हेनरी किसिंजर एवं रिचर्ड निक्सन की 21-28 फरवरी, 1972 को हुई चीन यात्रा ने धीरे-धीरे चीन के आर्थिक पुनरुद्भव के लिए अमेरिकी समर्थन का मार्ग प्रशस्त किया। अमेरिका ने चीन को सर्वाधिक वरीयता-प्राप्त देश (एमएफएन) का दर्जा दिया जिसे हर साल नवीनीकृत किया जाता रहा। वर्ष 1984 तक अमेरिका चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन चुका था। करीब दो दशक बाद दिसंबर 2001 में अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में चीन के प्रवेश का भी विरोध नहीं किया।
आश्चर्यजनक रूप से अमेरिका अपनी बैंकिंग, बीमा एवं दूरसंचार कंपनियों के चीन में सीमित प्रवेश की इजाजत पाकर भी खुश था। अगले दो दशकों में चीन को होने वाले अमेरिकी निर्यात में धीरे-धीरे बिजली एवं प्रकाश उपकरण, वाहन, विमान एवं सोयाबीन शामिल होते गए लेकिन अमेरिका के साथ वस्तु व्यापार में चीन अधिशेष की स्थिति में रहा है।
निश्चित रूप से किसिंजर की रणनीति चीन को बढ़ावा देकर तत्कालीन सोवियत संघ (अब रूस) को किनारे लगाने की थी और इस क्रम में चीन को होने वाले आर्थिक लाभों पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता था। अब विकसित देशों के समूह जी-7 की ब्रिटेन में 11-13 जून को हुई बैठक पर गौर करते हैं। इस शिखर सम्मेलन में जारी विज्ञप्ति का 49वां पैराग्राफ कहता है कि ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पद्र्धा और चीन को ध्यान में रखते हुए हम विश्व अर्थव्यवस्था के निष्पक्ष एवं पारदर्शी संचालन को नुकसान पहुंचाने वाली गैर-बाजारू नीतियों एवं तरीकों को चुनौती देने के लिए सामूहिक नजरिये पर विचार-विमर्श जारी रखेंगे।’ चीन के शिनच्यांग क्षेत्र में मानवाधिकार की स्थिति को भी लेकर उसकी आलोचना की गई और चीन में कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर विस्तृत जांच की भी मांग की गई। भारत ने भी चीन की तरफ उंगली उठाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 13 जून को अपने वर्चुअल संबोधन में कहा कि भारत सर्वाधिकारवाद से उत्पन्न होने वाले खतरों से साझा मूल्यों को बचाने के लिए इस समूह का स्वाभाविक सहयोगी है।
एक दिन बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जोए बाइडन ने ब्रसेल्स में नाटो शिखर सम्मेलन में शिरकत की। इस सम्मेलन में जारी वक्तव्य के तीसरे पैरे में चीन पर निशाना साधते हुए कहा गया, ‘चीन का बढ़ता असर एवं अंतरराष्ट्रीय नीतियां ऐसी चुनौतियां पेश कर सकती हैं जिनके समाधान के लिए इस गठबंधन को प्रयास करने पड़ सकते हैं। गठबंधन के सुरक्षा हितों को सुरक्षित रखने के लिए हम चीन के संपर्क में रहेंगे। साइबर, हाइब्रिड एवं गूलत जानकारी पर आधारित अभियान के खतरे बढ़ते जा रहे हैं और तेजी से उन्नत होती तकनीकें इसमें मददगार साबित हो रही हैं।’
ब्रसेल्स में ही 15 जून को यूरोपीय संघ एवं अमेरिका की शिखर बैठक में भी खास तौर पर जर्मनी चीन को लेकर बेहद चिंतित नजर आया। जर्मनी एवं एक हद तक ब्रिटेन की आपत्तियों के बावजूद सम्मेलन में जारी वक्तव्य में कहा गया कि ‘यूरोपीय संघ और अमेरिका चीन के प्रति हमारे बहुपक्षीय दृष्टिकोण के आलोक में तमाम मुद्दों पर करीबी सहयोग एवं सलाह करेंगे’। चीन ने यूरोपीय संघ-अमेरिका सम्मेलन के संयुक्त वक्तव्य में अपने बारे में किए गए हल्के उल्लेख को भी फौरन नकार दिया।
इसके तत्काल बाद 16 जून को राष्ट्रपति बाइडन की जिनेवा में रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन से हुई मुलाकात में दोनों ही पक्षों ने चुपचाप यह माना कि उन्हें तमाम मतभेदों के बावजूद एक-दूसरे की जरूरत है। मुकाकात के बाद बाइडन ने खुलकर यह कहा कि पुतिन सबसे आखिर में ही शीत युद्ध जैसी स्थिति बनते देखना चाहते हैं। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा, ‘हमारे पास महत्त्वपूर्ण साइबर क्षमताएं हैं और उन्हें यह बात मालूम भी है।’ बाइडन की यह टिप्पणी रूस के बारे में अमेरिकी संदेहों को बयां करती है। दरअसल रूसी की अर्थव्यवस्था बड़ी तेजी से चीन को किए जाने वाले ईंधन निर्यात पर निर्भर होती जा रही है।
कुछ ही दिनों के अंतराल में हुए इन शिखर सम्मेलनों की पृष्ठभूमि में जी-7 समूह के साथ दक्षिण कोरिया एवं ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्थाओं की भी सम्मिलित रूप से तुलना रूस और चीन से भू-भाग, जनसंख्या एवं व्यापार आकार जैसे मानकों पर इस सारिणी में की गई है।
जीडीपी एवं जनसंख्या के आंकड़े पूरी तरह साफ कर देते हैं कि रूस किसी भी तरह से जी-7 प्लस समूह का आर्थिक प्रतिस्पद्र्धी नहीं है। लेकिन चीन की अर्थव्यवस्था जी-7 प्लस की सम्मिलित अर्थव्यवस्थाओं से बहुत पीछे नहीं है। इसके अलावा जी-7 प्लस के कुल निर्यात का 9.7 फीसदी चीन को जाता है और इस समूह के देशों के कुल आयात में 16.31 फीसदी हिस्सा चीन का है। वर्ष 2021 में चीन को आर्थिक मजबूती मध्य-यूरोपीय आय स्तरों पर करीब 50 करोड़ घरेलू उपभोक्ताओं की संख्या से मिलती है। मसलन, एमेजॉन के प्रतिस्पद्र्धी के तौर पर अलीबाबा, उबर जैसी सेवा देने वाली कंपनी दिदी चक्सिंग और गूगल की तर्ज पर इंटरनेट सेवाएं देने वाली फर्म बायदू को चीन ने ही आगे बढ़ाया है। दिदी चक्सिंग जुलाई में प्रारंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) लेकर आने वाला है जिसमें इसका मूल्यांकन करीब 70 अरब डॉलर का रहने का अनुमान है।
किसिंजर की चीन की तरफ की गई पहल ने वैश्विक आर्थिक वृद्धि को तेज करने का काम किया और चीन के आगे बढऩे से कई देशों का लाभ भी हुए। वह एक सकारात्मक नतीजा था लेकिन चीन के एक बहुदलीय खुले लोकतंत्र में तब्दील होने की आस 1989 में ही खत्म हो जानी चाहिए थी जब चीन ने थ्येनआनमन चौक पर जुटे प्रदर्शनकारियों का दमन कर दिया था। अमेरिका आखिरकार अपनी विदेश नीति की ऊंघ से जग चुका है जो रूस को अमेरिका का इकलौता खतरनाक दुश्मन मानने और उसे काबू में करने के लिए चीन की उपयोगिता वाले किसिंजर के रवैये की देन रही है। बिल क्लिंटन ने 1992 के राष्ट्रपति चुनाव के संदर्भ में कहा था कि सवाल अर्थव्यवस्था का है। लेकिन इस सूक्ति को चीन के मामले में नजरअंदाज किया जाता रहा।
चीन को बढ़ावा देने की किसिंजर की पहल का अमेरिका एवं कुछ दूसरे देशों के लिए सामरिक नतीजे इससे हुए वैश्विक आर्थिक लाभों की तुलना में कहीं अधिक नकारात्मक रहे हैं। किसिंजर को अब भी विदेश नीति के जानकारों के बीच एक अगुआ के तौर पर देखा जाता है। किसिंजर और उनके बाद विदेश मंत्री बनने वाले लोगों ने सर्वाधिकारी चीन के रूप में एक लड़ाकू आर्थिक एवं सैन्य ताकत का सृजन कर दिया है। भारत अगर अपनी आर्थिक एवं रक्षा खर्च नीतियां दुरुस्त भी कर लेता है तो चीन को दरकिनार करने की क्षमता हासिल करने में उसे लंबा वक्त लगेगा।
(लेखक पूर्व राजदूत एवं विश्व बैंक ट्रेजरी पेशेवर हैं)
