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सुधार के जोखिम का आवश्यक है प्रबंधन

श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर साहसी कदम उठाने के बाद कर्नाटक आराम से नहीं बैठ सकता। अब उसे सावधानीपूर्वक क्रियान्वयन करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। बता रहे हैं ए के भट्टाचार्य

Last Updated- March 23, 2023 | 11:22 PM IST
Managing reform risks

कर्नाटक सरकार ने हाल ही में एक ऐसा कदम उठाया जिस पर लोगों का ध्यान नहीं गया। उसने राज्य के श्रम कानूनों में संशोधन किया जिसके बाद वहां के उद्योग काम के घंटों को मौजूदा 9 से बढ़ाकर 12 घंटे प्रति दिन कर सकते हैं। इसके साथ ही ओवरटाइम की अवधि भी महीने के 75 घंटों से बढ़ाकर 145 घंटे की जा सकती है और महिलाओं को रात की पाली में काम करने की आजादी होगी। हालांकि इनके तहत काम की अवधि सप्ताह में 48 घंटे ही बढ़ाई जा सकती है जबकि रात की पाली में महिलाओं को काम का सुरक्षित और स्वस्थ माहौल उपलब्ध कराना होगा।

फैक्टरीज (कर्नाटक संशोधन) विधेयक, 2023, को 24 फरवरी को विधानसभा में बिना किसी बहस के पारित कर दिया गया। हालांकि कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) के सदस्यों ने इसका विरोध करते हुए विधानसभा की कार्यवाही से बाहर रहने का निर्णय लिया। मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि विधान परिषद में भारतीय जनता पार्टी के एक सदस्य ने भी संशोधनों का विरोध किया। श्रम संगठन भी इन बदलावों को लेकर नाखुश हैं। भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (सीटू) ने कर्नाटक के राज्यपाल से अपील की है कि संशोधन विधेयक को खारिज कर दिया जाए। खबरों के मुताबिक श्रम कानूनों में बदलाव से कर्नाटक को फॉक्सकॉन को मनाने में मदद मिली है।

फॉक्सकॉन ताइवान की कंपनी है जो ऐपल के फोन बनाती है और उसे राज्य में अपनी एक फैक्टरी लगानी है। निश्चित तौर पर महिलाओं को रात की पाली में काम कराना, दिन में दो पालियों में काम और दिन में काम के घंटों में इजाफा आदि देश में विनिर्माण या असेंबली संयंत्र लगाने की इच्छुक कंपनियों की प्रमुख मांग रही हैं। राज्य के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री सी एन अश्वत्थ नारायण ने विधान परिषद में संशोधन पेश करते समय संकेत दिया था कि चीन के श्रम कानून लचीले हैं और अगर कर्नाटक विदेशी निवेश जुटाने तथा विनिर्माण को गति देने को लेकर उत्सुक है तो उसे भी ऐसा करना होगा।

श्रम नीति सुधारों को लेकर ऐसे सार्वजनिक ढंग से इरादे जताना भारत में मुश्किल रहा है। यह उस समय और दुर्लभ है जब आप जानते हों कि राज्य में जल्दी ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और ऐसे में श्रम कानून सुधारों को कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है। यह बात ध्यान रहे कि श्रम कानूनों में संशोधन बिना किसी बहस के पारित हो गया। इससे संकेत मिलता है कि राज्य सरकार ने संभवत: बिना राजनीतिक सहमति तैयार किए या विपक्षी दलों के विधायकों के साथ चर्चा किए ही इसे पारित कर दिया। यह लगभग तय है कि विपक्षी राजनीतिक दल श्रम कानूनों में बदलावों और इन्हें पास करने के तरीके को आगामी चुनावों में इस्तेमाल करेंगे। श्रम संगठनों ने पहले ही इन बदलावों का विरोध शुरू कर दिया है।

विदेशी निवेशकों और घरेलू निवेशकों का किसी भी ऐसे देश या प्रदेश में अपने पूंजी निवेश को लेकर चिंतित होना जायज है जहां आर्थिक कानूनों में बदलाव विवादास्पद हो सकता हो। वे चाहते हैं कि सुधार ऐसे हों जिससे कारोबारी सुगमता में बेहतरी आए लेकिन वे यह भी चाहते हैं कि कोई भी सरकार जिन बदलावों का प्रस्ताव रखती है उन्हें राजनीतिक विरोध का सामना नहीं करना पड़े।

यकीनन कर्नाटक सरकार ने राजनीतिक जोखिम लिया है। अगर वह श्रम कानूनों में बदलाव के प्रतिरोध को पार कर लेती है और फॉक्सकॉन तथा अन्य कंपनियों का निवेश सुरक्षित कर लेती है तो वह अन्य राज्यों के लिए अनुकरणीय मॉडल बन जाएगी। इससे एक अलग राजनीतिक माहौल बनेगा।

यह याद रहे कि कर्नाटक में बीते दो वर्षों में अच्छी खासी विदेशी पूंजी आई। 2020-21 में उसने 7.7 अरब डॉलर का विदेशी पूंजी निवेश जुटाया जो गुजरात के 22 अरब डॉलर और महाराष्ट्र के 16 अरब डॉलर के बाद तीसरे स्थान पर था। एक वर्ष बाद 2021-22 में जब भारत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कमी आई तब कर्नाटक 22 अरब डॉलर के साथ सबसे अधिक विदेशी पूंजी जुटाने वाला प्रदेश रहा। महाराष्ट्र और गुजरात क्रमश: 15 अरब डॉलर और तीन अरब डॉलर के साथ पीछे रह गए। परंतु अप्रैल-दिसंबर 2022-23 में जब भारत की विदेशी पूंजी में 15 फीसदी की कमी आई तभी कर्नाटक से भी बड़े पैमाने पर पूंजी बाहर गई और उसे अपना नंबर एक का दर्जा महाराष्ट्र के हाथों गंवाना पड़ा।

शायद कर्नाटक में विदेशी निवेश में कमी के कारण ही ऐसे साहसी श्रम सुधार किए गए। अगर राज्य सरकार राजनीतिक जोखिम के बावजूद चालू वर्ष में अब तक के रुझान को बदल लेती है तो माना जाएगा कि उसे कामयाबी मिली।

परंतु क्या ऐसे नीतिगत सुधार को जोखिम से दूर करने का कोई तरीका है? यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि 2021 में जिस तरह केंद्र सरकार को कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा वैसी स्थिति नहीं बननी चाहिए। अगर कर्नाटक फैक्टरीज विधेयक में किए गए संशोधनों को वापस लेना पड़ा तो कल्पना कीजिए कि हमें कितने विपरीत परिणामों का सामना करना होगा। राज्य स्तर पर दो कदमों पर विचार किया जा सकता है। कर्नाटक सरकार को इस भ्रम में बिल्कुल नहीं रहना चाहिए कि संशोधन के बाद उसका काम समाप्त हो गया है। निश्चित रूप से वास्तविक काम तो कानून में बदलाव के बाद शुरू होगा। सरकारी मशीनरी को कामगारों और श्रम संगठनों से बात कर उनकी आशंका दूर करनी चाहिए। किसी भी नीतिगत बदलाव के बाद शुरुआती दिनों में डर और आशंका का माहौल सबसे अधिक होता है। अगर सरकार उन दिनों सक्रिय न रहे तो उक्त नीति नाकाम हो सकती है।

इसके अलावा सरकार को संयुक्त सलाह प्रणाली स्थापित करनी चाहिए जिसमें नियोक्ताओं और कर्मचारियों दोनों की भागीदारी हो। इसकी मदद से श्रम कानूनों के क्रियान्वयन के समय पैदा होने वाली चिंताओं को दूर किया जाना चाहिए। कानून में शिथिल किए गए प्रावधानों में से कई का दुरुपयोग भी संभव है। एक अन्य ताइवानी कंपनी विस्ट्रॉन के संयंत्र में हिंसा की घटना बहुत पुरानी नहीं हुई है। बेंगलूरु के निकट स्थित यह फैक्टरी भी ऐपल के फोन बनाती थी। भारत में कहीं भी विस्ट्रॉन जैसी घटना आगे सहन नहीं की जा सकती है। खासतौर पर कर्नाटक के श्रम कानूनों में हालिया बदलाव के बाद तो बिल्कुल नहीं। सुधारों की जरूरत है लेकिन सावधानी बरतने की भी उतनी ही आवश्यकता है ताकि ऐसे सुधारों पर सावधानीपूर्वक आगे बढ़ा जा सके और संभावित दिक्कतों से निपटा जा सके।

First Published - March 23, 2023 | 11:22 PM IST

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