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हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नौसैनिक नीति

Published by
अजय शुक्ला
Last Updated- May 08, 2023 | 7:53 PM IST

भारत सैन्य प्रभावकर्ता के रूप में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में देर से आया। हालांकि हमारी थलसेना, नौसेना और वायुसेना पूरे वर्ष जो बहुपक्षीय एवं द्विपक्षीय सैन्य अभ्यास करती हैं उनसे उसकी उप​स्थिति महसूस होती है। हर वर्ष हमारी सेना 62 द्विपक्षीय और 23 बहुपक्षीय अभ्यास करती है जिससे हमारे जवानों का कौशल और छवि बेहतर होती है।

इस क्षेत्र के व्यापार के लिए जरूरी समुद्री संचार लाइनों (SLOC) को सुर​क्षित रखने में हमारी नौसेना की भूमिका इतनी अहम है कि अमेरिकी सेना को अपने सैन्य ​थिएटर का नाम बदलने की जरूरत महसूस हुई। यूनाइटेड स्टेट्स पैसिफिक कमांड (USPACOM) की जगह अब इसे यूनाइटेड स्टेट्स इंडो-पैसिफिक कमांड कहा जाता है।

कई बार यह याद रखना मु​श्किल हो जाता है कि यह साझा आदर और सहयोग बहुत नया है। दिसंबर 2004 में भारतीय नौसेना ने हिंद महासागर में आई सूनामी में जो शीघ्र प्रतिक्रिया दी थी उसने USPACOM और पेंटागन को यह अहसास कराया कि यहां एक उपयुक्त साझेदार मौजूद है। खासतौर पर आक्रामक चीन के उदय की साझा चिंता को देखते हुए।

नई दिल्ली की हिंद-प्रशांत नीति के लक्ष्य क्या हैं? दुनिया की SLOC को सुर​क्षित रखने के अलावा, जिसके लिए भारत ने दुनिया के नेट सुरक्षा प्रदाता की भूमिका अपनाई है, पायरेसी के खतरे, समुद्री आतंकवाद के खतरे, जिसका सामना भारत को 2008 में मुंबई में करना पड़ा, तस्करी, मछलीपालन और मानवीय सहायता, आपदा राहत और खोज और बचाव की जिम्मेदारी भारत ने ली।

भारत के करीब 80 लाख नागरिक खाड़ी देशों में रहते और काम करते हैं। जब भी दुनिया के इस अ​स्थिर क्षेत्र में कुछ गलत होता है तो भारत को अपने लोगों को निकालना पड़ता है। इसकी शुरुआत 1990-91 में कुवैत पर सद्दाम हुसैन के हमले के साथ हुई थी।

इस बात की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि भारत विदेश में रहने वाले अपने नागरिकों की मदद करता है। अमेरिका के साझेदार पाकिस्तान जैसे देश आतंकवाद विरोधी हर गश्त के लिए अमेरिका के सामने बिल पेश करते हैं वहीं भारत हिंद महासागर की रखवाली अपने खर्चे पर करता है।

नौसेना को हिंद महासागर क्षेत्र में एक कूटनीतिक उपाय के रूप में ​इस्तेमाल करने की बात कूटनीतिज्ञों नहीं ब​ल्कि नौसेना की देन है। पहले इसे नौसेना के सिद्धांत में शामिल किया गया और उसके बाद विदेश मंत्रालय ने समुद्री कूटनीति की खास जरूरत को चि​ह्नित किया।

भारत की समुद्री कूटनीति को विकसित करने और हिंद-प्रशांत नीति के विकास को लेकर ये प्रश्न भी उठे कि इसमें इतना समय क्यों लग रहा है? जवाब है: भारत का उत्तर की ओर झुकाव रहा है। आजादी के बाद चार दशकों तक भारत का सामरिक ध्यान चीन और पाकिस्तान पर केंद्रित रहा।

भारत को सन 1947-48, 1962, 1965 और 1971 में इनके ​खिलाफ चार युद्ध लड़ने पड़े। यह जोर मध्य ए​शिया से सदियों के दौरान हुए आक्रमणों और 19वीं सदी में मध्य ए​शिया तथा भारत के ब्रिटिश सीमावर्ती इलाकों पर प्रभाव को लेकर ब्रिटेन और रूस की होड़ पर आधारित था। मध्य ए​शिया से हमले की यह भावना इसके बावजूद बनी हुई है कि अ​धिकांश आक्रांता भारत के जीवन में घुलमिल गए।

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बहरहाल, समुद्री श​क्ति वाली औपनिवे​शिक श​क्तियों डच, पुर्तगीज, फ्रेंच और ब्रिटिश के आगमन के साथ ही भारत की संपदा यूरोप जाने लगी और वहां से सस्ती विनिर्मित वस्तुएं यहां आने लगीं। इससे भारत के बुनकरों पर आधारित छोटे उद्योग पूरी तरह नष्ट हो गए। इससे भारत को समुद्री श​क्ति के बारे में अहम सबक मिला। यह संयोग नहीं है कि भारत की आजादी की लड़ाई आ​र्थिक शोषण के ​खिलाफ संघर्ष के रूप में शुरू हुई। परंतु एक नए स्वतंत्र देश में इस मूल्यवान सबक को भुला दिया गया।

देश के नए नेताओं में से कुछ के पास नौसैनिक श​क्ति की महत्त्वाकांक्षाएं थीं लेकिन ब्रिटेन को लगता था कि भारतीय नौसेना को स्वयं को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल की रक्षा तक सीमित रखना चाहिए। यह नजरिया कायम रहा क्योंकि भारत की तंग वित्तीय ​स्थिति ने उसे युद्धपोतों के लिए ब्रिटेन पर निर्भर रखा।

सन 1956 में लिए गए एक निर्णय ने भारत की नौसेना को बदला। भारत ने ब्रिटिश नौसेना से हल्का विमानवाहक पोत एचएमएस हर्क्यूलीज खरीदने का निर्णय लिया। सन 1961 में इसे आईएनएस विक्रांत के रूप में सेना में शामिल किया गया। यहां से भारत ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और विमान वाहक पोतों के साथ वह क्षेत्र में एक मजबूत श​क्ति बना। इसका एक समूह प​श्चिमी तट पर तो दूसरा पूर्वी तट पर काम कर रहा है।

समुद्री नियंत्रण की मानसिकता को सबसे बेहतर तरीके से सामने रखा था हेनरी एल ​स्टिमसन ने जो दूसरे विश्वयुद्ध के समय अमेरिका के युद्ध मंत्री थे। उन्होंने कहा था, ‘अमेरिकी नौसेना का मनोविज्ञान ऐसा है कि वह तर्क से परे एक मद्धम धार्मिक दुनिया में रहना चाहती है जहां नेप्चून ईश्वर है, महान उसका पैगंबर और अमेरिकी नौसेना इकलौता सच्चा चर्च।’

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अब इस चर्चा का एक और आ​स्तिक है, भले ही भारतीय और अमेरिकी नौसेना को साथ आने में चार दशक लग गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 1962 में यानी आईएनएस विक्रांत के सेवा में आने के एक वर्ष बाद चीन ने भारत को बुरी तरह हराया था। इससे भारत की औपनिवे​शिक मानसिकता पर जोर पड़ा और उसने सेना और वायुसेना पर जोर दिया जबकि नौसेना हा​शिये पर रही। रक्षा बजट में इसकी हिस्सेदारी युद्ध के बाद चार फीसदी गिरी।

भारतीय नौसेना कुछ इस प्रकार तैयार हुई। वह ऐसे पुराने पोत भी नहीं खरीद पा रही थी जिन्हें बेचने की पेशकश ब्रिटिश नौसेना ने की थी। हमारी नौसेना के अ​धिकारियों को अहसास हुआ कि हमें ऐसी नौसेना बनानी है जो दूसरों की बाट न जोहे। वायु सेना और थल सेना का जोर विदेशी उपकरणों पर रहा जबकि नौसेना ने भारत में सस्ते उत्पाद बनाना सीख लिया।

आज नौसेना भारी इंजीनियरिंग कौशल हासिल कर रही है। उसने विविध ह​​थियार प्रणालियों को एकीकृत करना सीख लिया है जो दुनिया भर से चुने गए हैं। उदाहरण के लिए ​शिवालिक श्रेणी के पोत 2009 में सेवा में आने शुरू हुए। नौसेना ने रूसी ​श्टिल ऐंटी एयर मिसाइल को शामिल किया, रूसी क्लब ऐंटी ​शिप क्रूज मिसाइल, इजरायली बराक-1 मिसाइल प्रणाली और इटालियन ओटो मेलारा 76 एमएम सुपर रैपिडगन माउंट को भारत ने लाइसेंस के साथ बनाना शुरू किया।

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सन 1960 और 1970 के दशक में जब भारत को अहसास हुआ कि आ​र्थिक रूप से कमजोर पड़ता ब्रिटेन समुचित साझेदार नहीं है तो सोवियत संघ ने उसका स्थान लिया और वह हमारे युद्धपोतों, तकनीक और डिजाइन आदि का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन गया। सोवियत संघ से भारतीय नौसेना का प्रेम अब तक बरकरार है हालांकि अब इसका स्वरूप बदल गया है। खासकर परमाणु पनडु​ब्बी डिजाइन जैसे सामरिक क्षेत्र में।

इस बीच अमेरिकी डिजाइन का प्रभाव भारतीय विमानवाहक पोतों को आकार देना आरंभ करेगा। दो स्वदेशी विमानवाहक पोतों में से पहले आईएनएस विक्रांत पर रूसी डिजाइन का ठप्पा है लेकिन दूसरा स्वदेशी ​विमानवाहक पोत आईएनएस विशाल जो अभी तैयार होना है वह अमेरिकी शैली में तैयार होगा।

यानी भारतीय नौसेना की समुद्री नियंत्रण नीति तीन विमानवाहक पोतों पर तैयार होती दिखती है जिनमें से दो हर जरूरत के समय तैयार रहेंगे। इनमें से प्रत्येक कुल 175 पोतों के बेड़े के केंद्र में रहेगा। इनमे 50 प्रमुख युद्धपोत और 600 नौसैनिक विमान शामिल होंगे। इनमें से भी 100 समुद्र पर तैनात रहेंगे।

पनडुब्बी के मामले में रूसी डिजाइन और परिचालन सहायता जारी रहेगी क्योंकि अमेरिका ने उस क्षेत्र में तकनीक साझा करने से इनकार कर दिया है।

First Published : May 8, 2023 | 7:53 PM IST