अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप वास्तव में यही मानते हैं कि उच्च आधार शुल्क उनके देश की कामयाबी के लिए आवश्यक है। हालांकि वे शायद उस ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाएंगे जिसकी धमकी उन्होंने अप्रैल के आरंभ में अपने चर्चित संवाददाता सम्मेलन में दी थी और एक चार्ट दिखाते हुए अतार्किक रूप से ऊंची शुल्क दरों की बात कही थी। उन धमकियों का बहुत मामूली हिस्सा ही प्रभावी हो पाया। परंतु येल बजट लैब का आकलन है कि अमेरिकी उपभोक्ता अब 20 फीसदी के समग्र प्रभावी टैरिफ दर का सामना कर रहे हैं। यह एक सदी का सबसे ऊंचा स्तर है।
अगले एक-दो साल में यह बदल जाएगा। ट्रंप द्वारा व्यापार समझौतों पर बातचीत के लिए दी गई विभिन्न समय सीमाएं समाप्त होने के बाद देशों पर अतिरिक्त शुल्क अंतिम रूप से लागू होने के बाद इसमें वृद्धि होगी। साथ ही कुछ देशों को छूट मिलेगी और उपभोक्ता उच्च शुल्क वाले आयात से दूर हो जाएंगे तो इसमें कमी आएगी।
कुछ रुझान पहले ही अमेरिका के भीतर सापेक्षिक कीमतों में नजर आने लगे हैं। कुल कीमतों का स्तर जहां उम्मीद के मुताबिक बहुत नहीं बढ़ा है वहीं उपभोक्ताओं को कुछ वस्तुओं के लिए 40 फीसदी तक अधिक भुगतान करना पड़ रहा है। इनमें जूते और कपड़े भी शामिल हैं। ये आम तौर पर अमेरिका के बाहर विकासशील देशों में बनते हैं और ट्रंप की शुल्क योजनाओं ने इस पर बहुत असर डाला है।
यह ध्यान देने वाली बात है कि अधिकांश विकासशील देशों ने ट्रंप की शुल्क संबंधी धमकी को लेकर बातचीत करने की कोशिश की लेकिन उनको सीमित कामयाबी मिली। उदाहरण के लिए फिलिपींस को अमेरिका को किए जाने वाले निर्यात के मामले में 19 फीसदी की आधार दर पर सहमत होना पड़ा, जबकि फिलीपींस आने वाली अमेरिकी वस्तुओं पर कोई शुल्क नहीं लगेगा। इंडोनेशिया ने भी ऐसे ही पैकेज पर सहमति दी है। कई देशों खासकर दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों ने भी शायद आकलन के साथ जोखिम उठाया हो। उनकी जरूरत है अमेरिका को होने वाले अपने निर्यात राजस्व को बचाना। शायद उनको यह अंदेशा है कि अगर उन पर भी समान शुल्क दरें लागू होती हैं तो यह राजस्व कम तो हो सकता है, लेकिन समाप्त नहीं। वे यह मान सकते हैं कि शुल्क लागू होने के बाद उनके निर्यात को घरेलू अमेरिकी उत्पादकों या कम कर दर पर सफलतापूर्वक बातचीत करने वाले अन्य देशों से किसी प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ेगा। इसकी वजह यह है कि इनमें विकासशील अर्थव्यवस्थाएं बहुत कम होंगी क्योंकि कम दरें ज्यादातर उन अमीर देशों पर लागू होती हैं जिनका अमेरिका के साथ व्यापार घाटा है। उदाहरण के लिए ग्रेट ब्रिटेन। ऐसे हालात में उन्हें उच्च घरेलू कीमतों के कारण अमेरिकी मांग में कमी का सामना करना पड़ता है, लेकिन वे बाजार में अपनी हिस्सेदारी पूरी तरह नहीं खोएंगे।
एक क्षण के लिए उच्च शुल्क से जुड़ी नैतिकताओं और अर्थशास्त्र को एक तरफ रख देते हैं। उन देशों को दंडित करना अनुचित हो सकता है जिन्होंने अमेरिकी बाजार के साथ सबसे प्रभावी ढंग से तालमेल बनाया है और इस वजह से व्यापार घाटा हो रहा है। यह उम्मीद करना सही नहीं होगा कि एक गरीब देश, अमीर देश के साथ व्यापार घाटा उठाए। इसके बजाय आइए उस मूल धारणा पर ध्यान केंद्रित करें कि जो कुछ विकासशील देश निर्मित कर रहे हैं। वे अपने निर्यात राजस्व को कुछ हद तक सुरक्षित रख पाएंगे जब तक कि उनके उभरती अर्थव्यवस्था वाले समकक्षों को ज्यादा बेहतर सौदे नहीं मिलते। क्या यह धारणा सही है? उदाहरण के लिए क्या जूतों और कपड़ों का विनिर्माण जिनकी कीमतों में भारी उछाल आई है, वापस अमेरिका में स्थानांतरित हो जाएगा? कई और सवाल भी हैं। पहला, क्या यह ट्रंप प्रशासन का इरादा है, क्या ऐसा संभव भी है? तीसरा, अगर यह संभव है तो क्या यह अच्छी बात है?
पहला सवाल जो इरादे के बारे में है, दुर्भाग्य से उसका कोई उत्तर नहीं है। व्यापार नीति को लेकर अमेरिकी प्रशासन के भीतर व्यापक मतभेद दिखता है। वरिष्ठ सलाहकार पीटर नवारो की तरह कई लोग उच्च शुल्क दर पर यकीन करते हैं। परंतु जो लोग थोड़े नरम भी हैं, मसलन वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लटनिक जैसे लोग भी अतीत में कह चुके हैं कि टीशर्ट, स्नीकर्स और टॉवेल आदि एक बार फिर अमेरिका में बनने लगेंगे। हालांकि, राष्ट्रपति ट्रंप स्वयं कह चुके हैं, ‘हम स्नीकर्स और टीशर्ट बनाने नहीं जा रहे हैं। हम सैन्य उपकरण बनाना चाहते हैं। हम बड़ी चीजें बनाना चाहते हैं, चिप व कंप्यूटर और टैंक व युद्धपोत बनाना चाहते हैं।’ अगर ऐसा है तो यह स्पष्ट नहीं है कि वस्त्रों पर क्या टैरिफ लागू किया जाएगा।
दूसरा सवाल, क्या कपड़ा या परिधान उत्पादन का काम वापस अमेरिका लाया जा सकता है। यकीनन कुछ कम मार्जिन वाली चीजों की वापसी संभव है। टीशर्ट का ही उदाहरण लें तो इसमें बहुत कम अमेरिकी विनिर्माता हैं। अगर आयात की जगह अमेरिका में निर्माण शुरू हुआ तो उपभोक्ताओं को अतिरिक्त कीमत चुकानी होगी। प्रति यूनिट कम से कम 8 डॉलर की अतिरिक्त लागत आएगी। यह बुनियादी लागत में उल्लेखनीय वृद्धि है जिसे वहन करना आसान नहीं होगा। इसके अलावा बड़े पैमाने पर विनिर्माण में वृद्धि हासिल करने में मुश्किल होगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कम वेतन वाले श्रमिकों की आपूर्ति में बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है। इसके साथ ही बाहरी कपड़ों और उत्कृष्ट जूतों जैसे स्तरीय उत्पादों में भी अड़चन आएगी जहां अमेरिका के पास आवश्यक सिलाई की क्षमता नहीं भी हो सकती है।
अगर मान लिया जाए कि इन बाधाओं को दूर कर लिया जाता है तो क्या यह अच्छी बात होगी? ये कोई बहुत अच्छे रोजगार नहीं हैं। अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन ने चेतावनी दी है कि अमेरिकी सरकार दरअसल ‘स्वेटशॉप्स’ को दोबारा महान बनाना चाहती है। उनका इशारा मेहनती कामकाज की ओर था। इस चेतावनी में दम है। निश्चित तौर पर जूता और वस्त्र उद्योग के अमेरिका से बाहर जाने पर देश के कुछ हिस्सों पर असर पड़ा। 20वीं सदी के अंत में ये रोजगार कुछ कस्बों के आसपास सीमित थे। हालांकि वे पहले ही न्यूयॉर्क जैसे शहरों से बाहर जा चुके थे। एक समय ऐसा भी था जबकि वहां वस्त्र उद्योग में करीब 5 लाख लोग काम करते थे। परंतु जरूरी नहीं कि उन कस्बों के युवा वही काम करना चाहें जो उनके दादा-परदादा करते थे। न ही इन युवाओं को कम मूल्य वर्धन वाली नौकरियों में धकेलना, उनकी वेतन वृद्धि या अमेरिका की वृहद उत्पादकता के नज़रिये से अच्छी बात होगी।
तो इंडोनेशिया और अन्य देश अपनी बाजी हार सकते हैं। कुछ कम मार्जिन वाले क्षेत्र अमेरिकी उत्पादन को कुछ हद तक बढ़ा सकते हैं। परंतु मुझे संदेह है कि अमेरिकी उपभोक्ता या कर्मचारी इस कामयाबी से प्रसन्न होंगे।