सभी अर्थव्यवस्थाओं में अगर कोई चीज निशुल्क है तो वह है पोर्टफोलियो में विविधता लाना। जब भी कोई पोर्टफोलियो किसी एक उद्योग के अंतर्गत ही एक कंपनी से कई कंपनियों में जाता है तो जोखिम में कमी आती है। आखिर में जब संपत्ति कई देशों में बंटी होती है तो जोखिम में अच्छी खासी कमी आती है। सबसे सुरक्षित इक्विटी पोर्टफोलियो वह है जो एक दर्जन परिपक्व उदार लोकतंत्रों में विभाजित होता है।
बीते पांच वर्षों में एसऐंडपी 500 और निफ्टी के स्तर पर नजर डालें तो उनकी गति को देखना दिलचस्प है। एसऐंडपी 500 डॉलर में अभिव्यक्त है। जब निफ्टी के 101.35 फीसदी के उभार को डॉलर/रुपये के दर में 16 फीसदी अवमूल्यन से समायोजित किया जाता है तो दोनों सूचकांक आश्चर्यजनक रूप से एक जैसे नजर आते हैं।
पुराने दिनों में निफ्टी और एसऐंडपी 500 इस प्रकार संबद्ध नहीं थे। एक स्पष्टीकरण वास्तविक क्षेत्र के एकीकरण का भी है: निफ्टी की कंपनियों की बात करें तो आयात, निर्यात, बाहर जाने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और वैश्विक प्रतिद्वंद्वियों की घरेलू उपस्थिति ने इन कंपनियों का अंतरराष्ट्रीयकरण किया है। दूसरा पहलू है वित्तीय एकीकरण जो विदेशी इक्विटी और डेट निवेशकों की बढ़ती हिस्सेदारी के रूप में सामने आता है। वे अपनी संपत्ति के मूल्यांकन के बारे में अंतरराष्ट्रीय शैली में सोचते हैं।
वास्तविक क्षेत्र में सभी कंपनियां अंतरराष्ट्रीयकरण की दिशा में हैं। परंतु वित्तीय क्षेत्र का एकीकरण इस लिहाज से विशिष्ट है क्योंकि केवल यही शेयर बाजार के मूल्यांकन में स्थायी बदलाव लाता है। हर कंपनी भारत के भीतर मूल्यांकन से शुरुआत करती है और वह धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय परिसंपति मूल्यांकन की ओर बढ़ती है।
भारतीय कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय परिसंपत्ति मूल्यांकन के तहत उच्च मूल्यांकन हासिल होता है। बेहतर मूल्य आय अनुपात (पीई रेश्यो) या पी बी रेश्यो यानी मूल्य-बुक अनुपात (प्रति शेयर जारी मूल्य और वर्तमान मूल्य का अनुपात) जो अंतरराष्ट्रीय परिसंपत्ति मूल्य से संबद्ध हो वह इक्विटी पूंजी की कम लागत के समानुपाती होता है। ये कंपनियां काफी हद तक वैश्विक कंपनियों की तरह होती हैं जिनकी रियायत दर कम होती है और जो दीर्घकालिक रुख को लेकर चलती हैं और अधिक निवेश परियोजनाओं को अपनाकर तेज वृद्धि हासिल करने में सक्षम हैं।
भारतीय शेयर बाजार दो तालाबों से बना है। एक तालाब ऐसी कंपनियों का है जिन्हें घरेलू परिसंपत्ति मूल्यांकन का सामना करना पड़ता है। उनकी आकांक्षा यह है कि वे वित्तीय अंतरराष्ट्रीयकरण हासिल करें और उस दूसरे तालाब में जा सकें जहां अंतरराष्ट्रीय परिसपंत्ति मूल्यों के कारण उच्च मूल्यांकन हासिल होता है, वह भी कम शेयर पूंजी लागत पर।
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एक विदेशी निवेशक के लिए कई दशक पहले इंडेक्स फंड की मदद से वैश्विक विविधता हासिल करना आसान था। उसके बाद इंडेक्स फंड को आसानी से उन वैश्विक पोर्टफोलियो में शामिल किया जा सकता है जो अंतरराष्ट्रीय वैविध्य चाहते हैं।
हाल के दशकों में इनमें से शीर्ष 50 कंपनियों का वास्तविक क्षेत्र के एकीकरण और वित्तीय एकीकरण के साथ महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीयकरण हो चुका है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण बढ़ा है। विदेशी निवेशकों के लिए निफ्टी इंडेक्स फंडों के जरिये भारत में निवेश का मार्ग अब कम उपयोगी है।
वैश्विक निवेशकों को अब 50 सदस्यों वाले निफ्टी से परे विशाल शेयरों की दुनिया पर नजर डालनी होगी। भारतीय शेयर बाजार में सीमित नकदी है। खासतौर पर निफ्टी के बाहर, इसलिए विविधता पाना इतना आसान नहीं है। विदेशी निवेशकों को निजी शेयरों और वेंचर कैपिटल फंडों से फायदा मिल सकता है जहां कम अंत:संबद्ध परिसंपत्तियां हैं।
एक भारतीय निवेशक के लिए बेहतर बुनियादी पोर्टफोलियो है विकसित देशों में एक दर्जन इंडेक्स फंड। एक दफा जब निफ्टी और वैश्विक सूचकांकों के बीच सहसंबद्धता बढ़ जाए तब वांछित पोर्टफोलियो में उसकी भूमिका कम हो जाती है।
तब अधिकांश भारतीय निवेशकों की दिक्कत भी विदेशी निवेशकों जैसी हो जाएगी और वह होगी भारतीय सूचकांकों के उन क्षेत्रों की पहचान करना जो अपेक्षाकृत कम वैश्विक संबद्धता वाले हों। शेयर बाजार में पर्याप्त नकदी है जो इंडेक्स फंड के निर्माण में पर्याप्त मदद कर सकती है।
जब परिसंपत्तियां घरेलू परिसंपत्ति मूल्यांकन से अंतरराष्ट्रीय परिसंपत्ति मूल्यांकन की ओर बढ़ती हैं तो प्रतिफल भी अधिक होता है। यहां पोर्टफोलियो रणनीति के लिए एक विचार है: ऐसी कंपनियों पर दांव लगाएं जिनसे उम्मीद है कि वे आगामी दशक में घरेलू तालाब से निकलकर अंतरराष्ट्रीय परिसंपत्ति मूल्यांकन हासिल कर लेंगे।
परंतु इसके साथ ही पोर्टफोलियो रणनीतिकारों को यह समझना होगा कि एक बार बदलाव होने के बाद वांछित प्रतिफल में कमी आ सकती है। सभी भारतीय शेयरों के इक्विटी प्रीमियम के लिए एक मूल्य का इस्तेमाल करने का विचार गलत है।
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भारतीय कंपनियों में रणनीतिक स्तर पर दो तरह के काम करने की जरूरत है। पहला, वास्तविक क्षेत्र का एकीकरण, आयात-निर्यात और बाहर जाने वाले विदेशी प्रत्यक्ष निवेश। सबसे कमजोर कंपनियों को सरकार से मदद मिलती है। कमजोर कंपनियां घरेलू बनी रहती हैं। अच्छी कंपनियां निर्यात करती हैं और सबसे बेहतर कंपनियां विदेशों में प्रत्यक्ष निवेश करती हैं।
कंपनियों के बोर्ड्स को प्रबंधन की निगरानी में इसका लाभ लेना चाहिए। निर्यात और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में सफलता की मांग यह सुनिश्चित करने का अच्छा तरीका है कि प्रबंधन एक मजबूत कंपनी तैयार करे।
वित्तीय एकीकरण की समस्या इससे अलग है जिसके जरिये मूल्यांकन में स्थायी लाभ हासिल किया जा सकता है। कंपनियां आमतौर पर विदेशी निवेशकों के स्टॉक एक्सचेंज में आने को अपने नियंत्रण से बाहर मानती हैं। कंपनियों के पास ऐसे उपाय होते हैं जो उनके इक्विटी और डेट में विदेशी निवेशकों की हिस्सेदारी बढ़ाते हैं। रणनीतिक निवेशकों के साथ रिश्ते इक्विटी और डेट निवेशकों के प्रोफाइल को विदेशी निवेशकों के अनुरूप बनाते हैं।
न्यूयॉर्क या लंदन में सूचीबद्ध होने से बेहतर शेयर बाजार माहौल मिलता है और वे वैश्विक निवेशकों के बीच नजर आते हैं।
वास्तविक क्षेत्र और वित्तीय क्षेत्र के एकीकरण में भारतीय राज्य और अर्थव्यवस्था के हितों के बीच एक फांक है। कंपनियों को सलाहकारों, वकीलों और अंकेक्षकों पर व्यय करना होता है ताकि वे अंतरराष्ट्रीयकरण के मार्ग पर आगे बढ़ सकें।