यह चुनावों का मौसम है। सात समंदर पार अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हैं तो देश के बिहार प्रांत में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं जिनके नतीजे 10 नवंबर को आएंगे। तभी पता चल पाएगा कि प्रदेश का नया मुख्यमंत्री कौन होगा?
यह सही है कि नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने अलग-अलग साझेदारों के साथ बिहार पर करीब 15 वर्ष तक शासन किया। जीतनराम मांझी का एक वर्ष से कम का कार्यकाल इसमें शामिल नहीं है। बहरहाल इस बार मतदाताओं के पास कई विकल्प हैं।
बिहार की 243 सदस्यीय विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने साझेदार विकासशील इंसान पार्टी के साथ 121 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। जदयू अपने साझेदार हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के साथ 122 सीटों पर चुनाव मैदान में है। यदि भाजपा को वास्तव में ज्यादा सीटें मिलती हैं और जदयू पीछे रह जाती है तो यह संभव है कि भाजपा मोलतोल करे और किसी अन्य साझेदार के साथ सरकार बनाने का प्रयास करे। चिराग पासवान वह साझेदार हो सकते हैं। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि चिराग पासवान अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग का हिस्सा नहीं हैं और वह भाजपा के साझेदार भी नहीं हैं। ऐसे में नित्यानंद राय शीर्ष पद के दावेदार के रूप में सामने आ सकते हैं। परंतु अगर भाजपा यह विकल्प आजमाती है तो उसे आने वाले वर्षों में इस समझौते से उपजी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि वह कई बार कह चुकी है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। बहरहाल, राजनीति में यह सब होता रहता है।
हालांकि ऐसा परिदृश्य बनता नहीं नजर आता। बिहार के जमीनी हालत देखकर लगता नहीं कि चुनाव के बाद विधानसभा में त्रिशंकु की स्थिति बनेगी। चुनाव के पहले चरण में महामारी के बावजूद 55.69 फीसदी लोगों ने मतदान किया। यह मत प्रतिशत पिछले विधानसभा चुनाव (संबंधित क्षेत्रों में) और लोकसभा चुनाव दोनों से बेहतर रहा है।
ऐसे में मतदाताओं के पास तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार में से एक का विकल्प होगा जो एक दूसरे से एकदम अलग हैं। प्रदेश की युवा शक्ति के बारे में भी काफी कुछ कहा जा रहा है। बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के पास मौजूदा आंकड़ों के अनुसार बिहार के कुल मतदाताओं में 24.9 फीसदी की उम्र 18 से 29 वर्ष के बीच है। लेकिन क्या युवा केवल युवा नेताओं के साथ ही खुद को जोड़ते हैं? हमारे सामने नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी, अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ के रूप में उदाहरण मौजूद हैं।
कई अन्य तथ्य भी हैं। एक समय था जब पटना और मुजफ्फरपुर के बीच की दूरी किलोमीटर में नहीं घंटों में आंकी जाती थी। दरअसल सड़क थी ही नहीं। ध्यान रहे 2004-05 में जब नीतीश ने बिहार का दायित्व संभाला तब वहां 384.6 किलोमीटर सड़क थी जो 2010 तक बढ़कर 23,990.6 किलोमीटर हो चुकी है। यह तथ्य प्रदेश के तत्कालीन सड़क सचिव प्रत्यय अमृत के हवाले से है जिन्हें एशियाई विकास बैंक ने उनके काम के लिए पुरस्कृत किया। बिहार में स्कूलों के लिए जैसी तैसी इमारतें थीं लेकिन शिक्षक नहीं थे। नीतीश की सरकार ने बच्चियों को स्कूल जाने के वास्ते प्रोत्साहित करने के लिए साइकिल, गणवेश, नि:शुल्क भोजन और किताबों जैसी सुविधा दी। इसका नतीजा यह हुआ कि स्कूल छोडऩे वाली बच्चियों की तादाद आधी हो गई। स्कूलों की इमारतों का रखरखाव आरंभ हुआ। शिक्षकों की नियुक्ति उन्हीं पंचायतों द्वारा की गई जहां महिलाएं प्रभारी थीं। उस दौरान शिक्षा पाने वाली तमाम नवयुवतियां इस चुनाव में मतदान करेंगी। सन 2006 में बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बना जिसने राज्य की 8,000 से अधिक पंचायतों में आधे स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किए। इसके बाद नीतीश ने शराबबंदी लागू की। आप कह सकते हैं कि शराबबंदी के बावजूद सक्षम लोगों को घर पर शराब मिल जाती है लेकिन कई घरों में महिलाओं के रोज शाम मार खाने का सिलसिला बंद हो गया है।
पंद्रह वर्ष लंबा समय होता है। यकीनन थकान भी हुई होगी। नीतीश को शासन के नए तरीके तलाश करने होंगे और यह सुनिश्चित करना होगा कि पहले के विचारों का सही क्रियान्वयन हो। यदि कोई विकल्प होता तो इसमें दो राय नहीं कि नीतीश हार जाते। लेकिन उनके सामने दो ऐसे युवा हैं जो पारिवारिक विरासत के दम पर आगे आए हैं।
नीतीश चुनाव जीत भी सकते हैं और हार भी सकते हैं लेकिन बिहार में ऐसा कोई नहीं होगा जो शासन में उनके योगदान को नकारेगा। यही कारण है कि कोविड-19 का आगमन होते ही उन्होंने केंद्र की बात को अक्षरश: लागू कराया कि कोई अपने घर से नहीं निकलेगा। योगी आदित्यनाथ ने जहां लॉकडाउन के दौरान प्रवासियों के लिए बसों का इंतजाम किया और शायद महामारी के फैलने में योगदान भी किया, वहीं नीतीश की आलोचना की गई कि वह निष्क्रिय हैं। लेकिन आज बिहार में केवल 11,000 से अधिक सक्रिय मामले हैं जबकि वहां कोविड से मृत्यु दर 0.5 फीसदी है जो देश के सर्वाधिक कम दरों में एक है। अधिकारियों का कहना है कि कोविड-19 मरीजों के लिए आवंटित 56,370 बिस्तरों में से बमुश्किल 10 फीसदी पर मरीज हैं।
इसके बावजूद बिहार को लेकर कोई आकर्षण नजर नहीं आता। वहां कि राजनीति दृष्टि भ्रम तैयार करती है। जाति और अन्य सामाजिक कारक नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन अगर ये चुनाव में मुद्दा बने तो यह बिहार के लिए अच्छा नहीं होगा।
