संभावना जताई जा रही है कि वर्ष 2047 तक भारत विकसित देशों की सूची में जगह बना लेगा। इस विषय पर चर्चा भी जमकर हो रही है। परंतु, विकसित देश बनने की प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए भारत को विकास से संबंधित अपनी नीतियों में कई बदलाव करने होंगे। विकास नीति के अंतर्गत जिन दो प्रमुख खंडों में बड़े बदलावों की आवश्यकता है वे हैं मानव विकास –विशेषकर शिक्षा एवं स्वास्थ्य- और तकनीकी नवाचार। कुछ मायनों में दूसरा खंड काफी हद तक पहले खंड पर निर्भर है और इसलिए मैं यहां मानव विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा।
राष्ट्रीय लेखा आंकड़ों के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था में वर्ष 2021-22 में शिक्षा एवं स्वास्थ्य की हिस्सेदारी साधारण थी। सकल मूल्य वर्द्धन में इनका हिस्सा क्रमशः 4 प्रतिशत और 1.6 प्रतिशत था। अगर हम भारत को एक विकसित देश बनाना चाहते हैं तो यह स्थिति बदलनी होगी। शिक्षा एवं स्वास्थ्य न केवल आर्थिक वृद्धि लिए आवश्यक हैं बल्कि विकास लक्ष्यों का आवश्यक हिस्सा भी हैं। विकास के लक्ष्यों में लोगों के जीवन की गुणवत्ता भी शामिल की जानी चाहिए।
आर्थिक वृद्धि दर और मानव विकास के कुछ मानकों के बीच आपसी संबंध यह नहीं बताता है कि ऊंची आर्थिक वृद्धि बेहतर मानव विकास सुनिश्चित करती है या फिर मानव विकास बेहतर होने से आर्थिक वृद्धि की गति तेज हो जाती है। इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए अधिक सावधानी पूर्वक आंकड़ों के विश्लेषण की आवश्यकता होगी।
जनक राज, वृंदा गुप्ता और आकांक्षा श्रवण ने हाल में अपने एक आलेख में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा निर्धारित मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) और 1990-2019 के दौरान राज्य स्तरीय आर्थिक विकास के बीच संबंध का विश्लेषण किया गया है। उनके विश्लेषण में एचडीआई और भारत में आर्थिक विकास के बीच दीर्घ अवधि के संबंध का जिक्र किया गया है। परंतु, कारण एवं प्रभाव के संदर्भ में यह संबंध दो दिशाओं वाला है।
इसका अभिप्राय यह है कि त्वरित वृद्धि के लिए उच्च मानव विकास जरूरी है और मानव विकास के स्तर में सुधार के लिए आर्थिक वृद्धि भी उतनी ही आवश्यक है। वे शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय से एचडीआई पर होने वाले प्रभाव का स्पष्ट आकलन नहीं कर पाए। शिक्षा के प्रभाव के विश्लेषण से पता चलता है कि प्राथमिक शिक्षा में सुधार का अंतर-राज्यीय स्तर पर वृद्धि में भिन्नता पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है। मगर माध्यमिक शिक्षा में सुधार का असर क=षि एवं विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि पर पड़ता है। इसके अलावा, उच्च शिक्षा में सुधार का सेवाओं पर भी व्यापक असर होता है।
तो क्या सार्वजनिक व्यय अधिक कारगर नहीं रहने का कारण पर्याप्त वित्त पोषण की कमी हो सकता है? विश्व बैंक के विकास सूचकांकों के अनुसार वर्ष 2021 में भारत में शिक्षा पर खर्च सरकार के कुल व्यय का 14.7 प्रतिशत रहा था। यह आंकड़ा निम्न मध्यम-आय वाले देशों से मेल खाता है। हालांकि, 2018 में स्वास्थ्य पर खर्च सरकार के कुल व्यय का 3.5 प्रतिशत था। यह निम्न मध्यम-आय वाले देशों के 5.1 प्रतिशत से कम रहा था। शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च केंद्र एवं राज्य सरकारों के व्यय पर कितना निर्भर है?
राष्ट्रीय लेखा क्षेत्र द्वारा चिह्नित ‘अन्य सेवाओं’ में शिक्षा एवं स्वास्थ्य की लगभग 80 प्रतिशत भागीदारी होती है। ‘अन्य सेवाओं’ में सार्वजनिक क्षेत्र की सकल नियत पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) में 17 प्रतिशत भागीदारी थी और 83 प्रतिशत हिस्सा निजी क्षेत्र एवं परिवारों से आया। सरकार की तरफ से की गई अनदेखी इस बात से झलकती है कि वर्ष 2021-22 में सार्वजनिक क्षेत्र के जीएफसीएफ में ‘अन्य सेवाओं’ की हिस्सेदारी केवल 5.9 प्रतिशत थी।
शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्रों में दिखे नतीजे निराशाजनक रहे हैं। ‘एनुअल स्टेट ऑफ एजुकेशन’ शीर्षक से ‘प्रथम’ की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि 14 से 18 वर्ष के उम्र दायरे में आने वाले लगभग 25 प्रतिशत छात्र कक्षा 2 की पुस्तक ठीक ढंग से अपनी क्षेत्रीय भाषा में नहीं पढ़ पाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार लगभग आधे बच्चे भाग (तीन अंकों की संख्या को एक अंक की संख्या से भाग) देने में कठिनाई महसूस करते हैं। कम उम्र के छात्रों में गुणवत्ता से जुड़ी समस्या दयनीय है। यह रिपोर्ट 14-18 वर्ष के बच्चों पर ध्यान केंद्रित करती है।
जहां तक स्वास्थ्य क्षेत्र में दिखे प्रभावों की बात है तो कुछ सकारात्मक असर दिखे हैं, मसलन शिशु मृत्यु दर में कमी इसका एक उदाहरण है। परंतु बच्चों में पोषण में कमी और संक्रामक बीमारियों का प्रसार लगातार जारी रहना चिंता के दो प्रमुख कारण हैं। गरीब लोगों के लिए अपर्याप्त सार्वजनिक प्रावधान एक गंभीर त्रुटि है। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वर्तमान स्वास्थ्य व्यय में परिवारों को अपनी जेब से 52 प्रतिशत हिस्से का भुगतान करना पड़ता है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा केंद्रों पर निःशुल्क दवाओं का पर्याप्त प्रावधान नहीं किया गया है।
उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर हाल में किए गए एक ताजा अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि 2011-12 में लगभग 4.6 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य मद में भारी भरकम रकम खर्च करनी पड़ी। यह रकम उनके कुल खर्च का 10 प्रतिशत या इससे अधिक हो गई। ये खर्च गंभीर बीमारियों के इलाज पर हुए। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में लोगों को उत्पादक परिसंपत्तियां बेचनी पड़ीं और रकम उधार लेनी पड़ी। इतना ही नहीं, उन्हें बच्चों की शिक्षा पर खर्च में कटौती तक करनी पड़ी। मानव विकास में व्यापक सुधार ऊंचे एवं अच्छी तरह संगठित सार्वजनिक व्यय और शिक्षा एवं स्वास्थ्य विकास में निजी गतिविधियों के संवर्द्धन एवं नीति नियमन पर निर्भर करेगा।
लोक नीतियों एवं स्वास्थ्य सुविधाओं पर व्यय का मुख्य लक्ष्य लोगों के जीवन में बदलाव लाने पर होना चाहिए न कि आर्थिक प्रभाव पर। मुख्य ध्यान गरीब परिवारों की जेब से होने वाले खर्च में कमी करने पर होना चाहिए। वास्तव में गरीबों की हालत तब और तंग हो जाती है जब उन्हें इलाज के लिए अपने गांव या छोटे शहरों से दूर जाना पड़ता है। स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति एक ऐसे व्यापक दृष्टिकोण के आर्थिक प्रभाव भी दिखेंगे जो पर्यावरण में सुधार पर ध्यान केंद्रित करता है।
मुझे स्मरण है कि एक पोषण विशेषज्ञ ने योजना आयोग (अब नीति आयोग) को सलाह दी थी कि पूरक खाद्य आपूर्ति की तुलना में सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति पोषण में सुधार का अधिक विश्वसनीय जरिया हो सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोगों का स्वास्थ्य बेहतर रहेगा तो इसके सकारात्मक आर्थिक प्रभाव भी दिखेंगे। पंजाब के एक मशहूर अर्थशास्त्री ने तर्क दिया था कि राज्य में कृषि के विकास में मलेरिया उन्मूलन का बड़ा योगदान रहा है।
देश में स्कूल और कॉलेज तेजी से स्थापित हो रहे हैं। अब इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा के तेजी से प्रसार की आवश्यकता है। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की चुनौती जरूर है मगर राजनीतिक कारणों से पाठ्यक्रमों में बदलाव की जरूरत तो बिल्कुल नहीं है, बल्कि प्राथमिक विद्यालयों से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता है। इसके लिए सार्वजनिक एवं निजी शैक्षणिक संस्थानों के प्रदर्शन की समीक्षा की जरूरत होगी।
अगर प्रथम जैसी गैर-सरकारी संस्था प्रदर्शन की समीक्षा की दिशा में काम कर सकती है तो सरकार क्यों नहीं इसके लिए एक व्यापक प्रणाली स्थापित कर सकती है? उच्च शिक्षा में सुधार के लिए लीक से हटकर एक कदम यह हो सकता है कि हम संस्थाओं को अनुदान देने की प्रणाली से हटकर छात्रों को अनुदान या ऋण देने की पद्धति अपनाएं (और विशेष अधिकार प्राप्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को समाप्त किया जाए)। हम छात्रों को पढ़ाई की गुणवत्ता के आधार पर शिक्षण संस्थान चुनने की स्वतंत्रता दी जाए।
स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर अधिक जोर दिए जाने के लिए राज्यों के द्वारा बड़े एवं भिन्न नवाचार उपाय किए जाने की जरूरत है क्योंकि कमजोर प्रदर्शन का मूल कारण अलग-अलग हो सकता है। वैसे भी शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर केंद्र सरकार का व्यय राज्यों की तुलना में काफी कम है, विशेषकर तब जब वर्तमान एवं सेवानिवृत्त कर्मचारियों पर होने वाला व्यय घटा दिया जाए। इसे देखते हुए केंद्र सरकार को संघात्मक ढांचे को अधिक प्रभावी ढंग से काम करने देना चाहिए। ऐसा करने से ही मानव विकास की रफ्तार तेज होगी जिससे सरकार दीर्घकालिक लक्ष्य प्राप्त कर पाएगी।