नीति निर्धारक बिजली सब्सिडी देने में अधिक पारदर्शिता बरतने लगे हैं। सरकारी खजाने से इस मद में दी जाने वाली सब्सिडी का भुगतान अब पहले की तुलना में काफी स्पष्ट एवं पारदर्शी हो गया है। यह बदलाव बिजली क्षेत्र की परंपरागत समस्याओं के निदान के लिए महत्त्वपूर्ण विकल्पों को बढ़ावा दे रहा है।
इस क्षेत्र में सरकारी नियंत्रण और त्रुटिपूर्ण नियमों का बेजा फायदा लेकर कुछ खास समूहों को सब्सिडी का भुगतान होता था, जिसमें पारदर्शिता का काफी अभाव हुआ करता था। अगर यह नई नीति आगे बढ़ाई जाए तो इससे एक ऐसे सक्षम बिजली क्षेत्र की राह प्रशस्त हो सकती है जो बाजार के सिद्धांतों पर आधारित होगा और पारदर्शी तरीके से सब्सिडी लाभार्थियों तक पहुंचने से राजनीतिक उद्देश्यों की भी पूर्ति भी हो पाएगी।
सबसे श्रेष्ठ उपाय तो यही होगा कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र की पूरी ताकत झोंक दी जाए और उसके बाद कर राजस्व का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाए। भारत में बिजली उन कई क्षेत्रों में एक है जिनमें सरकारी तंत्र का इस्तेमाल कर एक ऐसी कर और व्यय प्रणाली तैयार की जाती है जिसमें कुछ ग्राहकों से जरूरत से ज्यादा शुल्क लिया जाता है ताकि दूसरों को सब्सिडी दी जा सके।
ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर सभी कर एवं सभी व्यय केंद्र, राज्य या निगम स्तर पर बजट में समाहित किए जाएं तो उस स्थिति में नीतियों एवं उनके क्रियान्वयन की गुणवत्ता काफी बढ़ जाएगी। कराधान के अंतर्गत वाजिब कर (व्यक्तिगत आयकर, वस्तु एवं सेवा कर और जायदाद कर) लगाए जाएंगे और नुकसानदेह कर (व्यावसायिक एवं औद्योगिक बिजली उपभोक्ताओं पर कराधान का बोझ) धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे।
व्यय सटीक तरीके से होगा और इस तरह आर्थिक संसाधन का श्रेष्ठतम इस्तेमाल हो पाएगा। इससे सार्वजनिक संसाधनों एवं सब्सिडी के संबंधों में अधिक सार्थकता आएगी और समाज के उन खास समूहों की सटीक पहचान हो सकेगी जिन्हें वाकई सब्सिडी की आवश्यकता है। इसके अलावा, बिजली क्षेत्र में कर वसूलने और फिर उसका इस्तेमाल सब्सिडी देने में करने की व्यवस्था से पारदर्शिता एवं प्रतिस्पर्द्धा दोनों पर ही नकारात्मक असर होता है।
पुनर्वितरण के नाम पर त्रुटिपूर्ण व्यवस्था एवं अक्षमता की स्थिति लंबे समय तक खिंचती जाती है। बिजली क्षेत्र निजी नियंत्रण और मूल्य प्रणाली को बढ़ावा देने से बेहतर ढंग से काम कर पाएगा। मगर जो सुधार हमें इस दिशा में ले जाते, उन्हें यह कहते हुए रोक दिया गया है कि ये बिजली क्षेत्र के अंतर्गत चलने वाली कर एवं सब्सिडी योजना में हस्तक्षेप करते हैं। यह तर्क भी दिया जा रहा है कि सरकार नियंत्रित कंपनियों के साथ मिलकर बिजली क्षेत्र अधिक सुगमता से काम कर सकता है।
इसी संदर्भ में हमें तमिलनाडु, कर्नाटक और दिल्ली में चल रही बिजली सब्सिडी योजनाओं पर विचार करना चाहिए। नई धारणा यह बनी है कि सरकारी तंत्र में कंप्यूटरीकरण एक अभीष्ट स्तर तक पहुंच गया है जिसकी मदद से नीति निर्धारक एक सब्सिडी कार्यक्रम तैयार कर पाएंगे और वितरण कंपनी को एक निश्चित एवं जरूरी अनुपात में रकम दे पाएंगे।
एक ढांचा कुछ इस प्रकार काम करता है कि प्रत्येक परिवार को हर महीने 200 किलोवॉट घंटा निःशुल्क बिजली देकर लगभग 1,000 रुपये की राशि हर महीने सब्सिडी के रूप में दी जाएगी। यह राजनीति के हिसाब से प्रभावी नीति है इसलिए लोकप्रिय हो रही है। लाभार्थी यह प्रत्यक्ष रूप से देख पाते हैं कि उन्हें कहां से सब्सिडी मिलेगी।
उपभोक्ताओं को एक ऐसा बिजली बिल मिलता है जिसमें इस बात का स्पष्ट जिक्र होता है कि बिल के मद में उन पर बकाया 1,000 रुपये (200 किलोवॉट घंटा के लिए) का भुगतान राज्य के वित्त मंत्रालय ने किया है। इस तरह, लाभार्थी का बिल शून्य हो जाता है। यह लाभार्थी को अधिक खुशी एवं संतुष्टि देता है। इसकी तुलना में बिजली क्षेत्र में मौजूदा पेचीदा एवं परंपरागत कर एवं सब्सिडी योजना में लाभार्थियों को यह पता ही नहीं होता है कि उसे क्या मिल रहा है। हमारा अनुमान है कि इस पद्धति का चलन पूरे भारत में बढ़ता जाएगा।
ऐसी सब्सिडी बिजली क्षेत्र में सुधार की गुणवत्ता बढ़ाने की महत्त्वपूर्ण संभावनाएं खोल देती है। मौजूदा बिजली व्यवस्था में कई तरह के हस्तक्षेप सुधार की राह में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में बिजली की 22 दरें हैं जो इस आधार पर निर्धारित होती हैं कि खरीदार कौन है और कितनी मात्रा खरीदी जा रही है।
इन हस्तक्षेपों को दूर कर कई लाभ मिल सकते हैं। जब प्रत्येक लाभार्थी सामान्य बिजली बिल (स्पष्ट एवं बिजली की एकसमान दर) देखेगा, जब बिल में यह जिक्र होगा कि वित्त मंत्रालय से सब्सिडी मिली है तो उसे अधिक संतुष्टि मिलेगी। एक आदर्श व्यवस्था यह है जिसमें वित्त मंत्रालय राजनीतिक रूप से लाभकारी सब्सिडी का निर्धारण करे और बिजली प्रणाली विश्वसनीय एवं सस्ती बिजली उपलब्ध कराने की ओर उन्मुख हो। बिजली क्षेत्र से राजनीतिक मकसद अलग करने से इस क्षेत्र से जुड़े सभी लोगों पर बोझ कम हो जाएगा।
बिजली नियमन मुख्य रूप से एक विशेष समस्या के लिए होना चाहिए। वह समस्या यह है कि बिजली वितरण कंपनियों को अपने दबदबे का फायदा उठाने और उपभोक्ताओं से अधिक शुल्क वसूलने से रोकना। मगर इसके बजाय राज्य बिजली नियामकों ने स्वयं को बिजली की राजनीतिक व्यवस्था में उलझा दिया है। बिजली की राजनीतिक व्यवस्था सार्वजनिक क्षेत्र के नियंत्रण और कर एवं सब्सिडी योजना से संचालित होती है। इन पेचीदा समस्याओं के कारण राज्य बिजली नियामकों की क्षमता का विकास बाधित होता है।
अगर राजनीतिक समस्या-जिस समूह को रकम दी जानी है उसका चयन करना- वित्त मंत्रालय को स्थानांतरित की जाती है तो इससे तकनीकी रूप से सक्षम बिजली नियामक गठित करने के लिए जरूरी परिस्थितियां तैयार हो सकती हैं। निजी वितरण कंपनियों की सफलता के कई उदाहरणों के बाद यह आम तौर समझा जाता है कि ऐसी कंपनियां बेहतर कार्य करती हैं। भारत के कई राज्यों में निजी वितरण की तरफ कदम बढ़ाने की राह में वितरण कंपनियों में गैर-पारदर्शी तरीके से लिए गए निर्णय बाधा बनते हैं। एक बार बजट सब्सिडी का नियंत्रण वित्त मंत्रालय के पास आ जाएगा तो अधिक स्थानों पर निजी वितरण कंपनियों के जरिये अधिक बिजली उत्पादन क्षमता तैयार करना आसान हो जाएगा।
राजनीति एवं पुनर्वितरण की समस्या को जीडीपी हासिल करने की जद्दोजहद से अलग रखना बुद्धिमानी होगी। अगर राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए राज्य अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर मूल्य प्रणाली में हस्तक्षेप करता है तो इसे जीडीपी प्रभावित होती है और उम्मीद से कम रहती है। मूल्य निर्धारण प्रणाली के आधार पर निजी क्षेत्र लागत कम करने और जीडीपी को बढ़ाने में सक्षम है। नीति निर्धारकों को एक ऐसा नीतिगत माहौल तैयार करना चाहिए जिसमें मूल्य प्रणाली प्रभावी ढंग से ऐसा कार्य कर सके।
जीडीपी का लक्ष्य हासिल होने के बाद राजनीतिक निर्णय इस बारे में होना चाहिए कि कराधान का स्तर क्या हो, सार्वजनिक संसाधन और सब्सिडी पर खर्च कितना-कितना हो और किन पसंदीदा समूहों को सब्सिडी का लाभ दिया जाए।
(शाह एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता और जेटली ट्राइलीगल के पार्टनर एवं ट्रस्टब्रिज के संस्थापक हैं)