टिड्डियों का खतरा जिस तरह बढ़ रहा है और नए इलाकों में फैलता जा रहा है वह साफ दिखाता है कि देश इस हमले के खिलाफ हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है। कोविड-19 महामारी की तरह यह विपदा अचानक नहीं आई और इसके बारे में पहले से जानकारी भी थी, फिर भी टिड्डियों के आतंक से बचने के लिए जरूरी ढांचा एवं उपाय नहीं लागू किए गए। बड़े एवं छोटे आकार के टिड्डियों के बड़े दल पाकिस्तान से लगे पश्चिमोत्तर इलाकों में दिसंबर से ही मंडराते रहे हैं। लेकिन मई आने के बाद इनकी रफ्तार एवं पहुंच में अचानक तेजी आई है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) का टिड्डी निगरानी प्रकोष्ठ टिड्डियों के प्रजनन एवं आवाजाही मार्ग पर नजर रखता है। इस प्रकोष्ठ ने गत अप्रैल में ही भारत को चेतावनी दे दी थी कि मई-जून में टिड्डियों का बड़ा हमला हो सकता है। इसकी नवीनतम चेतावनी में कहा गया है कि अगर टिड्डियों पर काबू पाने के लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं किए गए तो आगामी मॉनसून सीजन में इनकी संख्या बीस गुना तक बढ़ सकती है। अभी तक टिड्डियों के हमले का नुकसान गर्मियों में उगाई जाने वाली सब्जियों और दालों की फसलों को ही हुआ है क्योंकि खरीफ सत्र की बुआई शुरू होने में अभी वक्त है। खरीफ की मुख्य फसल धान पर मंडरा रहा बड़ा खतरा कहीं अधिक चिंताजनक है।
प्रजनन की उच्च दर वाले और सबकुछ चट कर जाने की आदत के चलते रेगिस्तानी टिड्डे सभी कीटों में सबसे नुकसानदायक माने जाते हैं। वे अनुकूल बहाव होने पर एक दिन में 150 किलोमीटर की दूरी तक उड़ान भर सकते हैं और इस तरह वे बड़ी तेजी से अलग देशों एवं महाद्वीपों तक पहुंच सकते हैं। टिड्डियों का मौजूदा खतरा हॉर्न ऑफ अफ्रीका से शुरू हुआ था और लाल सागर एवं दक्षिण-पश्चिम एशिया के देशों को पार करते हुए अब यह दक्षिण एशिया तक दस्तक दे चुका है।
टिड्डी दल पिछले कुछ महीनों से ईरान, पाकिस्तान और पड़ोसी देशों में बिना किसी रोकटोक के प्रजनन करता रहा है जिससे इनकी तादाद काफी बढ़ चुकी है। टिड्डी दल भारत के सीमावर्ती राज्यों- राजस्थान, गुजरात एवं पंजाब से होते हुए हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश तक जा पहुंचे हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र के अंदरूनी इलाकों में भी टिड्डी दल का प्रकोप देखने को मिला है। देश के दक्षिणी राज्य भी टिड्डियों के खौफ से सुरक्षित नहीं कहे जा सकते हैं। दुख की बात है कि देश में टिड्डी नियंत्रण के बुनियादी उपकरण भी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं। अल्ट्रा-लो वॉल्यूम वाले स्प्रेयर, छिड़काव के लिए खास तौर पर बने विमान एवं ड्रोन, छिड़काव सुविधा से लैस ट्रैक्टरों की भारी कमी है। इसकी वजह से कई जगहों पर स्थानीय प्रशासन पेड़ों पर कीटनाशकों के छिड़काव के लिए अग्निशमन दल की गाडिय़ों के इस्तेमाल के लिए मजबूर हो रहा है। कृषि मंत्रालय ने इन उपकरणों की खरीद का काम शुरू कर दिया है लेकिन इनकी आपूर्ति मिलने में कई हफ्ते लग सकते हैं। तब तक तो भारी नुकसान हो चुका होगा।
वैसे भारत की सुस्ती की वजह से ही टिड्डी खतरा हाथ से बाहर नहीं गया है। प्रजनन पर लगाम लगा पाने में पाकिस्तान एवं ईरान जैसे दूसरे देशों की नाकामी का भी इसमें योगदान है। टिड्डी को अंतरराष्ट्रीय कीट माना जाता है और एफएओ के तत्वावधान में संबंधित देशों की तरफ से साझा कार्रवाई की जाती है। लेकिन इस बार कोविड-29 महामारी से जुड़ी व्यस्तताओं और भू-राजनीतिक तनावों के चलते वैसा सहयोग नहीं दिख रहा है। पाकिस्तान और ईरान में प्रतिकूल हालात होने से भी इस अभियान पर असर पड़ा है। भारत की मुफ्त में कीटनाशक देने की पेशकश भी कोई असर न दिखा पाई।
साफ है कि भारत को अपने दम पर ही यह जंग लडऩी होगी। दीर्घावधि योजना एवं समुचित संसाधन लगाना अपरिहार्य है। ऐसा नहीं हुआ तो कोविड संकट से बचा रहा कृषि क्षेत्र शायद इसकी मार से नहीं बच पाएगा।
