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नई विश्व व्यवस्था में भारत के कदम

विकसित भारत के लिए देसी बाजार पर ध्यान केंद्रित करना होगा निर्यात पर नहीं। समझा रहे हैं

Last Updated- February 20, 2025 | 10:26 PM IST
ECONOMY

अर्थशास्त्री यह ध्यान दिलाने से कभी नहीं चूकते कि निर्यात में मजबूत तेजी के बगैर कोई भी अर्थव्यवस्था 7 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर बरकरार रखने में कामयाब नहीं रही है। मगर यह वैश्वीकरण के दौर की बात है जब विश्व व्यापार पूरे उफान पर था। वह दौर अब बीत चुका है।
2024-25 की आर्थिक समीक्षा स्पष्ट शब्दों में कहती है, ‘दुनिया भर में नीतियों का केंद्र बदल गया है और अब नीतियां बनाते समय देश के भीतर उद्योगों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। मुक्त व्यापार, पूंजी तथा तकनीक की बेरोकटोक आवाजाही वाली वैश्वीकृत दुनिया से साझा फायदों के वायदे और नियमों की पवित्रता का दौर शायद अतीत बन गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है मगर हकीकत है।’ भू-राजनीतिक विभाजन और वैश्वीकरण की उलटबांसी पिछले कुछ साल में साफ देखा जा सकती है। डॉनल्ड ट्रंप के पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से पहले ही यह विभाजन शुरू हो चुका था। ट्रंप ने दूसरे कार्यकाल में इस विभाजन को इस कदर तेज करने की ठानी है, जिसकी कल्पना भी कोई नहीं कर सकता।

बहरहाल निर्यात अगर वृद्धि का इंजन नहीं हो सकता तो भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 8 फीसदी सालाना दर से कैसे बढ़ेगा, जबकि 2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य हासिल करने के लिए ऐसा होना जरूरी है। समीक्षा इसका जवाब देती है: भारत को देश के भीतर के बाजारों पर अधिक निर्भर रहना होगा और निर्यात पर कम। तभी आने वाले वर्षों में वृद्धि को गति मिल सकेगी। परंतु बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे 8 फीसदी सालाना वृद्धि दर वाकई हासिल हो सकेगी?

आने वाले सालों में दो कारणों से अंतर्मुखी या देश के भीतर की ओर रुझान बना रहेगा। पहली वजह है विश्व व्यापार में आता धीमापन। शुल्क तो हर जगह कम हुए हैं मगर देशों ने शुल्क के अलावा दूसरी बाधाएं तैयार कर दी हैं, जो व्यापार में अड़चन डालती हैं। आज व्यापार की राह में मौजूद तकनीकी बाधाओं का असर 31.6 फीसदी निर्यात उत्पादों पर पड़ता है, जिनकी विश्व व्यापार में 67.1 फीसदी हिस्सेदारी (दिसंबर 2024 तक) है। निर्यात से जुड़े उपायों का असर दुनिया में आयात-निर्यात किए जा रहे 31.2 फीसदी माल पर पड़ता है। इनमें से 26.4 को जलवायु से जुड़े शुल्केतर उपाय प्रभावित करते हैं। ट्रंप के वादे के मुताबिक शुल्क और दूसरे देशों की ओर से लगने वाले जवाबी शुल्क मुक्त व्यापार की राह में मौजूद अड़चनों को एकदम नए स्तर तक ले जा सकते हैं। समीक्षा में उस शोध का हवाला दिया गया है जो कहता है कि व्यापार के इस तरह बंटे होने से वैश्विक उत्पादन को जीडीपी के 0.2 से 7 फीसदी तक चोट झेलनी पड़ती है। यह आंकड़ा इस बात पर निर्भर करता है कि भू-राजनीतिक विभाजन कितना ज्यादा है।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का प्रवाह भू-राजनीतिक विभाजन को महसूस कराने वाला दूसरा रास्ता होगा। कंपनियां केवल उन देशों में एफडीआई करना चाहती हैं, जिनका भू-राजनीतिक तालमेल उनके अपने देश के साथ है। इसका खमियाजा उभरते हुए बाजारों और विकासशील देशों को उठाना पड़ेगा, जिन्हें पहले के मुकाबले कम एफडीआई मिल रहा है। चालू खाते के घाटे का बरदाश्त करने लायक स्तर – भारत में घाटे का स्तर, जिसकी भरपाई पूंजी प्रवाह से हो सकती है – अतीत की तुलना में कम रह सकता है। आयात में कटौती करने और आयात होने वाले सामान को देश के भीतर ही बनाने की यह भी एक ठोस वजह होगी।

भारत में घरेलू उत्पादन पर निर्भरता की तीसरी बड़ी वजह यह है कि हमें चीन पर निर्भरता कम करनी है। समीक्षा कहती है, ‘कई उत्पाद केवल एक ही जगह से मंगाए जाएंगे तो आपूर्ति श्रृंखला बिगड़ने, दाम ऊपर-नीचे होने और मुद्रा को जोखिम होने पर भारत के सामने खतरा आ सकता है।’

पिछली समीक्षा में चीन से और भी एफडीआई को अनुमति देने की बात कही गई थी ताकि वहां से हो रहे आयात पर निर्भरता कम की जा सके। इस बार की समीक्षा में यह बात शामिल नहीं है। चीन से एफडीआई बढ़ेगा तो चीन के साथ व्यापार घाटा कम हो सकता है मगर उस पर निर्भरता कम नहीं होगी। समीक्षा में देश के भीतर आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत बनाने और आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोत तलाशने की बात शामिल है चाहे वे स्रोत किफायती न हों। उसमें कहा गया है कि सबसे कम कीमत पर सामग्री लेकर निर्यात बाजार में होड़ करना ही हमेशा प्राथमिकता नहीं होती। आज के दौर में आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही तय किया जाता है कि कच्चा माल कहां से मंगाना है। यह विचार केवल भारत का ही नहीं है।

उदारीकरण के बाद के दौर में एक मंत्र यह रहा है कि संरक्षणवाद या उच्च शुल्क से वृद्धि को नुकसान पहुंचता है। मगर इस बार की समीक्षा कहती है कि संरक्षणवाद इतना बुरा भी नहीं है। चुने गए औद्योगिक समूहों द्वारा चुने गए क्षेत्रों में वृद्धि को बढ़ावा देने वाली औद्योगिक नीति का दौर एक बार फिर आ गया है।

लंबे अरसे तक हमसे कहा गया कि पूर्वी एशिया में चमत्कार औद्योगिक नीति के समझदारी भरे इस्तेमाल और निर्यात प्रतिस्पर्द्धा के जरिये हुआ। अब हमसे कहा जा रहा है कि यूरोप और अमेरिका का औद्योगिक महाशक्ति बनना उनकी औद्योगिक नीति का नतीजा भी हो सकता है। औद्योगिक नीति का मतलब हमेशा बाहरी वस्तुओं पर ऊंचा कर लगाना होता है। यह सब कहते हुए समीक्षा ट्रंप और उनके आर्थिक सलाहकारों की बात को ही दोहराती नजर आती है। लग रहा है कि आर्थिक नीति निर्माण में ऐसी क्रांति देखकर मुक्त व्यापार के बडे पैरोकार चुप्पी साध गए हैं।

दूसरे देशों की तरह भारत की आर्थिक नीति भी पिछले कुछ वर्षों से देसी उद्योगों पर केंद्रित होती जा रही है। विश्व व्यापार संगठन के आंकड़ों के मुताबकि भारत में औसत शुल्क दर 2016 में 13.4 फीसदी थी, जो 2023 में 17 फीसदी हो गई। सरकार ने मार्च 2020 में उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहनों की योजना (पीएलआई) पेश की, जिसका मकसद आयात पर ऊंचे शुल्क और सब्सिडी के जरिये देसी उत्पादन बढ़ाना था। भारत में देसी सामग्री के इस्तेमाल के नियम कहते हैं कि कुछ खास परियोजनाओं में एक खास सीमा तक देसी पुर्जे ही इस्तेमाल करने पड़ते हैं। साथ ही सरकारी खरीद में भी देसी उत्पादकों को तरजीह दी जाती है।

आलोचकों ने इन्हें सुधार विरोधी कदम कहा मगर ट्रंप की आज की बात सुनकर तो ये बहुत दूरदर्शी कदम लग रहे हैं। मुक्त बाजार के अलावा उदारीकरण के दौर में मूलभूत सुधार का अर्थ निजीकरण, जरूरत के मुताबिक भर्ती करना और निकालना तथा भूमि अधिग्रहण में आसानी होना है। इस बार की समीक्षा में इस पर ज्यादा कुछ नहीं कहा गया है। समीक्षा में ऊपर बताए क्षेत्रों के अलावा दूसरे क्षेत्रों में अधिक विनियमन पर ध्यान दिया गया है।

नियम-कायदों का बोझ कम होने से कंपनियां आसानी से कारगर निवेश कर पाएंगी। मगर निवेश बढ़ाने के लिए कम अनिश्चितता तथा उतार-चढ़ाव वाला माहौल जरूरी है। नियमन के बोझ ने भारतीय कंपनियों को 2004 से 2008 की वैश्विक तेजी के दौरान जमकर निवेश करने से नहीं रोका, जब दूर तक कारोबार उज्ज्वल नजर आ रहा था।

अब वैसा नहीं है। ट्रंप के दिमाग में अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और राजनीतिक माहौल की जो तस्वीर है, उससे हर जगह कारोबारी हालात स्थिर होने तक इंतजार करने की ही सोचेंगे। निवेशक देसी हों या विदेशी, नियमन घटाने से उनमें उत्साह नहीं आएगा। इस अनिश्चित समय में सरकार 2025-26 के लिए पूंजीगत व्यय को पिछले वित्त वर्ष के संशोधित अनुमानों से 10.1 फीसदी नहीं बल्कि और भी बढ़ाने की सोच सकती है।

First Published - February 20, 2025 | 10:19 PM IST

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