अमेरिका तथा चीन समेत कुछ अन्य निर्यातक देशों के बीच व्याप्त व्यापारिक तनाव को विश्व व्यापार के बहुपक्षीय ढांचे के अंतर्गत ही हल किया जाना चाहिए। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का विवाद निस्तारण ढांचा फिलहाल ध्वस्त है और इसकी जवाबदेही अमेरिका को लेनी चाहिए। बीते महीनों के दौरान कई देशों मसलन कोरिया और चीन आदि ने डब्ल्यूटीओ में विचित्र शुल्क के खिलाफ मामले जीते हैं। ये शुल्क आमतौर पर डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाली पिछली अमेरिकी सरकार ने लागू किए थे। इनमें से कुछ के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को तो कुछ के लिए ‘जनता के नैतिक साहस’ को वजह बताया गया। विवाद निस्तारण पैनल ने पाया कि अमेरिका यह साबित नहीं कर पाया कि इन वस्तुओं के आयात को जनता के नैतिक बल के चलते सीमित करने की आवश्यकता है। सामान्य तौर पर अमेरिका फैसलों को मान लेता, खासतौर पर अगर डब्ल्यूटीओ के अपील प्राधिकरण ने इन्हें बरकरार रखा होता। परंतु इस समय यदि विवाद निस्तारण से जुड़े किसी फैसले पर अपील होती है तो वह अनिवार्य तौर पर कानूनी विवाद में उलझता है क्योंकि डब्ल्यूटीओ की अपील संस्था काम नहीं कर रही है।
अपील संस्था को हाल के वर्षों में अपने कई न्यायाधीश गंवाने पड़े हैं और अब उसके पास संचालन के लिए आवश्यक कोरम भी नहीं है। ऐसे में वह अपील पर फैसले नहीं दे सकती और डब्ल्यूटीओ विवाद निस्तारण नहीं कर सकता। अपील संस्था न्यायाधीश इसलिए नहीं बदल पाई क्योंकि अमेरिकी प्रशासन ने उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। उसने दिसंबर 2019 से ही नई नियुक्तियों पर वीटो लगा रखा है। डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल के बाद भी यह वीटो जारी है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने बहुपक्षीयता को लेकर अमेरिकी प्रतिबद्धता बहाल करने के दावे तो जोरशोर से किए लेकिन व्यापार समेत विभिन्न क्षेत्रों में अमेरिका को प्राथमिकता देने वाली नीतियों के मामले में उन्होंने काफी हद तक डॉनल्ड ट्रंप की तरह ही फैसले लिए हैं।
उदाहरण के लिए बाइडन के अधीन अमेरिका ने प्रशांत पार साझेदारी में वापस लौटने में भी कोई रुचि नहीं दिखाई है। अमेरिका ने यह भी कहा है कि अपील संस्था को लेकर उसकी कुछ व्यवस्थित चिंताएं बरकरार हैं इसलिए वह वीटो का प्रयोग जारी रखेगा। बाइडन की अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कैथरीन टाई ने अमेरिकी सीनेट में यह स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने अपील संस्था के काम का विरोध किया। इसका अर्थ यह हुआ कि वह डब्ल्यूटीओ के काम के ही विरोध में हैं। बाइडन हालात को सुधारने में रुचि नहीं ले रहे हैं। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि महीनों से उन्होंने टाई के अधीनस्थ पदों की रिक्तियों को पूरा करने में भी कोई रुचि नहीं दिखाई है जबकि वह मार्च से ही पद पर हैं। इन पदों में डब्ल्यूटीओ में अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि का पद भी शामिल है।
बाइडन प्रशासन के इस हठ को किसी प्रकार उचित नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन यदि उसने डब्ल्यूटीओ में सुधार को लेकर कोई सुसंगत प्रस्ताव ही पेश किया होता तो भी बात समझी जा सकती थी। यूरोपीय साझेदारों द्वारा लगातार उकसाए जाने के बावजूद वह आगे की राह पेश करने में नाकाम रहा है। इसके बजाय चीन की तरह वह भी व्यापारिक विवादों को दूर करने के लिए द्विपक्षीय प्रणाली के इस्तेमाल को प्राथमिकता दे रहा है। जाहिर है अमेरिका और चीन की अर्थव्यवस्थाओं के आकार को देखते हुए यह तीसरे पक्ष के साथ सरासर अन्याय है। बहुपक्षीय प्रक्रिया और मध्यस्थता को इस तरह तैयार किया गया है ताकि बड़ी अर्थव्यवस्था छोटे देशों को दबाएं नहीं। प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत को ऐसी अराजकता से काफी नुकसान उठाना पड़ेगा। यह उसका दायित्व है कि वह विकसित और विकासशील देशों में अपने साझेदारों को आगे डब्ल्यूटीओ सुधार का समावेशी खाका तैयार करने को कहे। अमेरिका में हो रही वार्ता में इस दिशा में पहल होनी चाहिए।
