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न्याय व्यवस्था में सुधार की केरल की पहल देश-दुनिया के लिए बन सकती है नजीर

केरल उच्च न्यायालय ने न्याय व्यवस्था में सुधार की दिशा में जो पहल हाल में की है वह अन्य राज्यों और यहां तक कि देशों के लिए भी नजीर बन सकती है। बता रहे हैं अजय शाह

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अजय शाह   
Last Updated- August 23, 2024 | 9:32 PM IST

किसी भी अच्छे समाज के लिए न्याय बुनियादी जरूरत है। उदार लोकतंत्र बनाने का वादा सही ढंग से काम कर रही न्यायपालिका पर ही निर्भर करता है, जो सुनिश्चित करती है कि विभिन्न पक्षों के बीच प्रतिस्पर्धा में किसी को दबाया नहीं जाए। बाजार अर्थव्यवस्था का वादा पूरा करने के लिए भी व्यवस्थित ढंग से काम करने वाली न्याय व्यवस्था की जरूरत होती है ताकि अनुबंध पर श्रम संभव हो, राज्य की शक्तियों को सीमित किया जा सके और कंपनियों के बीच दबावरहित प्रतिस्पर्द्धा भी सुनिश्चित हो। भारतीय न्यायपालिका की बात करें तो इसके सही होने, अनुमान लायक होने और गति के मामले में काफी असहजता है।

न्याय व्यवस्था में सुधार जटिल यात्रा है, जिसमें राजनीतिक अर्थव्यवस्था और विचार विमर्श के साथ डेटा पर शोध आदि भी शामिल होते हैं। जिन्हें पहले से चली आ रही व्यवस्था से लाभ मिल रहा है, वे कुछ अहम सुधारों पर शंका जताएंगे। सही जवाब किसी को नहीं पता। हमें आजमाइश करते हुए आगे बढ़ना होगा और राह तलाशनी होगी। सही जवाब तलाशने के लिए कई अनुभवों से गुजरना होता है। इन प्रयोगों के दौरान प्रक्रिया में बदलाव के ऐसे कई विचार गलत साबित होंगे, जिनकी कल्पना विचारकों ने की थी। विधिक व्यवस्था में काम करने के तरीके नए सिरे से गढ़ना निजी क्षेत्र की तुलना में कठिन होता है क्योंकि वहां मुकाबला करने वाला कोई नहीं होता और मुनाफे या शेयर भाव जैसी कोई बात भी नहीं होती।

कंप्यूटर तकनीक अदालतों का कामकाज सुधारने में उसी तरह मददगार हो सकती है, जिस तरह वह सेवा क्षेत्र के तमाम संगठनों में कर चुकी है। इस यात्रा का पहला हिस्सा वह है, जो हम देश की अनगिनत कंपनियों में घटित होते देख चुके हैं। उद्यम सूचना प्रौद्योगिकी से नेतृत्व को अग्रिम पंक्ति के कामकाज की प्रकृति पर नियंत्रण मिल जाता है।

शुरुआती व्यवस्थाएं पुराने तरीकों का अनुसरण भर करें तो भी गहन बदलाव की बुनियाद उद्यमी आईटी व्यवस्था ही होती है। शेड्यूलिंग यानी मुकदमों की तारीख तय करने की व्यवस्था पर विचार कीजिए, जो न्याय व्यवस्था के सुधार की आत्मा सरीखी है। न्यायाधीश दिल की सर्जरी करने वालों की तरह होते हैं और उनके समय का सही इस्तेमाल होना चाहिए। कई अदालतों में अभी एक ही न्यायाधीश के पास एक दिन में सौ मुकदमे सुनवाई के लिए पहुंच जाते हैं। अगर तारीख देने का काम कंप्यूटर की मदद से कर दिया जाए तो परेशानी बहुत कम हो सकती है।

बेहतर यही होगा कि ऐसे हालात बनें जहां न्यायाधीश कम समय में भी हर मामले पर ध्यान दे सकें और समय लगा सकें। इससे उन्हें हर मामले के बारे में सही समझ बनाने में मदद मिलेगी। इससे उत्पादकता बढ़ेगी। ऐसे लाभ कंप्यूटरीकरण के वर्तमान तरीकों के दोहराव से सामने नहीं आएंगे।

किंतु बेहतर स्थिति तो वह होगी, जब न्यायाधीश को एक ही मामले पर अधिक समय और ध्यान देने का मौका मिले ताकि कम समय में ही वह उसे अच्छी तरह समझ सके। इस तरह के बदलाव किए गए तो कंप्यूटर वैज्ञानिकों की भाषा में ‘थ्रैशिंग’ (जब एक मुकदमे से दूसरे मुकदमे पर जाने में बहुत समय नष्ट होता है) से बचकर अधिक परिणाम हासिल किए जा सकेंगे। लेकिन अगर कंप्यूटरीकरण के बाद भी आज के ढर्रे पर ही चला गया तो ये फायदे नहीं होंगे।

न्याय व्यवस्था या विधिक व्यवस्था में हम अक्सर सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों की बात करते हैं मगर वास्तव में मुकदमों का भारी बोझ निचली अदालतों पर है। इसके लिए संविधान में उच्च न्यायालयों को प्रबंधन की शक्तियां दी गई हैं। उन्हें ही खुद को और अपने मातहत आने वाली अदालतों को सुधारने के लिए नेतृत्व और प्रबंधन के गुण ढूंढने होंगे।

आज हम एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर हैं, जहां केरल उच्च न्यायालय ने ‘24*7 ऑन कोर्ट’ की शुरुआत की है। इससे वहां की जिला अदालतों के तरीकों में भारी बदलाव आएगा। बदलाव का सूत्र यह भी है कि दौड़ने से पहले चलना सीखा जाए। यही वजह है कि इन बदलावों की शुरुआत केवल कोल्लम की अदालत में की गई है और इसे चेक बाउंस के मामलों में ही लागू किया जाएगा।

सबसे पहले नए सॉफ्टवेयर को जमने दिया जाएगा। समय बीतने पर इसे नए स्थानों और दूसरी तरह के मामलों में भी शुरू किया जा सकता है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि राजनीतिक अर्थशास्त्र, विचार विमर्श और वैज्ञानिक अनुसंधान की मदद से आने वाले सालों में कई गहन परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

केरल के अदालती नेतृत्व ने ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है। जब इसका कोड देखने को मिलेगा तो यह डर कम हो जायेगा कि सरकारी सॉफ्टवेयर वास्तव में करता क्या है। ओपन सोर्स के विकास में बहस, आलोचना और इंजीनियरिंग शामिल होते हैं। केरल के इस कदम में कुछ एपीआई (एप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस) का इस्तेमाल हुआ है, जो एक नए तरह का खुलापन है।

उदाहरण के लिए कोई बैंक या लॉ फर्म एंटरप्राइज सॉफ्टवेयर बना पाएगी, जो इन एपीआई के साथ इस्तेमाल होकर भारतीय विधि समुदाय में श्रम के इस्तेमाल को कम कर देंगे। पारंपरिक अदालत में मौजूद व्यक्ति को संवैधानिक सिद्धांतों के जरिये जो भी मिलना चाहिए, वह सब एपीआई के जरिये ही आएगा।

केरल की न्याय प्रणाली में सुधार की इन पहलों के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमताओं की जरूरत पड़ी – केरल उच्च न्यायालय का नेतृत्व और प्रबंधन, मौजूदा वस्तुस्थिति का विस्तृत अध्ययन और बेहतर प्रक्रिया एवं सॉफ्टवेयर निर्माण, परोपकार के द्वारा ओपन सोर्स डेवलपमेंट, केरल उच्च न्यायालय को केरल सरकार से संसाधन की प्राप्ति आदि। इसे केरल उच्च न्यायालय की काबिलियत ही कहा जाएगा कि वह परिवर्तन की प्रक्रिया के लिए इन सभी को एक साथ ले आया।

दुनिया के अलग-अलग देशों और भारत के अलग-अलग राज्यों की जमीनी हकीकत अलग-अलग है। हर स्थान को इस दिशा में बढ़ने के लिए राजनीतिक अर्थव्यवस्था, विचार विमर्श और अनुसंधान की अपनी यात्रा करनी होगी। केरल में शुरुआत के समय जो ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर पेश किया गया, वह देश और दुनिया में दूसरी जगहों पर भी इस काम में मददगार हो सकता है।

यह सब स्थिर तरीके से कैसे काम करेगा? ईगवर्नमेंट फाउंडेशन ने ‘डिजिट’ और ‘आईफिक्स’ सॉफ्टवेयर प्रणालियों के लिए जो तरीके अपनाए वे उपयोगी साबित हो सकते हैं। उनके तरीके में सॉफ्टवेयर सार्वजनिक स्तर पर ओपन सोर्स प्रक्रिया के माध्यम से बनाया जाता है और इसमें परोपकार से आया हुआ धन लगता है। कोई उच्च न्यायालय निजी वेंडरों के साथ अनुबंध करता है ताकि इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हुए कामकाज संभाला जा सके।

शुरुआत में ऐसी व्यवस्थाओं में एक ही बाधा आ सकती है कि उच्च न्यायालयों में कितने सरकारी ठेके दिए जाएं। भविष्य में ये व्यवस्थाएं देश की अदालतों में प्रशासनिक पहलुओं को न्यायिक कामकाज से अलग करने के उस उद्देश्य में बदल सकती हैं, जो न्याय और विधि प्रणाली में सुधार के जरिये पूरा होगा।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : August 23, 2024 | 9:23 PM IST