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श्रम भागीदारी दर में गिरावट से जूझता भारत

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 10:40 PM IST

बेरोजगारी दर में तेजी या श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) में कमी की एक सीमा होनी चाहिए। भारत में रोजगार मोटे तौर पर अनौपचारिक किस्म का है और वेतन भी काफी कम दिए जाते हैं इसलिए लोग बिना रोजगार के नहीं रह सकते या लंबे समय तक श्रम बाजार से दूर नहीं रह सकते हैं। अनौपचारिक रोजगार में अनिवार्य बचत का प्रावधान नहीं होता है और वेतन कम रहने से व्यावहारिक बचत भी नहीं हो पाती है। अगर लोग बचत नहीं कर सकते तो बैठे रहने से रोजमर्रा की जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाएंगे।
रोजगार में लगे लोगों में केवल 20 प्रतिशत वेतनभोगी श्रेणी में आते हैं। केवल इन्हीं लोगों से नियमित रूप से बचत करने की उम्मीद की जा सकती है। 50 प्रतिशत से अधिक स्व-रोजगार में लगे हैं और शेष दैनिक मजदूरी करने वाले हैं। सीएमआईई के कंज्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे के अनुसार जून 2021 में भारत में माध्य मासिक बचत करीब 15,000 रुपये और खपत के मद में होने वाला व्यय करीब 11,000 रुपये था। कुल मिलाकर देश की आधी आबादी इतना नहीं कमाती है कि अधिक बचत कर पाएं। इस वजह से ऐसे लोग श्रम बाजार से एक लंबे समय तक दूर नहीं रह सकते हैं।
भारत में लोग बेरोजगार रहने का बोझ नहीं सह सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो देश की एक बड़ी आबादी भूखी रह सकती है इसलिए विवश होकर उन्हें किसी न किसी रोजगार का हिस्सा बनना पड़ता है। इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच पाते हैं कि हाल तक बेरोजगारी दर करीब 4 प्रतिशत क्यों थी जब आय एवं बचत दरें काफी कम थीं। मगर बेरोजगारी दर अब 7 से 8 प्रतिशत के स्तर पर काफी अधिक है और पिछले कुछ वर्षों में श्रम भागीदारी में भी नाटकीय गिरावट आई है। 2016 में श्रम भागीदारी दर 46 प्रतिशत से अधिक थी जो 2021 में कम होकर लगभग 40 प्रतिशत रह गई है। बिना भूख और तंग माली हालत के बगैर यह कमी संभव कैसे हुई?
हम इस दुखद हालात को समझने का प्रयास करते हैं और इस प्रक्रिया में नए जोखिम का भी आकलन करते हैं। हमारा दृष्टिकोण काफी सरल है। हम विवशता एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में घिरने की आशंका को समझने के लिए व्यक्ति के बजाय एक इकाई के रूप में परिवार पर विचार करते हैं। मोटे तौर पर एक इकाई के तौर पर परिवार ही विवशता का सामना करता है और उसे ही प्रतिकूल परिस्थितियों में घिरने की आशंका कम करने की चुनौती से जूझना पड़ता है।
जीवन-यापन करने के लिए किसी परिवार में कम से कम एक सदस्य का कमाऊ होना जरूरी है। एक से अधिक सदस्य का कमाऊ होना भी जरूरी नहीं है। वर्ष 2016 से एलपीआर में गिरावट के साथ उन परिवारों की संख्या में भी कमी आई है जिनमें एक से अधिक सदस्य रोजगार में लगे थे। यह स्पष्ट है कि एलपीआर में गिरावट मोटे तौर पर किसी परिवार में ‘अतिरिक्त’ सदस्य के कमाऊ होने और उसकी नौकरी जाने के कारण आई है।
जिन परिवारों में एक से अधिक कमाने वाले सदस्य थे उनका अनुपात 2016 के 34.7 प्रतिशत से फिसल कर 2017 में 32.3 प्रतिशत रह गया और फिर इससे भी कम होकर 2018 में 30.1 प्रतिशत रह गया। 2019 में यह और कम होकर 28.4 प्रतिशत पर आ गया। 2020 में ऐसे परिवारों का अनुपात और कम होकर 24.2 प्रतिशत रह गया। मगर अप्रैल में जब देश में लॉकडाउन लगाया गया था तब यह अनुपात और कम होकर 17.6 प्रतिशत रह गया। 2021 के पहले 11 महीनों में यह अनुपात 24 प्रतिशत रहा था।
इस तरह एक से अधिक कमाऊ सदस्यों वाले परिवारों अनुपात 2016 के करीब 35 प्रतिशत से कम होकर  2021 में 24 प्रतिशत रह गया। इसी दौरान केवल एक कमाऊ सदस्य वाले परिवारों की संख्या 2016 के 59 प्रतिशत से बढ़कर 2021 के पहले 11 महीनों में 68 प्रतिशत हो गई। ये आंकड़े बताते हैं कि क्यों पिछले पांच वर्षों से भारत में श्रम भागीदारी दर लगातार कम हो रही है।
मगर इससे कई प्रश्न भी खड़े हो रहे हैं। आखिर किन कारणों से ऐसे नतीजे सामने आते हैं? क्या परिवार श्रम बाजार से अपने कमाऊ सदस्य को वापस बुला लेते हैं या वे श्रम बाजार में अतिरिक्त सदस्य नहीं भेजते हैं?
एक कारण यह हो सकता है कि वेतन काफी कम रहने से श्रम बाजार में एक ही व्यक्ति का रहना मुनासिब है और दूसरा घर पर ही रहे तो बेहतर है। यह प्रश्न शिक्षाविदों के शोध का विषय हो सकता है। वे आंकड़ों की गहन पड़ताल कर सारी बातें स्पष्ट कर सकते हैं।
एक और अफसोसनाक बात हाल के दौरान देखने को मिली है। ऐसे परिवारों की तादाद में इजाफा हुआ है जिनमें एक भी सदस्य कमाऊ नहीं है। कोविड-19 महामारी से पहले करीब छह प्रतिशत परिवारों से कोई भी व्यक्ति श्रम बाजार का हिस्सा नहीं था। स्पष्ट है कि ये सर्वाधिक संवेदनशील परिवार थे। 2020 में यह अनुपात बढ़कर 11 प्रतिशत हो गया। अप्रैल 2020 में देश में लॉकडाउन के दौरान 33 प्रतिशत परिवारों में कोई भी व्यक्ति रोजगार से नहीं जुड़ा था। मई 2020 में यह अनुपात 25 प्रतिशत रहा और जून 2020 में 12 प्रतिशत हो गया।
यह अनुपात कभी कोविड महामारी से पूर्व की स्थिति में नहीं पहुंचा। दूसरी लहर के बाद जुलाई से नवंबर 2021 तक औसतन 7.8 प्रतिशत परिवारों में कोई भी सदस्य कमाऊ नहीं था। केवल एक कमाऊ सदस्य वाले परिवार संवेदनशील कहे जा सकते हैं। इनका अनुपात बढ़ रहा है। इसके साथ ही बिना किसी कमाऊ सदस्य वाले अति संवेदनशील परिवारों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।
(लेखक सीएमआईई के प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी हैं)

First Published : December 23, 2021 | 11:07 PM IST