लगभग 30 वर्ष से भी अधिक समय पहले तीन अर्थशास्त्रियों- ब्रिटेन में क्रिस फ्रीमैन, स्वीडन में बैंग्टेक लुंडवॉल और अमेरिका में रिचर्ड नेल्सन- ने राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली (नैशनल इनोवेशन सिस्टम्स) के बारे में सोचना शुरू किया था। ये तीनों अर्थशास्त्री अलग-अलग देशों से थे और उन्होंने नवाचार को अंतरराष्ट्रीय एवं तुलनात्मक नजरिये से देखा।
इससे हमें यह समझने में आसानी हुई कि एक प्रभावी नवाचार तंत्र तैयार करने में किन बातों की जरूरत होती है। नवाचार ज्यादातर कंपनियों में होता है इसलिए इनकी शुरुआत भी वहीं से हुई। किसी कंपनी की क्षमता इन दोनों बातों से प्रभावित होती है कि वे स्वयं क्या करती है और उनके इर्द-गिर्द संस्थानों में क्या हो रहा है।
व्यापार प्रणाली पूरी दुनिया के लिए या फिर सीमित सोच के साथ उत्पादन शुरू कर सकती है। शिक्षा प्रणाली हुनरमंद (या फिर नहीं) श्रमिक, इंजीनियर और शोधकर्ता उपलब्ध कराती है। सार्वजनिक वित्त पोषित शोध विज्ञान को बढ़ावा दे सकता है।
लोक नीति शोध एवं विकास (आरऐंडडी) में सीधे या पेटेंट के जरिये निवेश को प्रोत्साहन दे सकती है। उद्यमशीलता की संस्कृति विभिन्न रूपों में निवेश को प्रभावित करती है। उद्यमी जिस रूप में ‘अच्छाई’ को परिभाषित करते हैं वृहद सांस्कृतिक कारक उसे (उस रूप को) प्रभावित कर सकते हैं।
आइए, चर्चा की शुरुआत कंपनियों के साथ करते हैं। भारतीय उद्योग को आरऐंडडी को मालिकाना प्रौद्योगिकी (प्रॉपराइटरी टेक्नोलॉजी) आधारित भविष्य तैयार करने के माध्यम के रूप में देखना चाहिए। भारतीय उद्योग को देश में आरऐंडडी पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.3 प्रतिशत से बढ़ाकर दुनिया (और चीन) के 1.5 प्रतिशत के बराबर करना चाहिए। भारतीय कंपनियां आंतरिक स्तर पर निवेश में दुनिया की तुलना में इतनी पीछे क्यों है? कहां संभावनाएं दिख रही हैं? पूरी दुनिया में औद्योगिक आरऐंडडी में जितना निवेश हो रहा है उनमें शीर्ष 2,500 कंपनियों द्वारा शोध एवं विकास पर किए जाने वाले खर्च की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत है।
शीर्ष 10 क्षेत्रों की इसमें हिस्सेदारी 80 प्रतिशत तक है। इन 10 क्षेत्रों में पांच में शीर्ष 2,500 कंपनियों में भारत की कोई कंपनी नहीं है। कुछ क्षेत्रों में हम आरऐंडडी पर अधिकार ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। हमारी सॉफ्टवेयर कंपनियां मुनाफा कमाने के लिहाज से तो बड़ी हैं मगर आरऐंडडी में निवेश के मोर्चे पर पीछे चल रही हैं। ये कंपनियां आरऐंडडी में 12 प्रतिशत के वैश्विक औसत (चीन के 10 प्रतिशत) का करीब 1 प्रतिशत निवेश कर रही हैं।
इसके अलावा आरऐंडडी क्षेत्र में कोई बड़ा निवेशक भी नहीं है। भारतीय कंपनियां संयुक्त रूप से आरऐंडडी में जितना निवेश करती हैं दुनिया की 26वीं (आरऐंडडी में निवेश के लिहाज से) सबसे बड़ी कंपनी बॉश अकेले उससे अधिक निवेश करती है।
आरऐंडडी में बड़े निवेशक कहां से आ सकते हैं?
इसी समाचार पत्र में मैंने अपने पिछले स्तंभ में भारत की सफलतम कंपनियों की चर्चा की थी। हमारे देश की शीर्ष 10 कंपनियां सॉफ्टवेयर (टीसीएस और इन्फोसिस), तेल परिष्करण (ओएनजीसी, रिलायंस और इंडियन ऑयल), धातु (टाटा स्टील और जेएसडब्ल्यू) और अन्य उद्योगों (एनटीपीसी, रिलायंस जियो और आईटीसी) में हैं। पिछले साल इन कंपनियों ने 44 अरब डॉलर का मुनाफा कमाया था।
उन्होंने आरऐंडडी में अपने लाभ का करीब 2 प्रतिशत (1 अरब डॉलर से कम) निवेश किया। अब चीन की कंपनियों पर विचार करते हैं। चीन की सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनियां सॉफ्टवेयर, तेल परिष्करण, बेवरिजेज, खनन एवं निर्माण में हैं। उन्होंने पिछले साल 106 अरब डॉलर मुनाफा कमाया और इनमें 31 अरब डॉलर (29 प्रतिशत) आरऐंडडी पर खर्च किए। अमेरिका, जापान और जर्मनी की शीर्ष 10 कंपनियों ने अपने मुनाफे का क्रमशः 37, 43 और 55 प्रतिशत आरऐंडडी निवेश किया था।
भारतीय उद्योग जगत के लिए आरऐंडडी में निवेश के प्रति अधिक गंभीर रवैया अपनाना होगा। हमें प्रौद्योगिकी गहन (टेक्नोलॉजी -इन्टेंसिव) क्षेत्रों में उपस्थिति बढ़ानी होगी। इसके अलावा उन क्षेत्रों में वैश्विक औसत के करीब निवेश करना होगा जहां हम पहले से उपस्थित हैं। हमारी सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनियों में कुछ को आरऐंडडी पर भारी निवेश करना होगा। भारत में तकनीकी प्रतिभा की कमी नहीं है और हम चाहें तो दीर्घकालिक सफलता के लिए उनका इस्तेमाल कर सकते हैं।
इस चर्चा ने उद्योग को हमारे राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है। मैं यह प्रस्ताव दूंगा कि कोई भी जीवंत राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली की शुरुआत दृढ़ प्रतिस्पर्द्धी क्षमता के साथ होनी चाहिए। इसके अभाव में सार्वजनिक आरऐंडडी पर भारी निवेश के जरिये तकनीकी क्षमता विकसित करने का भारत का प्रयास सफल नहीं रहा है।
पिछले 70 वर्षों में जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर और चीन की आर्थिक प्रगति से हम काफी कुछ सीख सकते हैं। इनमें प्रत्येक देश ने नवाचार क्षमता विकसित करने के लिए सिलसिलेवार उपाय किए। कंपनियां पहले निर्यात बाजार में मूल उपकरण विनिर्माताओं (ओईएम) के रूप में उतरीं और विदेशी ब्रांड को निर्यात करने लगीं। इससे उन्हें विश्व स्तरीय क्षमता प्राप्त करने में सहायता मिली और परिभाषा के हिसाब से उनके उत्पाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम थे।
ये उद्योग मोटे तौर पर श्रम आधारित और बहुत प्रौद्योगिकी गहन – परिधान, फुटवेयर, खाद्य प्रसंस्करण- नहीं थीं। अगला चरण मूल्य श्रृंखला में तकनीक का अधिक इस्तेमाल करने वाले क्षेत्रों-कंज्यूमर ड्यूरेबल्स, इलेक्ट्रॉनिक असेंबली, वाहन एवं कल-पुर्जे एवं रसायन मद्यवर्ती (इंटरमीडिएट्स)- की तरफ बढ़ना था। जैसे कंपनियां इस क्षेत्र में शामिल हुईं उन्होंने प्रतिस्पर्द्धा में दीर्घ अवधि तक बने रहने के लिए आंतरिक स्तर पर आरऐंडडी में निवेश करना शुरू कर दिया। इसके बाद उच्च-तकनीकी क्षेत्रों- सेमीकंडक्टर, दवा (फार्मास्युटिकल्स), कंप्यूटर- में कदम बढ़ाने से आंतरिक स्तर पर आरऐंडडी में निवेश बढ़ने लगा। औद्योगिक शोध एवं विकास में तेजी से अधिक आधुनिक शोध प्रतिभा की जरूरत बढ़ने लगी।
ढांचे या सुखद घटना किसी भी लिहाज से सभी पांच पूर्वी एशियाई देशों की सरकारों ने सार्वजनिक वित्त पोषित आरऐंडडी में निवेश बढ़ाना शुरू कर दिया और इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि उन्होंने पश्चिमी देशों की तरह ही इस सार्वजनिक शोध को उच्च शैक्षणिक संस्थानों में स्थापित करना शुरू कर दिया।
इसका प्रभाव यह हुआ कि सार्वजनिक शोध लाभदायक रहा। इसका कारण यह नहीं था कि यह स्वयं में अधिक महत्त्व वाला था बल्कि श्रेष्ठ शोधकर्ता शिक्षा प्रणाली में साथ-साथ प्रशिक्षित होते गए।
ये शोधकर्ता स्थानीय कंपनियों में तेजी से बढ़ते आधुनिक आंतरिक आरऐंडडी विभागों का प्रमुख हिस्सा बन गए। यह सिलसिला बढ़ता गया और प्रतिस्पर्द्धी उद्योग के बाद आधुनिक तकनीक पर पकड़ मजबूत होने लगी। कंपनियों में आंतरिक स्तर पर आरऐंडडी में निवेश बढ़ने से सार्वजनिक शोध भी होने लगे। इन देशों के आर्थिक इतिहास के अध्ययन से मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंच पाया हूं।
1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद भारतीय उद्योग जगत पर प्रतिस्पर्द्धा करने का दबाव बढ़ा और देश नवाचार क्रम के पहले चरण में आ गया। इससे अगले चरण की शुरुआत वृहद अर्थ में नहीं हो पाई है। जैसा कि हमने पहले देखा था, भारतीय उद्योग आरऐंडडी पर जीडीपी का महज 0.3 प्रतिशत खर्च करने के साथ संतुष्ट रहा है जबकि वैश्विक औसत 1.5 प्रतिशत रहा है। हालांकि, कुछ क्षेत्र जरूर आगे बढ़े हैं।
वैश्विक औद्योगिक आरऐंडडी में जिन 10 प्रमुख तकनीक आधारित क्षेत्रों का दबदबा है उनमें भारत की कंपनियां औषधि एवं वाहन क्षेत्रों में कुछ हद तक मौजूद रही हैं। सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाली हमारी कंपनियों में दवा क्षेत्र की भले ही उपस्थिति नहीं रही है मगर यह हमारे शीर्ष 50 आरऐंडडी निवेशकों की सूची में शामिल है।
आरऐंडडी पर खर्च करने वाली 100 कंपनियों में 41 कंपनियों के साथ के साथ दवा क्षेत्र की भारतीय औद्योगिक आरऐंडडी पर खर्च में 34 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इस क्षेत्र में बिक्री का 10 प्रतिशत के स्तर पर आरऐंडडी की गति विश्व के 16 प्रतिशत की तुलना में कम है मगर यह अनुपात अन्य दूसरे क्षेत्र की तुलना में शानदार है।
दवा क्षेत्र में एक विश्व स्तरीय नवाचार उद्योग लगाने की हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ अवसर है। हमें यह करने के लिए क्या करना होगा? उद्योग जगत को अनिवार्य रूप से क्या करना चाहिए? नवाचार को समर्थन देने के लिए वृहद नवाचार तंत्र-सार्वजनिक स्वास्थ्य, आरऐंडडी गहन और नियामकीय प्रणाली को क्या किया जाना चाहिए? इन बातों की चर्चा इस आलेख के दूसरे हिस्से में होगी।
(लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन हैं और भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के पूर्व अध्यक्ष और सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च के चेयरमैन हैं)