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खेती बाड़ी: नीतियां बदलें तो लौटे ‘पीली क्रांति’ की चमक

Yellow revolution in India : वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इस साल अपने अंतरिम बजट भाषण में खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता के लिए रणनीति तैयार करने की प्रतिबद्धता जताई है।

Last Updated- February 27, 2024 | 9:46 PM IST
खेती बाड़ी: नीतियां बदलें तो लौटे 'पीली क्रांति' की चमक, Farming: If policies are changed then the glow of 'Yellow Revolution' will return

खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता हासिल करना केंद्र में सत्ता में आने वाली हर सरकार का प्रमुख एजेंडा रहा है, परंतु इस दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हुई है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इस साल अपने अंतरिम बजट भाषण में खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता के लिए रणनीति तैयार करने की प्रतिबद्धता जताई है। उन्होंने इस बारे में 2019 में भी कुछ ऐलान किए थे, लेकिन स्थानीय स्तर पर खाद्य तेलों के उत्पादन और खपत का अंतर लगातार बहुत तेजी से बढ़ रहा है।

नतीजतन आयात पर निर्भरता बढ़ती जा रही है और अब यह 60 फीसदी तक हो गई है। खाद्य तेलों के उत्पादन में जहां 2.2 फीसदी की वार्षिक वृद्धि हुई है, वहीं खपत में बढ़त इससे लगभग दोगुनी 4.3 फीसदी पहुंच गई है। यही वजह है कि जहां 1980 के दशक के मध्य में 15 लाख टन तेल विदेश से खरीदा जाता था, अब धीरे-धीरे यह मात्रा बढ़कर अक्टूबर 2023 में समाप्त तेल वर्ष 2022-23 में रिकॉर्ड 1.67 करोड़ टन तक पहुंच गई, जिसकी कीमत लगभग 1.38 लाख करोड़ रुपये होती है। नियमित आधार पर भी देखें तो प्रति वर्ष औसतन 1.5 करोड़ टन खाद्य तेल आयात किया जा रहा है, जो कच्चे तेल और सोने के बाद आयात की जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी वस्तु है।

खाद्य तेल जैसी बड़े स्तर पर उपभोग की जाने वाली वस्तु के लिए आयात पर निर्भरता खास तौर पर यह जानते हुए कि पाम तेल और इससे जुड़े उत्पाद केवल दो देशों इंडोनेशिया और मलेशिया से ही आते हैं, न तो उचित है और न ही आर्थिक दृष्टि से टिकाऊ है। इन दोनों देशों से किसी भी समय और किन्हीं भी कारणों से यदि आपूर्ति में बाधा उत्पन्न हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है, जिससे निपटना आसान नहीं होगा।

नि:संदेह शहरीकरण के विस्तार, जनसंख्या में वृद्धि और आमदनी बढ़ने जैसे कारकों के साथ-साथ लोगों की भोजन की आदतों में व्यापक बदलाव आने के कारण खाद्य तेलों की मांग और आपूर्ति के अंतर की खाई चौड़ी होती जा रही है, लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण सरकार की गलत मूल्य नीति है। यह नीति उत्पादकों के हित को नजरअंदाज कर उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर बनाई जाती है।

खाद्य तेलों की कीमतों में मामूली सी बढ़ोतरी होने पर सरकार तिलहन एवं तेल की भंडारण सीमा, आयात शुल्क में कटौती और आयात पर तमाम प्रोत्साहन जैसे तरीके अपना कर फौरन हस्तक्षेप कर देती है। मूल्य संतुलन के लिए सरकार द्वारा उठाए जाने वाले ऐसे कदमों से किसान तिलहन की फसलों से मुंह मोड़ने लगते हैं अथवा उन चीजों पर निवेश बढ़ा देते हैं, जिनसे उन्हें अधिक लाभ हो। खाद्य तेलों पर बहुत कम आयात शुल्क (मौजूदा समय में केवल 5.5 फीसदी) दूसरे देशों के तिलहन उत्पादकों के हित में होता है। इसका सीधा नुकसान अपने देश के किसानों को उठाना पड़ता है।

दरअसल, सरसों, मूंगफली, तिल, सोयाबीन और सूरजमुखी जैसे खाद्य तेलों के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के लिए वित्त मंत्री द्वारा तैयार की गई रणनीति में उच्च उत्पादन वाली किस्मों के लिए शोध पर जोर, आधुनिक तकनीक से खेती करना, बाजारों को एक-दूसरे से जोड़ना, खरीद बढ़ाना और फसल बीमा जैसे तरीके अपनाना शामिल हैं, लेकिन इनमें से कोई भी कदम नया अथवा नवोन्मेषी नहीं है।

इनमें से अधिकांश पहले ही आजमाए जा चुके हैं। उपयुक्त मूल्य निर्धारण नीति नहीं होने के कारण इन उपायों का कोई खास फायदा नहीं हुआ। तिलहन का उत्पादन बढ़ाने में प्रौद्योगिकी कोई बड़ी बाधा नहीं है। पहले से उपलब्ध तकनीक के जरिये खेतों में किसानों द्वारा उत्पादित फसलों और शोध फार्मों में उगाई फसलों की उत्पादकता में दिखाई देने वाले बड़े अंतर से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

हाल ही में नैशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज द्वारा खाद्य तेलों पर लाए गए पॉलिसी पेपर (संख्या 122) के अनुसार विभिन्न खाद्य तेलों की वास्तविक और प्राप्य उपज में अंतर औसतन 60 फीसदी तक है। यह अंतर तिल में 22 फीसदी से लेकर कुसुम में 80 फीसदी तक है। मूंगफली, सोयाबीन और सरसों जैसे प्रमुख तिलहन के मामले में उपज का अंतर 25 से 50 फीसदी तक है। यदि उपज के अंतर को 20 फीसदी तक कम कर लिया जाए तो तिलहन का वार्षिक उत्पादन 1.3 से 1.4 करोड़ टन तक बढ़ाया जा सकता है।

वर्ष 1990 के दशक के शुरू में खाद्य तेलों के मामले में भारत आत्मनिर्भरता के करीब पहुंच गया था। इसका श्रेय 1986 में स्थापित तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन को जाता है, क्योंकि इसे तिलहन के आयात, निर्यात और घरेलू कीमतें निर्धारित करने से संबंधित नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने की पूरी छूट दी गई थी।

तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन ने तिलहन और खाद्य तेलों की कीमतों को दबाव से मुक्त कर दिया था। इससे उपभोक्ता और उत्पादक दोनों के हितों की रक्षा हुई और उन्हें इससे लाभ हुआ। आयात शुल्क और मार्केटिंग प्रतिबंधों के जरिये सरकार ने उसी स्थिति में कीमतों पर अंकुश लगाने के लिए हस्तक्षेप किया जब ये एक तय दायरे से बाहर जाने लगीं। इस रणनीति के साथ-साथ खेती में बेहतर प्रौद्योगिकी के प्रयोग से न केवल तिलहन का बोआई रकबा बढ़ा, बल्कि उत्पादन में भी खासी वृद्धि हुई।

यही रणनीति ‘पीली क्रांति’ के नाम से विख्यात हुई। दुखद बात यह कि तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन की स्वायत्तता और नीतियां बनाने की शक्तियों में कटौती कर दी गई और इस पर अन्य जिम्मेदारियां थोप दी गईं। नतीजतन इसका जोर तिलहन से हट गया और इसकी नीतियों-रणनीतियों से तिलहन उत्पादन और खाद्य तेलों के मामले में जो लाभ मिलने शुरू हुए थे, वे धीरे-धीरे कम होते गए।

जैसी रणनीति और नीतियां तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन ने तैयार की थीं, खाद्य तेलों में आत्मनिर्भर बनने के लिए फिर वैसे ही कदम उठाने होंगे। खूब सोची-विचारी कीमतों और वाह्य व्यापार नीतियों के जरिये तिलहन उत्पादन को आर्थिक रूप से लाभदायक फसल बनाकर ही खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।

First Published - February 27, 2024 | 9:46 PM IST

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