सन 1947 में भारत की आजादी के बाद से ही उसे सामरिक परिदृश्य के मामले में अदूरदर्शी बताया गया है। अमेरिकी थिंकटैंक रैंड कॉर्पोरेशन के जॉर्ज टैनम ने सन 1992 में कहा था कि देश में सामरिक संस्कृति का अभाव है क्योंकि उसे कभी अपने अस्तित्व के संकट से नहीं जूझना पड़ा।
जाहिर है टैनम मध्य एशिया से छह सदियों तक बार-बार हुए आक्रमणों या 1398 में तैमूर के हमले या 200 सालों के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से बिल्कुल प्रभावित नहीं थे जिन्होंने भारत को एक समृद्ध देश से गरीब देश में बदल दिया। यह भी सही है कि अगर देश का राजनीतिक नेतृत्व दीर्घकालिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति तैयार नहीं करता है तो देश के सामने तमाम सुरक्षा चुनौतियां आएंगी। चीन की नीति इसका उदाहरण है।
आजादी के बाद के 15 वर्षों में भारत ने बार-बार चीन के सुझाव को नकारा जिसमें उसने कहा था कि हमें आपसी सहमति से भारत-चीन सीमा का निर्धारण करना चाहिए। इसका नतीजा 1962 में जंग के रूप में सामने आया। दूसरी अहम वजह थी तिब्बत पर भारत के प्रभाव को लेकर चीन की संवेदनशीलता। खासतौर पर युवा दलाई लामा का प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रति प्रशंसा भाव।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन माओ त्सेतुंग तिब्बत को लेकर नेहरू के इरादों के प्रति पहले ही शंका रखते थे और जब 1959 में ल्हासा में चीन के हमले के बाद दलाई लामा तथा हजारों तिब्बती शरणार्थियों ने भारत में शरण ली तो उनकी नाराजगी और बढ़ गई। यह सन 1962 की जंग की एक प्रमुख वजह थी।
तब से अब तक चीन की सेना का आक्रामक व्यवहार चीन की इस आंतरिक धारणा से संचालित होता है कि तिब्बत को लेकर भारत के इरादे ठीक नहीं हैं। तब से अब तक के 65 वर्षों में चीन एक बड़ी औद्योगिक, वैज्ञानिक, तकनीक और सैन्य शक्ति बन चुका है जो अधिकांश देशों को परेशान करता है, मानो तिब्बत कोई मसला ही न हो। इसके साथ ही दलाई लामा ने दुनिया भर में प्रतिष्ठा हासिल की है और वह धार्मिक और राजनीतिक दमन के खिलाफ प्रतिरोध का उदाहरण बने हैं।
विश्व समुदाय का अधिकांश हिस्सा दलाई लामा को लेकर चीन के रुख के आगे झुकता है और तमाम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से उनसे मिलने से डरते हैं कि कहीं चीन कुपित न हो जाए। भारत इकलौता देश है जो तिब्बत के शरणार्थियों को अपने यहां जगह देता है। उन्हें भारत में निर्वासित संसद बनाने की इजाजत दी गई। भारत में बौद्ध मॉनेस्ट्रीज का एक नेटवर्क बना जो तिब्बत की सेरा, ड्रेपंग और गैंडन आदि मॉनेस्ट्रीज को दर्शाती हैं।
भारत में रहने वाले 65,000 से अधिक तिब्बती शरणार्थियों में से कई चीन के खिलाफ सैन्य सेवा में स्वेच्छा से मदद करते हैं। सिक्रेटिव स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) की सात बटालियन में मुख्य रूप से तिब्बती मूल के शरणार्थियों के वंशज ही हैं जो सन 1950 के दशक में चीन के प्रकोप से भारत आ गए थे।
2020 की गर्मियों में पूर्वी लद्दाख में इन जवानों ने अपनी काबिलियत भी दिखाई और पैंगॉन्ग झील के दक्षिण में अहम पहाड़ियों पर कब्जा किया। इसकी ताकत लगभग एक इन्फैंट्री डिविजन की है जिसमें हल्के अमेरिकी हथियारों से लैस पैराट्रूपर शामिल हैं जिन्हें चीन की सेना के सीमावर्ती मोर्चों से दूर उतारा जा सकता है जहां वे तिब्बत की आबादी को प्रेरित कर सकते हैं और चीन की सेना की लॉजिस्टिक आपूर्ति को रोक सकती है।
भारतीय सेना ने एक मैकेनाइज्ड स्ट्राइक कोर को माउंटेन स्ट्राइक कोर में बदला है और भारत की योजना चीनी सेना के जवानों को घेरने की है। ऐसा तिब्बती बोलने वाले एसएफएफ जवानों की सहायता से होगा जिन्हें छोटे समूहों में नियमित भारतीय टुकड़ियों के साथ रखा जाएगा। इससे भारतीय टुकड़ियों को जबरदस्त बढ़त हासिल होगी।
बहरहाल, भारत के रणनीतिक योजनाकारों ने ध्यान दिया होगा कि चीन पर ये सभी संभावित लाभ काफी हद तक एक ऐसे कारक पर निर्भर करते हैं जो काफी कमजोर है: 14वें दलाई लामा और उनका प्रेरक नेतृत्व। उनकी उम्र 87 वर्ष है और वह आशावादी अनुमान जता चुके हैं कि वह 113 वर्ष तक जिएंगे। दुनिया में ज्यादातर लोग इस असाधारण जीवन की संभावना का स्वागत करेंगे लेकिन तिब्बती शरणार्थी समुदाय और भारतीय नीति निर्माताओं में से अधिकांश ने बदलाव की तैयारी कर ली होगी।
चीन की सुरक्षा संभालने वालों ने पहले ही संकेत दे दिया है कि वे क्या करने वाले हैं- वे अपनी पसंद का उत्तराधिकारी चुनना चाहते हैं। पारंपरिक रूप से देखें तो दलाई लामा के निधन के बाद उनके पुनर्जन्म अवतार की तलाश होती है जो मृत दलाई लामा के कुछ संकेतों पर आधारित होती है।
14वें दलाई लामा ने यह साफ कर दिया है कि उनका उत्तराधिकारी भारत और भारत में रहने वाले तिब्बती शरणार्थियों के अनुकूल होगा। उन्होंने तीन विकल्प रखे हैं जिनमें से प्रत्येक पारंपरिक व्यवहार से अलग है। पहला, उनका अवतार तिब्बत के बाहर होगा, अब तक दो दलाई लामा तिब्बत के बाहर पैदा हुए हैं। दूसरा, दलाई लामा ने कहा है कि शायद वह जीवित रहते हुए अपने उत्तराधिकारी का चयन कर लें। अंत में उन्होंने अनुमान जताया है कि उनका उत्तराधिकारी एक महिला हो सकती है यानी पहली महिला दलाई लामा।
बहरहाल, चीन यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहा है कि 15वें दलाई लामा का नियंत्रण उसके पास हो। वह पहले ऐसा कर चुका है। 10वें पणछेन लामा, शिगस्ते की ताशी लुह्न्पो मॉनेस्ट्री के प्रमुख के निधन के बाद दलाई लामा ने घोषणा की थी कि गेधुन चोकेई नीमा नामक छह वर्षीय बच्चा अगला पणछेन लामा होगा।
तिब्बती बौद्धों का यह दूसरा सबसे प्रमुख धार्मिक गुरु होता है। उनकी घोषणा के तीन दिन बाद वह छोटा बच्चा गायब हो गया और तब से उसका पता नहीं चला। तिब्बत के भीतर चीन की सरकार ने कानून पारित करके कहा है कि सभी वरिष्ठ लामाओं को चीन की मंजूरी लेनी होगी।
भारत में तिब्बत अध्ययन समूह ने इस बात को अपने पक्ष में करने के लिए कोई खास कदम नहीं उठाए। ऐसे कई विकल्प हैं जो यह सुनिश्चित करते हैं कि अगला दलाई लामा अपने अनुकूल हो लेकिन उन विकल्पों को नहीं आजमाया गया। इस बीच शी चिनफिंग ने तिब्बत के सीमावर्ती गांवों को आदर्श गांव बनाना शुरू किया है। ये गांव लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा और अरुणाचल प्रदेश में मैकमोहन रेखा के निकट हैं। इससे इन इलाकों पर चीन की पकड़ मजबूत हो रही है।
भारत ने ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के साथ क्वाड को लेकर आधा-अधूरा कदम उठाया लेकिन हम अमेरिका को आश्वस्त नहीं कर सके जिससे अकुस की स्थापना हुई। ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका का यह समूह लड़ाई की स्थिति को लेकर बना है। आखिर में चीन पूर्वी लद्दाख में हमारी 1,000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर काबिज है जबकि भारत अभी प्रतीक्षारत ही नजर आ रहा है।