सांविधिक नियामकीय प्राधिकारों द्वारा विधायी शक्तियों का इस्तेमाल संघवाद को सीमित करता है और इसमें सुधार करने की आवश्यकता है। बता रहे हैं के पी कृष्णन
भारतीय संविधान राज्य के काम को चार हिस्सों में विभाजित करता है: (क) केंद्रीय सूची, (ख) राज्य सूची, (ग) समवर्ती सूची जो केंद्र और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है और (घ) ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूची जो ग्राम और शहर स्तर की सरकारों की भूमिका को परिभाषित करती हैं। हम अक्सर सोचते हैं कि केंद्रीय सूची के मामले पूरी तरह केंद्र सरकार और लोक सभा की निगरानी में आते हैं।
एक पल के लिए सोचें तो पता चलेगा कि यह सही नहीं है। संविधान में द्विसदनीय विधायिका की कल्पना की गई है। लोक सभा के अलावा राज्य सभा भी है। राज्य सभा में ‘राज्यों के प्रतिनिधि’ होते हैं जिन्हें राज्यों की विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा चुना जाता है। राज्य सभा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के जरिये सभी राज्यों की विधान सभाओं के जरिये किया जाता है।
भारतीय संविधान के अंतर्गत सरकारी एजेंसियों को दमनकारी शक्तियों का इस्तेमाल करने के लिए संसद की अनुमति जरूरी है। धन विधेयकों के अलावा सभी कानूनों को लोक सभा (जो प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुनी जाती है) और राज्य सभा (जो राज्यों के राजनीतिक दलों का नजरिया पेश करती है) की मंजूरी आवश्यक है। इस दृष्टि से देखें तो केंद्र राज्यों के कामकाज से अलग नहीं रह सकता। सभी राज्यों की विधानसभा का निर्वाचन ढांचा भी संसदीय कानूनों को आकार देने में मददगार साबित होता है।
संविधान सभा की बहसों में देश के संघवाद पर बहुत गहरी चर्चा की गई थी। यही वजह है कि इसमें तरह-तरह के संतुलन शामिल किए गए ताकि शक्ति के केंद्रीकरण से होने वाली ज्यादतियों से बचा जा सके।
केंद्र स्तरीय नियामकों ने इसे बदल दिया इस व्यवस्था में हमने सांविधिक नियामकीय प्राधिकारों (एसआरओ) का उभार देखा। आज, देश में केंद्रीय स्तर पर 20 से अधिक एसआरए हैं इनमें से प्रत्येक को कानून ने अपने क्षेत्र विशेष में कानून बनाने और उसका प्रवर्तन करने का अधिकार दिया है जिन्हें नियमन कहा जाता है।
उदाहरण के लिए देश में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के 50 से अधिक परिचालन नियम हैं। वे कई अहम मुद्दों को कवर करते हैं। इसमें सूचीबद्धता के दायित्व और प्रकटीकरण की जरूरतें, पोर्टफोलियो प्रबंधकों का नियमन, डिपॉजिटरीज, एक्सचेंज आदि सभी शामिल हैं। सेबी की अनुपस्थिति में ऐसे विषयों का संचालन एक समर्पित संसदीय कानून से होगा। इतना ही नहीं, इन नियमन में आए दिन संशोधन भी होता है।
उदाहरण के लिए अगर सेबी के पोर्टफोलियो प्रबंधकों से जुड़े नियम को लें तो वे 2020 में जारी हुए थे और बीते तीन वर्षों में उनमें चार बार संशोधन किया गया है। बिना सेबी के ऐसे संशोधन करने के लिए संसदीय मंजूरी की आवश्यकता होती।
संसदीय विधान निर्माण एक श्रम साध्य काम है जिसके बारे में पूरी तरह अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है। प्रतिभूति बाजार जैसे क्षेत्रों में बाजार के हालात के मुताबिक विशेषज्ञता और तत्काल प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है, ऐसे में संसद ने सेबी अधिनियम बनाया और इसने सेबी के अधिकारियों को यह शक्ति दी कि वे कानून बना सकें। अधिकांश अन्य एसआरए के लिए भी यही सच है।
नियामकीय कागजात में इस बात को चिह्नित किया जाता है कि एसआरए के डिजाइन में स्वाभाविक रूप से लोकतंत्र का अभाव नजर आता है। यह बात इस तथ्य से उत्पन्न होती है कि एसआरए उन शक्तियों का इस्तेमाल करते हैं जो अन्यथा लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई विधायिका करती। विकसित देशों में ऐसे न्यायिक निर्णय गहन जांच के अधीन होते जा रहे हैं। अमेरिका के कुछ विनियमित क्षेत्रों की बात करें तो वहां इसके चलते एसआरए की नियामकीय शक्तियां वापस भी ली गई हैं।
भारत में भी नियामकों की कानून बनाने की बेलगाम शक्ति और इस दौरान लोकतांत्रिक वैधता की कमी पर अदालतों की ओर से सवाल उठाए जा रहे हैं। एक बात जिस पर व्यापक तौर पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है वह यह है कि केंद्र सरकार के नियामकों ने संघीय तोलमोल की क्षमता में संशोधन किया है जो भारतीय संविधान को आधार प्रदान करती रही है। इससे राज्यों की शक्ति में कमी आई है। जब केंद्र सरकार संसदीय कानूनों के माध्यम से काम करती है तब राज्यों के पास यह शक्ति रहती है कि वे अपनी बात कह सकें।
एसआरए द्वारा बनाए जाने वाले नियमन के मामले में ऐसा नहीं है क्योंकि नियमन को जारी करने के लिए संसदीय मंजूरी की आवश्यकता नहीं है। एसआरए के विधायी ढांचे में संसद के दोनों सदनों के समक्ष विनियमन पेश करने तथा अधीनस्थ कानून पर संबंधित समितियों की जांच की व्यवस्था करके लोकतांत्रिक कमी को दूर करने का प्रयास किया गया। संभावित रूप से यह संघवाद की कमी के उपचार के रूप में भी काम कर सकता है।
एक विश्लेषण दिखाता है कि सन 1999 से 2022 के बीच के 23 वर्षों में अधीनस्थ विधानों पर राज्य सभा की समिति ने एसआरए द्वारा बनाए गए चार कानूनों की समीक्षा की। संदर्भ के लिए प्रतिभूति नियामक ने 1992 में अस्तित्व में आने के बाद 661 नियमन जारी किए। दूसरे शब्दों में कहें तो संघीय घाटे की बात सही है।
यह किस तरह मायने रखता है, इसका एक उदाहरण इस प्रकार है। शहरी स्थानीय निकायों को पैसे उधार लेने के लिए राज्य सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होती है। बॉन्ड बाजार के विकास के साथ ही बड़ी तादाद में म्युनिसिपल बॉन्ड संस्थागत उधारी की जगह ले रहे हैं।
म्युनिसिपल बॉन्ड को लेकर सेबी ने जो नियम बनाए हैं उनके मुताबिक राज्य सूची के एक विषय पर केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय की नियामकीय शाखा का नियंत्रण है। जाहिर है यह घाटा उन्हें प्रभावित कर रहा है।
इस आलेख को लिखने के पीछे मुख्य मुद्दा यही है कि देश में केंद्रीय नियामकों का जिस प्रकार उभार हुआ है वह संविधान सभा द्वारा परिकल्पित संघीय योजना के अनुरूप नहीं है। जांच और संतुलन की व्यवस्था से इस विचलन को ठीक उसी तरह से संबोधित करने तथा समझने की जरूरत है जैसे हम भारतीय राज्य के विकास के किसी अन्य पहलू को संबोधित करेंगे, जहां संवैधानिक जांच और संतुलन कमजोर हैं। सन 1809 में अमेरिकी विचारक थॉमस यू.पी. चार्लटन ने कहा था, ‘शाश्वत सतर्कता ही आजादी की कीमत है।’ हमारे देश के लिए भी यही सच है।
समाधान
प्रश्न यह है कि क्या करने की आवश्यकता है? विचारकों को इस विषय पर बहस करने की आवश्यकता है कि कैसे विविध रास्तों का इस्तेमाल करके इस समस्या को बेहतर बनाया जा सकता है।
इसमें शामिल हैं: (क) राज्य प्रशासन द्वारा नियमन निर्माण के लिए अधिक विस्तारवादी शक्तियां देना, (ख) संसद की स्थायी समिति के काम में सुधार और राज्य सभा के अधीनस्थ विधानों पर निगरानी, (ग) क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व, उदाहरण के लिए अमेरिका की मौद्रिक नीति समिति के समकक्ष जिसमें क्षेत्रीय सदस्य होते हैं जो स्थानीय अर्थव्यवस्था के अपने ज्ञान को मतदान में शामिल करते हैं।
(लेखक आईसीपीपी में मानद सीनियर फेलो और पूर्व अफसरशाह हैं)