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हार्ड पावर की नई करेंसी: ट्रंप ने कैसे अमेरिकी आयातों को एसेट में बदला

चीन की ताकत उसका निर्यात है तो जबकि अमेरिका को दुनिया भर से आयात करने वाली शक्ति के रूप में जाना जाता है। ट्रंप ने एक संभावित बोझ को अपनी ताकत में तब्दील कर दिया है

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- November 02, 2025 | 9:25 PM IST

जिस समय मैं यह लेख लिख रहा था, अमेरिका में रात का समय था और हमें नहीं पता था कि सुबह हमें ट्रुथ सोशल पर क्या पोस्ट देखने को मिलेगी या फिर उनसे क्या नया भूराजनीतिक संकेत निकलेगा। परंतु हमें अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के तौर तरीकों को लेकर कुछ स्पष्टता मिलने लगी है। कुछ रोज पहले ट्रंप तीन एशियाई देशों के दौरे पर निकल रहे थे। उस समय उन्होंने एक चौंकाने वाली और खतरनाक पोस्ट की, ‘मैं परमाणु परीक्षण दोबारा शुरू करने की मांग करता हूं ताकि हम चीन और रूस के बराबर स्तर पर हों।’ इसके बाद उन्होंने बेतुकी बातें शुरू कर दीं।

परमाणु परीक्षण अब किसी को नहीं डराते। रूस और चीन के पास खर्च करने के लिए बहुत सारा यूरेनियम है। ऐसे में इससे परमाणु हथियारों की नई जंग छिड़ती नहीं दिखती।

खतरनाक बात यह थी कि इतना शक्तिशाली व्यक्ति इतना असंतुलित कैसे लग सकता है। मुझे पता है कि ट्रंप के प्रशंसक भी हैं जो कहेंगे कि कैसे शी चिनफिंग ने उनकी तारीफ की, उन्हें शांति का राष्ट्रपति कहा वगैरह वगैरह। दुनिया को ट्रंप की हर बात में कोई न कोई प्रतिभा दिखानी ही पड़ती है। कहा गया, ‘अरे वह तो उस पोस्ट के जरिये चीनी नेताओं को नरम करने की कोशिश कर रहे थे।’ परंतु चीन परमाणु परीक्षणों से डरने वाला नहीं है। ज्यादातर ऐसा ही था मानो ट्रंप को पता था कि उन्हें झुकना पड़ेगा और उन्होंने ऐसा ही किया।

दुनिया का पुनर्गठन हो रहा है और एक ही व्यक्ति ऐसा कर रहा है। उसकी ताकत क्या है? उसकी ताकत मजबूत सेना नहीं है। वह है चीन के साथ व्यापार।

ट्रंप यह समझ चुके हैं कि दुनिया के सबसे बड़े आयातक होने की ताकत क्या है। अगर चीन निर्यात करने वाली महाशक्ति है तो अमेरिका आयात करने वाली महाशक्ति है। ट्रंप ने एक जिम्मेदारी को अपनी बढ़त में बदल दिया है। अगर चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम सभी निर्यात करने वाली शक्तियां हैं। उन्हें अपना अधिशेष कहां से मिलता है। आप भारत को शामिल कर सकते हैं। ट्रंप कह रहे हैं, मुझे पता है कि आपके लिए यह अधिशेष कितना महत्त्वपूर्ण है। मेरे पास आयातक होने का लाभ है।

अमेरिका की 30 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था अधिकांश प्रमुख देशों के विरुद्ध सब से बड़ी व्यापार घाटे वाली अर्थव्यवस्था है। याद रहे उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच शांति स्थापना के अपने दावों में व्यापार को भी श्रेय दिया।

तो फिर परमाणु परीक्षण वाली उनकी पोस्ट अटपटी क्यों थी? इसलिए कि उन्हें यह समझ में आ गया था कि चीन उन्हें पटखनी देने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि इस समीकरण में चीन के पास विक्रेता की शक्ति भी है और खरीदार की ताकत भी। विक्रेता के रूप में उसके पास महत्त्वपूर्ण खनिज पदार्थ हैं। खरीदार के रूप में वह अमेरिकी सोयाबीन और मक्के का सबसे बड़ा ग्राहक है। चीन और ट्रंप दोनों को पता है कि वे चीन को दंडित करने के लिए शुल्क नहीं थोप सकते। यही वजह है कि ट्रंप तुरंत पलटे और क्वालालंपुर के लिए एयर फोर्स वन पर सवार होते हुए उन्होंने ‘जी-2’ की घोषणा कर डाली।

भारत में हमने इसे समझने से इनकार किया है। हमारा कुल व्यापार अभी भी इतना कम है कि हमारे पास कोई रणनीतिक कदम उठाने की क्षमता नहीं है। अमेरिका को हम जेनरिक दवाओं के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं बेचते जिसके बिना उसका काम नहीं चल सके। परंतु खरीदार के रूप में जिस शक्ति का इस्तेमाल हम कर सकते थे उसका भी इस्तेमाल करने से डरते हैं। हम चीन से सीख सकते हैं। चीन अगर अमेरिका से आयात के मुकाबले 300 अरब डॉलर मूल्य के बराबर का अधिक निर्यात कर रहा है तो आप समझ सकते हैं कि खरीदार के रूप में वह उसके मुकाबले कितना ताकतवर है।

दुनिया के कुल सुअरों में से आधे चीन में पाले जाते हैं। वहां की 1.4 अरब की आबादी में पोर्क और तोफू खाने वालों की तादाद बहुत अधिक है। वह बहुत बड़ी मात्रा में सोयाबीन का आयात और उसकी खपत करता है। सोयाबीन सुअरों को जरूरी प्रोटीन और मक्का उन्हें जरूरी कैलरी प्रदान करता है।

अमेरिका मक्के का सबसे बड़ा उत्पादक और सोयाबीन के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। अमेरिका की आबादी में केवल एक फीसदी किसान हैं लेकिन वे बहुत मजबूत हैं। सोयाबीन के सौदे के बाद ट्रंप की उत्साह से भरी पोस्ट पर नजर डालिए जिसमें वे किसानों से और अधिक जमीन खरीदने की बात करते हुए इसे खेती का स्वर्णयुग करार देते हैं।

शी चिनफिंग ने संकेत दिया है उनके पास अन्य देशों से कृषि जिंस आयात करने का विकल्प है और इतने से ही ट्रंप पलट गए। भारत में बहस 20वीं सदी के मध्य में रुकी हुई है और विज्ञान को लेकर हमारा नजरिया 19वी सदी में। चीन को कहीं से सोयाबीन खरीदने में दिक्कत भी नहीं है फिर चाहे वह जीएम हो या नहीं। चीन बहुत प्रगतिशील है। चार साल पहले उसने जीएम सोयाबीन बोना शुरू कर दिया था और उसका रकबा साल दर साल बढ़ता गया। चीन की कपास की उपज इस समय हमसे चार गुना है। हमारी कपास की फसल में कमी आई है क्योंकि हमारे बीज जैव प्रौद्योगिकी 2008 में रुकी हुई है।

चीन ने हमें दिखाया है कि अगर हमारे पास विक्रय शक्ति या क्रय शक्ति हो तो हम क्या कर सकते हैं। तमाम अन्य देश जिनके पास यह शक्ति नहीं है वे अपमान का सामना करने को विवश हैं।

मेक्सिको अमेरिका के साथ इसलिए समझौता कर सका क्योंकि उसने बड़े पैमाने पर मक्के की खरीद शुरू कर दी। हमने अमेरिका से थोड़ा सोयाबीन खरीदकर उसे अहमियत देने का अवसर गंवा दिया। हम हर वर्ष 18 अरब डॉलर मूल्य का खाद्य तेल आयात करते हैं। इसका बहुत बड़ा हिस्सा सोयाबीन के तेल के रूप में है। हमें पशुओं के लिए चारे की भी जरूरत है। अगर हम अपने पशुओं को सोयाबीन नहीं खिलाना चाहते हैं तो भी हम उसका तेल निकालकर खली निर्यात कर सकते थे। मक्के और एथनॉल के साथ भी ऐसा किया जा सकता था। हम सोयाबीन और मक्का दोनों का आयात करते हैं लेकिन स्वदेशी लॉबी को नाराज नहीं कर सकते। यह तब है जबकि जीएम बीजों को लेकर मोदी सरकार का रुख सकारात्मक है। उसने घरेलू रूप से विकसित जीएम सरसों के खेतों में परीक्षण को लेकर शपथ पत्र भी दिया है।

यह ऐसी दुनिया है जहां महाशक्तियों के रिश्ते इस बात से तय हो सकते हैं कि आप उनसे मक्का खरीदते हैं या नहीं। भारत का पॉल्ट्री उद्योग समस्या में है क्योंकि मक्का महंगा है। वही उनका भोजन है। अगर हमने अमेरिका से कुछ अरब डॉलर का मक्का या सोयाबीन खरीद लिया होता तो यह बेहतर होता जबकि हम उन्हें कहीं से तो मंगाते ही हैं। लेकिन हमने ऐसा नहीं किया।

ट्रंप के मन में आपकी प्रतिष्ठा, इतिहास या राजनीति के लिए कोई इज्जत नहीं है। वह यह कहकर इस बात को जता चुके हैं कि वह मोदी पर बहुत अधिक दबाव इसलिए नहीं डाल रहे हैं क्योंकि वे उनका राजनीतिक करियर खत्म नहीं करना चाहते। वह नैतिक अधिकार की बातों का मखौल उड़ाते हैं। उन्हें केवल सख्ती पसंद है और वह हमें बता चुके हैं कि इसकी कीमत क्या है। ट्रंप देखना चाहते हैं कि आप उनके लिए क्या कर सकते हैं?

चीन से हम दूसरी सीख ले सकते हैं कि अपनी ताकत को छिपाकर सही समय का इंतजार किया जाए। दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने और तीसरी की ओर कदम बढ़ाने का हमने जो जश्न मनाया उससे भारत का कोई काम नहीं बन रहा है। बड़ी शक्तियां हमारा मजाक ही बना रही हैं। अब वक्त है थोड़ी विनम्रता के साथ लक्ष्य पर निगाहें जमाए रखने का।

1991 में भारत ने जो अवसर बनाया था उसमें बदली हुई भू-राजनीति ने भी अपना दखल दे दिया है। उस समय अगर भुगतान संतुलन को लेकर संकट पैदा हुआ था, तो आज भारत अगर व्यापार के मामले में संरक्षणवाद को खारिज नहीं करता तो उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। यह भी एक आर्थिक सुधार ही होगा, भले ही दबाव में किया गया हो, जैसा कि 1991 में किया गया था। यही वजह है कि वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल उद्यमियों को चुस्त-दुरुस्त बनने और टैरिफ से बचाने की मांग न करते रहने की सलाह देते रहे हैं। भारतीय अफसरशाही किसी को वर्षों तक लटकाए रख सकती है। उसका समय खत्म हो चुका है। कोई शक हो तो ट्रंप के उन पोस्टों को पढ़ें, जो उन्होंने अपने एशिया दौरे के पहले और बाद में लिखे हैं।

First Published : November 2, 2025 | 9:25 PM IST