भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर महामारी का प्रभाव अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कहीं अधिक रहा। यह बात हाल ही में जारी सरकारी आंकड़ों से भी साबित होती है। अब जबकि देश भर में आर्थिक गतिविधियां दोबारा नए सिरे से शुरू हो रही हैं तो कुछ हद तक सुधार हो सकता है लेकिन यह भी सही है कि वृद्धि दर में पिछले कुछ वर्षों से लगातार गिरावट आ रही है और महामारी के कारण इसका स्तर और गिरा है। कहा जा सकता है कि कोविड-19 के कारण अब वृद्धि दर कुछ और वर्षों तक सीमित रहेगी। इससे पहले नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर की समस्याओं ने भी वृद्धि पर असर डाला। परंतु इन बातों के बावजूद अर्थव्यवस्था के प्रबंधन को लेकर सरकार का विश्वास अडिग है। अब शायद वक्त आ गया है कि सरकार अपने आर्थिक प्रबंधन की उचित आलोचना पर ध्यान दे। यह आलोचना तमाम प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा की जा रही है।
कई अर्थशास्त्रियों ने आगे की राह भी सुझाई है। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि हालिया आंकड़े ऐसे हैं जिनसे सरकार को भयभीत होना चाहिए और आश्वस्ति से बाहर निकलना चाहिए। उन्होंने कहा कि सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत रोजगार प्रदान करने जैसे मौजूदा राहत उपायों का अधिकतम इस्तेमाल किया जा सके। खेद की बात है कि पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणव सेन ने ‘द वायर’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि केंद्र सरकार ने मनरेगा के लिए शुरुआत में जो फंड प्रदान किया था उसकी पुन:पूर्ति नहीं की गई और योजना पिछले महीने ध्वस्त हो गई। राजन का कहना है कि ऐसी तमाम बातें हैं जिनकी मदद से बिना अतिरिक्त व्यय के अर्थव्यवस्था को आगे ले जाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सुधार अपने आप में एक तरह का प्रोत्साहन है। बीते कुछ महीनों में सरकार ने कतिपय सुधारों को अंजाम दिया है। खासतौर पर कृषि क्षेत्र में सुधार किए गए परंतु गंभीर सुधारों को गति नहीं मिल सकी। यह दुखद है लेकिन इससे यह पता चलता है कि सरकार के भीतर भरोसे का माहौल है। मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी पिछले दिनों कहा कि अंग्रेजी के ‘वी’ अक्षर के आकार का सुधार हो रहा है।
अन्य अर्थशास्त्रियों ने सरकार की आर्थिक योजनाओं की दिक्कतों के बारे में लिखा है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ऊर्जित पटेल ने चिंता जताई है कि बैंकिंग क्षेत्र में सांठगांठ के खिलाफ जो शुरुआती लाभ मिले थे वे अब खत्म होते नजर आ रहे हैं। पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने मौद्रिक प्राधिकार के राजकोषीय दबदबे और आरबीआई की स्वायत्तता को क्षति पहुंचने को लेकर अपनी चेतावनी दोहराई है। इनमें से कई अर्थशास्त्री मसलन राजन को सरकार यह कहकर खारिज कर सकती है कि वे पिछली सरकार के कार्यकाल में सेवारत रहे। परंतु यह बात पटेल अथवा नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पानगडिय़ा पर लागू नहीं होती जिन्होंने बार-बार कहा है कि सरकार कारोबार विरोधी नीतियां अपना रही है। पहले मेक इन इंडिया और फिर आत्मनिर्भरता के नाम पर ऐसा किया गया।
वैश्विक मीडिया में भारतीय अर्थव्यवस्था की कवरेज में भी यह चिंता नजर आने लगी है। वर्षों की तारीफ के बाद वह सरकार की उपलब्धियों की आलोचना कर रहा है या उन पर सवाल उठा रहा है। सरकार को अपनी प्राथमिकताओं के लिए वैश्विक पूंजी की आवश्यकता है। ऐसे में ये बातें मायने रखती हैं। वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों को अपने समर्थकों के तंग दायरे से बाहर आकर ये बातें सुननी चाहिए। इस वक्त आर्थिक क्षेत्र में एक और गलत कदम महंगा साबित होगा। सही सलाह पर ध्यान देने की आवश्यकता है।