‘हाल ही में इस समाचार पत्र को दिए एक साक्षात्कार में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति के एकमात्र असहमत सदस्य जयंत आर वर्मा ने कहा था, ‘अर्थव्यवस्था में प्रभावी ब्याज दर 4 फीसदी नहीं &.&5 फीसदी है…जो वांछित दर से कम है।’ उन्होंने कुछ ऐसे समायोजन को समाप्त करने की वकालत की जो अब आवश्यक नहीं हैं ताकि समिति की विश्वसनीयता समाप्त होने का जोखिम कम किया जा सके। उन्होंने कहा कि मुद्रास्फीति और ठोस होती जा रही है और आखिरकार भविष्य में उच्च दरों की आवश्यकता होगी।
इसके दो दिन बाद आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने एक अन्य कारोबारी समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में स्पष्ट किया कि केंद्रीय बैंक ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे मध्यम अवधि में वित्तीय स्थिरता प्रभावित हो। उन्होंने कहा, ‘हमें वृद्धि संकेतों के स्थायी होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। हमें देखना होगा कि आर्थिक सुधार के संकेतक केवल तेजी से गति न करें बल्कि कुछ जड़ें भी जमा लें। आरबीआई का कोई नीतिगत कदम, खासकर मौद्रिक नीति संबंधी कदम एकदम उपयुक्त समय पर सोच समझ कर उठाना होगा।’
केंद्रीय बैंक के लिए यह प्रचुर और पर्याप्त नकदी के बीच की दुविधा है। आरबीआई की दो नीतिगत दरें हैं- रीपो दर और रिवर्स रीपो दर। दोनों 4 फीसदी और &.&5 फीसदी के ऐतिहासिक निचले स्तर पर हैं। रीपो दर चुकाकर बैंक आरबीआई से जरूरत की राशि कर्ज के रूप में लेते हैं, वहीं जब वे अपनी अतिरिक्त नकदी केंद्रीय बैंक के पास जमा करते हैं तो वे रिवर्स रीपो दर हासिल करते हैं। यानी रीपो समुचित नकदी के समय की नीतिगत दर है और रिवर्स रीपो दर प्रचुर नकदी के समय की नीतिगत दर है।
सामान्यीकरण की प्रक्रिया शुरू करने का समय बहुत अहम है। पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने व्यवस्था में भारी नकदी डालकर नीतिगत दरों को ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर ला दिया था ताकि अर्थव्यवस्था को 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के असर से बचाया जा सके। परंतु सामान्यीकरण की प्रक्रिया धीमी रही और इसलिए 201& में मुद्रास्फीति का आगमन हुआ। उच्च मुद्रास्फीति और अर्थव्यवस्था पर उसका असर कहानी का एक हिस्सा है। सवाल यह है कि बैंक अतिरिक्त नकदी से कैसे निपटते रहे हैं? दैनिक रिवर्स रीपो और पखवाड़े की परिवर्तनशील रिवर्स रीपो दर के बीच बैंकिंग तंत्र आरबीआई के पास 7-8 लाख करोड़ रुपये जमा करता रहा है।
इस पैसे के अधिकांश हिस्से पर उसे &.&5 फीसदी ब्याज मिलता रहा है। अंतिम परिवर्तनशील रिवर्स रीपो नीलामी दर &.4& फीसदी थी। जनवरी के मध्य से परिवर्तनशील रिवर्स रीपो नीलामी में हर पखवाड़े दो लाख करोड़ रुपये की राशि आ रही थी। अगस्त के मध्य से इसमें चरणबद्ध इजाफा हुआ। सितंबर के अंत तक यह राशि 4 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी। दास ने स्पष्ट किया कि इस बढ़ोतरी को समायोजित नीतिगत रुख को पलटने के तौर पर न देखा जाए।
अगस्त के मध्य तक बैंकिंग प्रणाली में करीब 46.12 लाख करोड़ रुपये की सरकारी प्रतिभूतियां थीं जो कुल 155.7 लाख करोड़ रुपये के जमा का &0 फीसदी था। बैंक प्रतिभूतियों के अलावा ट्रेजरी बिल में निवेश करते हैं जिससे उनको अधिकतम औसतन &.5 फीसदी की दर से आय अर्जित होती है।
लंबी अवधि की प्रतिभूतियों को परिपक्वता वाले पोर्टफोलियो में रखा जाता है जिनके लिए बैंकों को मार्क टु मार्केट (एमटीएम) लेखा व्यवहार की आवश्यकता नहीं होती जो यह तय करता है कि किसी प्रतिभूति को उसके मौजूदा बाजार मूल्य पर आंका जाए, न कि उस मूल्य पर जिस मूल्य पर उसे खरीदा गया था। वे अल्पावधि की प्रतिभूतियां भी रखते हैं जो आम तौर पर पांच वर्ष से कम अवधि की होती हैं और जिन पर एमटीएम नियम लागू होता है। इन पर 4.2 फीसदी का प्रतिफल मिलता है। बैंकिंग तंत्र के 10 फीसदी संसाधन &.&5 फीसदी से 4.2 फीसदी प्रतिफल उत्पादित करते हैं। कई बैंकों में तो यह फंड की लागत से भी कम है। कम लागत वाले चालू और बचत खातों का बढिय़ा पोर्टफोलियो रखने वाले ज्यादातर निजी और सरकारी बैंकों के लिए फंड की लागत &.75 से चार फीसदी के बीच हो सकती है। अन्य के लिए यह 4.5 से 5 फीसदी हो सकती है। दूसरे समूह में कई बैंकों का पोर्टफोलियो मजबूत होता है लेकिन वे बचत खातों पर बड़े बैंकों की तुलना में ज्यादा ब्याज देते हैं।
यदि हम रिवर्स रीपो के प्रतिफल और ट्रेजरी बिलों के प्रतिफल की तुलना एमसीएलआर (कोई बैंक इससे नीचे ऋण नहीं दे सकता) से की जाए तो नकारात्मकता और ज्यादा है। यह दर फंड की सीमांत लागत, अवधि प्रीमियम, परिचालन लागत और नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में दिखती है। बैंक आरबीआई के पास जो चार फीसदी जमा सीआरआर के रूप में रखते है उस पर उन्हें कोई ब्याज नहीं मिलता। भारतीय स्टेट बैंक की ओवरनाइट और एक माह की यानी दोनों एमसीएलआर 6.65 फीसदी है। आईसीआईसीआई बैंक और आईडीएफसी बैंक में यह क्रमश: 7 फीसदी और 7.9 फीसदी है। एमसीएलआर को हर माह तय किया जाता है।
धनराशि को आरबीआई की रिवर्स रीपो विंडो में रखना तथा अल्पावधि के टे्रजरी बिल खरीदना, दोनों बैंकिंग तंत्र की आय के बुनियादी साधन हैं। इसमें बड़ी बात क्या है? ऐसा भी नहीं है कि हर बैंक के पास भारी भरकम अधिशेष है। कम से कम एक बड़े निजी बैंक ने बीते पखवाड़े बाजार से 5,000 करोड़ रुपये के जमा प्रमाणपत्र जुटाए। लेकिन निश्चित रूप से किसी ने संकुचित अवधि में नकदी की ऐसी तेजी नहीं देखी होगी। बैंकों को नकदी के इस हाल से केवल ऋण वृद्धि ही बचा सकती है। ऐसा तब हो सकता है जब वृद्धि सुरक्षित हो और ऋण में इजाफा ऋण मेले से न हो। लेकिन यदि इसमें अधिक समय लगता है तो उच्च मुद्रास्फीति का जोखिम वास्तविक हो जाएगा। यह बात हमें दोबारा प्रचुर बनाम पर्याप्त नकदी की दुविधा पर लाती है। अभी तक समुचित नकदी का समय नहीं आया है।