। सरकार निजी क्षेत्र की एजेंसियों के विभिन्न अनुमानों का इस्तेमाल खुशी-खुशी कर सकती है जो कहते हैं कि लाखों की संख्या में रोजगार तैयार हुए हैं।
वह उन सर्वेक्षणों की आलोचना भी कर सकती है जो वेतन और रोजगार वृद्धि में ठहराव की बात कहते हैं। परंतु औपचारिक रोजगार तैयार करने में नाकामी को नकारा नहीं जा सकता है। सरकार को इसकी राजनीतिक कीमत नहीं चुकानी पड़ी है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि यह दीर्घावधि के लिए कोई टिकाऊ व्यवस्था है। भारत के पास अपने जनांकीय लाभ का सही इस्तेमाल करने के लिए कुछ दशक हैं।
देश के कुछ हिस्सों में जनांकीय रुझान में बदलाव आने लगा है और वह विपरीत हो रहा है। किसी भी देश को अपनी आबादी के बूढ़ा होने के पहले वृद्धि हासिल करनी चाहिए। वे तभी अमीर होंगे जब उनकी युवा पीढ़ी को श्रम शक्ति का उत्पादक और प्रभावी सदस्य बनने का अवसर मिलेगा। राजग सरकार को अपने दोनों कार्यकालों में इस बात पर ध्यान देना चाहिए था। फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि उसने इसे प्रभावी ढंग से अंजाम दिया है।