आरबीआई (RBI) के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन की पुस्तक इसका उदाहरण है कि अर्थशास्त्री जन नीतियों को बनाने और लोगों के जीवन को आकार देने में कितनी अहम भूमिका निभा सकते हैं। बता रहे हैं टी टी राम मोहन
क्या अर्थशास्त्री मायने रखते हैं? क्या वे सार्वजनिक नीतियों में अंतर पैदा कर सकते हैं? अर्थशास्त्री इन सवालों के जवाब सी रंगराजन की किताब ‘फोर्क्स इन द रोड’ में पा सकते हैं। इन सवालों का जवाब हां में है और अर्थशास्त्री जन नीतियों में बड़ा अंतर पैदा कर सकते हैं, बशर्ते कि देश चलाने वाले राजनेता उनके विचारों से सहमत हों।
डॉ. रंगराजन के संस्मरणों की किताब आर्थिक घटनाओं के बारे में तथा करीब तीन दशकों के उन निर्णयों के बारे में है जिनमें उनकी सक्रिय भूमिका रही। इनकी शुरुआत सन 1980 के दशक में हुई थी। वह कई पदों पर रहे: भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर और गवर्नर, योजना आयोग के सदस्य, बारहवें वित्त आयोग के चेयरमैन, और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन।
इस बीच कुछ समय तक वह दो राज्यों के राज्यपाल और राज्य सभा के सदस्य भी रहे। अधिकांश संस्मरणों के उलट रंगराजन ने अपने बारे में कम और मुद्दों के बारे में अधिक बात की है। उनकी पुस्तक आंकड़ों और सारणियों से भरी है। परंतु यह हमें केवल वह नहीं बताती है जो घटित हो चुका। बल्कि यह पुस्तक उन विकल्पों का भी परीक्षण करती है जो नीति निर्माताओं के समक्ष मौजूद थे और समझाते हैं कि कोई खास निर्णय क्यों लिया गया तथा क्या परिणाम निकले। परिणाम आर्थिक इतिहास का एक शानदार हिस्सा है।
रंगराजन 1981 में रिजर्व बैंक से जुड़े। डिप्टी गवर्नर और गवर्नर के रूप में उन्होंने उनका सामना भारत के दो सबसे बड़े भुगतान संतुलन संकटों से हुआ। इसके अलावा मौद्रिक नीति सुधार और बैंकिंग सुधार भी उनके दौर में हुए।
सन 1981 में पहले भुगतान संतुलन से तत्कालीन आर्थिक समझ के मुताबिक ही निपटा गया था। उस समय भी रंगराजन और रिजर्व बैंक के उनके साथियों ने नॉमिनल और वास्तविक दोनों संदर्भों में रुपये का स्थिर ढंग से अवमूल्यन किया था। उनके सामने यह बात स्पष्ट थी कि बिना निर्यात बढ़ाए और आयात में कमी किए चालू खाते के घाटे का प्रबंधन करना मुश्किल होगा। 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले रिजर्व बैंक के अर्थशास्त्रियों को शायद विनिमय दर प्रबंधन की पूरी छूट थी।
सन 1980 के दशक का एक और अहम सुधार सन 1985 की सुखमय चक्रवर्ती रिपोर्ट से निकला। रिपोर्ट के बाद मौद्रिक लक्ष्य या उत्पादन वृद्धि तथा कीमतों के साथ मौद्रिक आपूर्ति के लिए लक्ष्य तय करने का चलन आरंभ हुआ। यह मौद्रिक नीति पर राजकोषीय दबदबे से निपटने की पहली कोशिश थी। यहां एक बार फिर राजनीतिज्ञों ने अर्थशास्त्रियों की अनुशंसा पर ध्यान दिया।
सन 1991 के भुगतान संतुलन संकट के लिए और कठिन उपायों की आवश्यकता थी। तात्कालिक कदम था अपना सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाना। चंद्रशेखर सरकार ने इसकी मंजूरी दी और उसके बाद आई नरसिंह राव सरकार ने भी इस पर कोई आपत्ति नहीं की। एक बार फिर रुपये की विनिमय दर में तीव्र गिरावट की आवश्यकता थी। सरकार की मंजूरी से यह काम दो चरणों में किया गया। यह भी अर्थशास्त्रियों की जीत थी।
हम सभी जानते हैं कि इस अवसर पर तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने अतीत की तुलना में कठोर उपाय अपनाया। डॉ. रंगराजन ऐसे तीन अवसरों को याद करते हैं जब ऐसे उपाय अपनाए गए जो आर्थिक विवेक का हिस्सा बन गए: लाइसेंस को समाप्त करना, कारोबारी उपक्रमों के सार्वजनिक स्वामित्व में कमी और अतीत की अंतर्मुखी व्यापारिक नीति से दूरी। यह सब इसलिए संभव हुआ कि राजनीतिक सत्ता का समर्थन हासिल था। रंगराजन याद करते हैं कि कैसे नरसिंह राव ने आर्थिक नीति में निरंतरता की बात करते हुए पार्टी को अपने पीछे लामबंद किया था। उस समय रंगराजन योजना आयोग में थे।
सन 1990 के दशक के आरंभ में रिजर्व बैंक में लौटने के बाद रंगराजन ने मौद्रिक नीति और बैंकिंग सुधारों को गति दी। एडहॉक ट्रेजरी बिल को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना, सरकारी उधारी के लिए बाजार निर्धारित दरों की व्यवस्था, बैंकिंग ब्याज दरों के प्रशासित ढांचे को खत्म करना, सांविधिक नकदी अनुपात और नकद आरक्षित अनुपात में कमी, नए निजी बैंकों को लाइसेंस देने समेत कई कदम उठाए गए। इस चैप्टर को ‘द बिगनिंग ऑफ ऑटोनामी’ यानी स्वायत्तता की शुरुआत शीर्षक दिया गया लेकिन रिजर्व बैंक ने पेशेवर अर्थशास्त्रियों को जो स्वायत्तता दी वह भी उल्लेखनीय है।
बाहरी क्षेत्र के प्रबंधन में रिजर्व बैंक ने वित्त मंत्रालय के साथ मिलकर काम किया। दूरगामी असर वाले सुधारों को अंजाम दिया गया। विदेशी संस्थागत निवेशकों को भारतीय शेयर बाजार में प्रवेश की इजाजत मिली, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मानक शिथिल किए गए और विनिमय दर को बाजार आधारित बनाया गया। बाहरी पूंजी प्रवाह के प्रबंधन के लिए खाका तैयार किया गया। उस समय कई ऐसे उपाय अपनाए गए जो आगे चलकर भारतीय आर्थिक नीति के आधार स्तंभ बन गए।
इन सभी मामलों में सत्ता ने ठोस पेशेवर सलाहों पर अमल किया। ऐसे अवसर भी आए होंगे जब अर्थशास्त्रियों की बात नहीं सुनी गई होगी लेकिन फिर भी संस्मरण पुस्तक में इस बात के कम ही संकेत हैं कि अर्थशास्त्रियों और सरकार के बीच कहीं भी गंभीर टकराव की स्थिति बनी।
अहम नीतिगत मुद्दों पर जब एक बार राजनेताओं ने बुनियादी बदलाव का निश्चय कर लिया तो उन्होंने अर्थशास्त्रियों के काम में हस्तक्षेप नहीं किया। अधिक तकनीकी मसलों पर उन्होंने हमेशा पेशेवरों पर यकीन किया।
अर्थशास्त्रियों की नाकामी का एक बड़ा क्षेत्र रहा है राजकोषीय घाटा या बचत निवेश संतुलन। रंगराजन अंतिम अध्याय में इस विषय को रेखांकित करते हैं। ‘चिंतन’ नामक इस अध्याय में वह अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक परिदृश्य की बात करते हैं। बीते तीन दशक में यह एक ऐसा मुद्दा रहा है जिस पर अर्थशास्त्रियों ने जोर नहीं दिया।
अब हम ऐसे समय में आ गए हैं जहां सार्वजनिक ऋण को अपेक्षाकृत कम स्तर पर रखने को लेकर वैश्विक सहमति कमजोर पड़ी है। आक्रामक निजीकरण, बैंक निजीकरण, भूमि अधिग्रहण तथा कर्मचारियों को रखने या निकालने की आजादी जैसे बड़े सुधारों पर जोर न दिए जाने को बड़ी राजनीतिक नाकामी माना जाता है लेकिन रंगराजन ऐसा नहीं सोचते। वह इन बातों का बहुत मामूली जिक्र करते हैं। वह लिखते हैं कि सुधार की व्यवस्था चरणबद्ध ही होनी चाहिए। सुधारों को लेकर राजनीतिक सहमति भी इसी बात पर है।
व्यवस्था के भीतर खामोशी से काम करते हुए भी रंगराजन अंतर पैदा करने में कामयाब रहे। उन्हें 1980 के दशक के बाद की आर्थिक नीति के प्रमुख शिल्पकारों में गिना जाएगा। उनकी सफलताओं के साथ-साथ आर्थिक इतिहास के इस ब्योरे के लिए भी उनकी सराहना की जानी चाहिए।