अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने हाल ही में कुछ देशों पर सख्ती बरतते हुए ऊंचे आयात शुल्क (टैरिफ) लगाए हैं, जिससे भारत भी प्रभावित हुआ है। भारत पर 25 फीसदी का टैरिफ लगाया गया है और रूस से तेल आयात करने पर 25 फीसदी का अतिरिक्त जुर्माना भी भरना पड़ेगा। इसके बाद अमेरिका, भारतीय दवा कंपनियों के निर्यात पर भी बड़ा शुल्क लगाने की तैयारी में है, जिससे इन कंपनियों को बड़ा नुकसान हो सकता है।
इन शुल्कों का असर केवल भारत पर ही नहीं हुआ है। लगभग 70 देशों को इन शुल्कों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें 10 फीसदी का सार्वभौमिक या बुनियादी शुल्क (यूनिवर्सल टैरिफ) भी शामिल है। ट्रंप इन टैरिफ का इस्तेमाल सिर्फ अमेरिका का व्यापार घाटा कम करने के लिए नहीं कर रहे हैं बल्कि इनका इस्तेमाल राजनीतिक या निजी वजहों से भी कर रहे हैं।
भारत पर 25 फीसदी शुल्क लगाने के बाद, ट्रंप ने भारत को ‘मृत अर्थव्यवस्था’ कहकर और भी अपमानित किया। उन्होंने पाकिस्तान के साथ तेल भंडार की खोज के लिए एक समझौते का भी जिक्र किया और ऐसे संकेत दिए कि भविष्य में पाकिस्तान भारत को तेल बेच सकता है, जो भारत पर कसा गया एक तंज था। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कई और देश भी ट्रंप की इन मनमानी कार्रवाइयों का शिकार हुए हैं। कनाडा पर 35 फीसदी का शुल्क लगाया गया है क्योंकि वह फेंटानिल और अन्य दवाओं की आपूर्ति रोकने में नाकाम रहा है। ट्रंप ने यह भी साफ कर दिया कि कनाडा का फिलिस्तीन को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता देने का फैसला भी उन्हें पसंद नहीं आया।
स्विट्जरलैंड पर 39 फीसदी का टैरिफ लगाया गया है जो किसी भी यूरोपीय देश पर सबसे ज्यादा टैरिफ है। ट्रंप इस बात से नाराज हैं कि स्विट्जरलैंड की दवा कंपनियां अमेरिका को दवाएं महंगी बेचती हैं। वहीं दूसरी ओर दक्षिण अफ्रीका के निर्यात पर 30 फीसदी का शुल्क लगाया गया है क्योंकि ट्रंप वहां ‘गोरों के खिलाफ नरसंहार’ होने का दावा करते हैं। ब्राजील के निर्यात पर भी 50 फीसदी का शुल्क लगाया गया है, जो भारत के बराबर है। दरअसल ट्रंप मानते हैं कि उनके दोस्त और ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो पर राजनीतिक कारणों से गलत मुकदमा चलाया जा रहा है।
भले ही ट्रंप के इन मनमाने तरीकों से हर जगह लोग नाराज हैं और उनके फैसलों पर टीका-टिप्पणी कर रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि ट्रंप इस टैरिफ की लड़ाई में जीत रहे हैं। जब उन्होंने ‘बराबरी का शुल्क’ लगाने की घोषणा की थी तब विश्लेषकों ने अनुमान लगाया था कि दूसरे देश भी अमेरिका के निर्यात पर शुल्क लगाकर जवाबी कार्रवाई करेंगे, जिससे व्यापार युद्ध शुरू हो जाएगा और 1930 के स्मूट-हॉले टैरिफ की तरह सबका नुकसान होगा, जिसके कारण महामंदी की स्थिति बनी थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ है। ब्रिटेन, जापान, वियतनाम, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया और फिलिपींस जैसे देशों ने ट्रंप की बात मान ली और एकतरफा व्यापार समझौते कर लिए हैं। यहां तक कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लिहाज से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यूरोपीय संघ (ईयू) ने भी अपने हाथ खड़े कर लिए।
ईयू की प्रमुख उर्सुला वॉन डेर लेयेन, ट्रंप के स्कॉटलैंड स्थित गोल्फ कोर्स पर उनसे मिलने गईं ताकि कोई व्यापार समझौता हो सके। ट्रंप ने उन्हें तब तक इंतजार करवाया जब तक उन्होंने और उनके बेटे ने गोल्फ का दूसरा राउंड खत्म नहीं कर लिया। इसके बाद, उन्होंने लेयेन को अपने आलीशान घर का दौरा करवाया और अपने बॉल रूम की शान-शौकत के बारे में शेखी बघारी। लेयेन ने ट्रंप की तारीफ करते हुए कहा, ‘आप एक सख्त वार्ताकार लेकिन बातचीत को सफलता की ओर ले जाने वाले व्यक्ति हैं।’ ट्रंप ने कहा, ‘लेकिन मैं न्यायपूर्ण तरीके से यह सब करता हूं।’ इस पर लेयेन ने भी सहमति जताई।
इसके बाद अमेरिका-ईयू व्यापार समझौते की घोषणा हुई। इस करार के तहत, ईयू से अमेरिका को निर्यात होने वाले सामानों पर 15 फीसदी का टैरिफ लगेगा जबकि ईयू अमेरिका से आने वाले औद्योगिक सामानों पर सभी टैरिफ हटा लेगा। हालांकि, ईयू से अमेरिका जाने वाले स्टील, एल्युमीनियम और तांबे पर 50 फीसदी का टैरिफ बना रहेगा। इसके अलावा, ईयू ने अगले तीन वर्षों में अमेरिका से 750 अरब डॉलर की ऊर्जा खरीद करने और राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका में 600 अरब डॉलर का निवेश करने का वादा किया है। दूसरे विश्व युद्ध की शब्दावली में कहें तो यह एक ‘बिना शर्त वाला समर्पण’ है।
ट्रंप के आलोचकों ने उनके संरक्षणवाद की नीति के भयानक परिणामों के प्रति चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि अमेरिका में महंगाई बढ़ेगी, विकास दर कम होगी और शेयर तथा बॉन्ड बाजार में गिरावट देखी जाएगी। साथ ही, वैश्विक अर्थव्यवस्था भी ध्वस्त हो जाएगी। लेकिन इनमें से कोई भी भविष्यवाणी सच नहीं हुई। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने जुलाई 2025 में अपने वैश्विक अर्थव्यवस्था के अपडेट में इस वर्ष के लिए वृद्धि दर का अनुमान अप्रैल 2025के अनुमान से 0.2 फीसदी अंक बढ़ाकर 3 फीसदी कर दिया है। यह वही दर है जिस पर 2011 से वैश्विक अर्थव्यवस्था बढ़ रही है। जहां तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वृद्धि की बात है, तो आईएमएफ ने अप्रैल के 1.5 फीसदी के अनुमान से इसे बढ़ाकर 1.9 फीसदी कर दिया है। इससे तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि ट्रंप की नीतियों से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कोई नुकसान हो रहा है।
अमेरिकी शेयर बाजार पिछले पांच साल के रिकॉर्ड स्तर के करीब है। सरकारी बॉन्ड पर मिलने वाली यील्ड जनवरी 2025 की तुलना में कम है जब ट्रंप ने पद संभाला था, और यह 2023 तथा 2024 के बॉन्ड यील्ड के अनुरूप है। इसके अलावा जून में मुद्रास्फीति बढ़कर 2.7 फीसदी हो गई जो कि उतनी परेशानी वाली बात नहीं है जितना अनुमान लगाया गया था।
अब विश्लेषक हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि चीजें इतनी अलग क्यों हैं। मुद्रास्फीति कम क्यों है? उनका कहना है कि अमेरिकी आयातकों ने ऊंचे टैरिफ के डर से पहले ही बहुत सारा सामान जमा कर लिया था इसलिए टैरिफ बढ़ने का असर अभी मुद्रास्फीति पर नहीं हुआ है। यह बात मौजूदा मुद्रास्फीति के लिए सही हो सकती है, लेकिन सवाल यह है कि फॉरवर्ड लुकिंग बॉन्ड के लिए यील्ड क्यों नहीं बढ़ी? ट्रंप के आलोचक जानबूझकर मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में तेल कीमतों की भूमिका को नजरअंदाज कर रहे हैं। ब्रेंट क्रूड तेल की कीमतें, एक साल पहले की तुलना में कम से कम 8 डॉलर कम हैं और ट्रंप इन्हें और भी नीचे लाना चाहते हैं।
इसके अलावा एक सवाल यह भी है कि वित्तीय बाजार में हलचल क्यों नहीं हुई? इसकी वजह यह है कि बाजारों ने बहुत ऊंचे टैरिफ की उम्मीद की थी और अब जो टैरिफ का स्तर तय हुआ है, उससे उन्हें राहत मिली है। लेकिन अभी का शुल्क स्तर ट्रंप के पद संभालने से पहले के स्तर से सात गुना ज्यादा है! शेयर कीमतें इतनी ऊंची क्यों हैं? इसका कारण आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) को लेकर मची होड़ है। लेकिन एआई के बारे में इस होड़ के बारे में तब भी पता था जब विश्लेषक हमें आगाह कर रहे थे कि ट्रंप शुल्क से शेयर की कीमतों में भारी गिरावट आएगी।
‘द इकॉनमिस्ट’ पत्रिका ने ट्रंप की नीतियों की कड़ी आलोचना की थी और इनके खराब नतीजों की चेतावनी दी थी। अब जब वैसी कोई खतरनाक स्थिति नहीं देखी गई है तब इसके लिए उसने एक नया स्पष्टीकरण पेश किया है।
पत्रिका का तर्क है कि आज वैश्विक अर्थव्यवस्था में झटकों को सहने की क्षमता बेहतर है और इसके कई कारण हैं। आपूर्ति श्रृंखला पहले से ज्यादा कुशल और मजबूत हो गई हैं। तेल की कीमतों में बदलाव का असर अब कम होता है क्योंकि ऊर्जा के कई और स्रोत उपलब्ध हैं। कंपनियां झटकों से निपटना सीख गई हैं, सेवा क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में झटकों के प्रति कम संवेदनशील है और सरकारें भी अर्थव्यवस्था को झटकों से बचाने के लिए तुरंत कदम उठाती हैं। यानी, पूंजीवाद ने एक ऐसी लचीली अर्थव्यवस्था तैयार की है जिस पर कुछ ज्यादा असर नहीं होता है। यह विश्लेषण दरअसल एक सवाल खड़ा करता है, अगर वैश्विक अर्थव्यवस्था इतनी लचीली है, तब इकॉनमिस्ट ने ट्रंप की नीतियों के नकारात्मक प्रभावों के बारे में इतनी चिंता क्यों जताई थी?
जहां तक ट्रंप का सवाल है, उनके टैरिफ से सरकार को ज्यादा राजस्व मिल रहा है, और अमेरिकी उद्योगों को संरक्षण मिल रहा है। साथ ही विदेशी कंपनियां अमेरिका में निवेश करने के साथ ही उत्पादन भी कर रही हैं। यह सब वित्तीय बाजारों को अस्थिर किए बिना हो रहा है। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि ट्रंप पर आलोचनाओं का कोई असर नहीं हो रहा है। ट्रंप खुद को एक विजेता मानते हैं, शिकायत करने वाला नहीं और यह कोई छोटी बात नहीं है।