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एच-1बी वीजा पर ट्रंप का बड़ा फैसला: अमेरिका में भारत के खास दर्जे का बीता दौर!

वह समय बीत चुका है जिसमें भारत और भारतीय यह मान सकते थे कि अमेरिका उनके साथ विशेष व्यवहार करेगा। भारत अपवाद था मगर यह व्यवस्था खत्म हो गई है। बता रहे हैं मिहिर एस शर्मा

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मिहिर एस शर्मा   
Last Updated- September 22, 2025 | 10:00 PM IST

एच-1बी वीजा पर राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का नया ऐलान क्या भारत को निशाना बनाने के लिए उठाया गया एक और कदम है? आखिरकार, दो-तिहाई से अधिक एच-1बी वीजा भारतीयों को दिए जाते हैं और भारतीय कंपनियां इस वीजा के सबसे बड़े लाभार्थियों में शुमार हैं। शायद हां। एक नजरिये से ट्रंप के सभी कदम वास्तव में ऐसे लग रहे हैं कि जैसे वह भारत को जान-बूझकर निशाना बना रहे हैं। वह भारतीय वस्तुओं पर पहले ही 50 फीसदी शुल्क लगा चुके हैं। इस साल की शुरुआत में अमेरिका ने रेमिटेंस टैक्स यानी प्रेषण कर भी लगा दिया था जिसका बोझ वहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों पर पड़ सकता है। अमेरिका के पाकिस्तान के साथ संबंध भी बेहतर होते दिख रहे हैं, जबकि इसकी कोई ठोस वजह नहीं नजर आती। ट्रंप मंत्रिमंडल के कई सदस्यों ने भारत पर तल्ख टीका-टिप्पणी करने में कोई कोई कसर नहीं छोड़ी है।

एच-1बी वीजा पर ट्रंप के फैसले ने पिछले कुछ दिनों में सुर्खियां जरूर बटोरी हैं लेकिन इसके साथ ही दो अन्य घटनाक्रम भी हुए हैं। रिपब्लिकन पार्टी के सीनेट सदस्यों ने विशेष रूप से भारत से झींगा मछली के आयात पर 40 फीसदी शुल्क लादने के लिए एक विधेयक पेश किया। इसके अलावा अमेरिकी प्रशासन ने ईरान स्वतंत्रता और प्रसार-रोधी अधिनियम के तहत भारत को विशिष्ट रियायत देने का प्रावधान निलंबित करने का निर्णय लिया जिसका इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा था कि चाबहार बंदरगाह को प्रतिबंधों की जद से बाहर रख इसका निर्माण किया जा सके। यह रियायत भारत को 2018 में ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान दी गई थी। मगर अब हुए घटनाक्रम इस बात के संकेत हैं कि अमेरिका खासकर ट्रंप प्रशासन का रवैया भारत के प्रति कितना बदल गया है।

हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि अमेरिका बहुत कुछ कर सकता है। उदाहरण के लिए रूस में बनी सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली एस-400 की खरीद के लिए प्रतिबंध अधिनियम के माध्यम से अमेरिका के विरोधियों का मुकाबला (सीएएटीएसए) के पूर्ण प्रावधान भारत पर लागू किया जा सकते हैं। ऐसा उस स्थिति में हो सकता है जब भारत निकट भविष्य में अमेरिका से हथियार खरीद का कोई बड़ा सौदा नहीं करने का इरादा जताता है।

रिपब्लिकन पार्टी के कुछ सदस्य तो भारत पर ट्रंप से भी अधिक सख्त हैं। भारतीय सेवाओं के निर्यात पर शुल्क का खतरा भी मंडरा रहा है। व्हाइट हाउस के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने सुझाव दिया है कि आउटसोर्सिंग कारोबार के साथ भी वस्तुओं के आयात के समान नीतिगत व्यवहार किया जाना चाहिए। रिपब्लिकन पार्टी से एक और प्रस्ताव आया है जिसके तहत किसी अमेरिकी कंपनी या करदाता द्वारा किसी विदेशी व्यक्ति को भुगतान की गई धनराशि पर 25 फीसदी कर लगाया जाएगा, जिसका काम संयुक्त राज्य अमेरिका में उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाता है। इनमें से किसी भी प्रस्ताव के पारित होने से इस सोच को बल मिलेगा कि भारत कुछ कारणों से ट्रंप या उनकी पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन गया है।

इन स्थितियों पर विचार करने का एक और कम आत्म-केंद्रित तरीका है। दुनिया के कई देश इस बात की शिकायत कर रहे हैं कि ट्रंप की नीतियां उनके राष्ट्र को खास तौर पर निशाना बना रही हैं। ट्रंप तुर्किये के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन की मेजबानी करने वाले हैं मगर अर्दोआन के कई समर्थकों (भारतीयों की तरह ही) का मानना है कि व्हाइट हाउस उनके देश के हितों को नुकसान पहुंचा रहा है। वे भी अपना एक अलग विमर्श तैयार कर सकते हैं। उदाहरण के लिए तुर्किये को एफ-35 परियोजना से बाहर रखा गया है और उसे सीएएटीएसए के तहत रियायत से भी दूर रखा गया है। इसी तरह की सोच ब्राजील के लोगों में भी देखी जा रही है। ट्रंप ने ब्राजील पर भी 50 फीसदी शुल्क लगा दिया है। यहां तक कि दक्षिण कोरियाई लोगों को भी इसी तरह की सोच सता रही है जिनके इंजीनियरों को हाल में ही हथकड़ी लगाकर अमेरिका से निर्वासित कर दिया गया था।

क्या भारत वाकई यह दावा कर सकता है कि उसके साथ किया गया व्यवहार इन देशों के साथ किए गए व्यवहार से अलग है? मगर असली अंतर शायद इस बात में झलकता है कि भारत के लिए अन्य देशों की तुलना में खतरा कहीं अधिक है। सच्चाई यह है कि पिछले दो दशकों में अमेरिका के दोनों दलों में एक तरह की सहमति रही है कि भारत को विशेष तवज्जो दी जानी चाहिए। इस द्विदलीय समर्थन के कमजोर होने की स्थिति में अमेरिकी प्रशासन ब्राजील या तुर्किये के मुकाबले भारतीय हितों के खिलाफ काफी कुछ कुछ कर सकता है।

भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों पर जमी बर्फ राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में पिघलनी शुरू हुई थी लेकिन विशेष दर्जा उसे जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में मिलना शुरू हुआ था। बुश और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच हुए असैन्य परमाणु समझौते के पीछे उद्देश्य भारत को मिली विशेष तवज्जो को एक नए मुकाम तक पहुंचाना था। इस समझौते के बाद भारत अन्य सभी देशों से अलग व्यवहार किए जाने की उम्मीद कर सकता था और उसने ऐसी उम्मीद की भी। यह धारणा अब इस बात में सन्निहित है कि हम अमेरिका से कैसे संपर्क रखते हैं।

यही कारण है कि भारत अब भी एकमात्र ऐसा देश है जो यह मानता है कि ट्रंप प्रशासन एक ऐसे व्यापार प्रस्ताव को स्वीकार करेगा जिसमें अमेरिका निर्मित वस्तुओं पर शून्य शुल्क की बात शामिल नहीं होगी। यूरोपीय संघ (ईयू) ने अमेरिका से औद्योगिक वस्तुओं के आयात पर शुल्क समाप्त कर दिया, वियतनाम ने सभी शुल्क हटा दिए जैसा कि मलेशिया, जापान, इंडोनेशिया, थाईलैंड और कई लैटिन अमेरिकी देशों ने भी किया है। भारत को लग रहा था कि उसे विशेष दर्जा प्राप्त है इसलिए उसने इस तरह का वादा करने की आवश्यकता महसूस नहीं की। उस संदर्भ में देखा जाए तो क्या यह पूरी तरह आश्चर्य की बात है कि ट्रंप ने भारत पर दूसरे देशों की तुलना में बहुत अधिक शुल्क लगा दिया है?

भारत के साथ विशेष व्यवहार से उसकी कंपनियों को भी फक्र महसूस हो रहा था। अमेरिका में काम करने वाली आउटसोर्सिंग इकाइयों ने यह मान लिया कि उनका ओहदा काफी ऊंचा हो गया है इसलिए उन्होंने अमेरिका में अपने खिलाफ इस बात पर बढ़ते गुस्से को नजरअंदाज कर दिया कि वे भारतीय कर्मचारियों के हित को अधिक बढ़ावा दे रही हैं और दूसरों के साथ भेदभाव कर रही हैं। कॉग्निजेंट एक ऐसे फैसले के खिलाफ अपील कर रही है जिसमें उस पर गैर-भारतीय कर्मचारियों के खिलाफ जानबूझकर भेदभाव करने का आरोप है।

विप्रो, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेस (टीसीएस) और अन्य के खिलाफ विभिन्न रोजगार-कानून संबंधी मामले न्यायालय तक पहुंच गए हैं और टीसीएस के खिलाफ अमेरिकी समान रोजगार अवसर आयोग में जांच चल रही है। अमेरिकी अधिकारी लंबे समय से यह शिकायत करते रहे हैं कि एच-1बी लॉटरी पर स्टाफिंग या आउटसोर्सिंग कंपनियों का प्रभुत्व स्वाभाविक नहीं है और यह प्रवृ​त्ति इसके मूल उद्देश्य को विकृत करती है।

ऐसा लग सकता है कि भारत और भारतीय आईटी क्षेत्र दोनों को एक ऐसे प्रशासन द्वारा निशाना बनाया जा रहा है जो उनसे नफरत करता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि वर्तमान अमेरिकी प्रशासन को सभी ‘विदे​शियों’ से नफरत हो और भारत को पहले से इतनी अधिक रियायत मिली हो कि इनमें से एक अहम हिस्से को हटाने से ऐसा लग रहा हो कि उसे जान-बूझकर निशाना बनाया जा रहा है।

यह भी हो सकता है कि ट्रंप ने वास्तव में भारत के खिलाफ अभियान शुरू किया हो। इसका पता हमें आने वाले महीनों में निश्चित रूप से लग जाएगा। अगर वह ऐसा नहीं कर रहे हैं तब भी एक बात निश्चित है कि वे दशक जिनमें भारत और भारतीय यह मान सकते थे कि उन्हें अमेरिका से विशेष व्यवहार मिलेगा अब बीते समय की बात हो चुके हैं। भारत एक अपवाद था मगर यह व्यवस्था अब खत्म हो गई है, कम से कम अमेरिका के मामले में यह सच है। हमें शायद इस तरह के विशेषाधिकार हासिल करने के लिए अन्य देशों, उदाहरण के लिए यूरोप की तरफ देखना चाहिए जिसने इस सप्ताह भारत को लेकर एक विशिष्ट नीति की शुरुआत की है जो बहुत कुछ उस तरह दिखती है जैसी पहले अमेरिका में भारत को लेकर बनी द्विदलीय सहमति के दौरान हुआ करती थी।

First Published : September 22, 2025 | 9:55 PM IST