लाल किले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर दिए अपने भाषण के कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अन्य महत्त्वपूर्ण भाषण दिया था। उनका यह भाषण भारतीय उद्योग परिसंघ के कार्यक्रम में देश के प्रमुख उद्योगपतियों को दिया गया था। भाषण में चार बिंदु अत्यंत महत्त्वपूर्ण थे, हालांकि टीकाकारों ने उनकी अनदेखी कर दी। उन पर करीबी नजर डालें देश में आर्थिक सुधारों की मौजूदा बहस को समझने में मदद मिलेगी।
पहली बात, प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया के अपने विचार को नए सिरे से परिभाषित करने का प्रयास किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि इसका तात्पर्य यह नहीं कि भारतीय ही निर्माण करें। इस बारे में उन्होंने ज्यादा कुछ नहीं कहा लेकिन आत्मनिर्भर भारत के संदर्भ में उनकी बात एकदम स्पष्ट थी: ‘आज देश के लोगों की भावना भारत में निर्मित वस्तुओं के साथ है। जरूरी नहीं है कि कंपनी भारतीय हो, लेकिन आज हर भारतीय चाहता है कि भारत में निर्मित उत्पाद अपनाए।’ उन्होंने उद्योग जगत से आग्रह किया कि वह इसके अनुरूप नीति और रणनीति बनाए ताकि आत्मनिर्भर भारत अभियान आगे बढ़ सके।
दूसरा, प्रधानमंत्री ने उद्योग जगत के लोगों के मन से यह आशंका निकालने का हरसंभव प्रयास किया कि सरकार विदेशी निवेश को लेकर सशंकित है। तमाम तरह के विदेशी निवेश की आवक पर सवार मोदी सरकार ने आर्थिक विकास और नई परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए विदेशी निवेश का स्वागत करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। संकेत यही था कि सरकार जरूरत पडऩे पर ऐसे नियमों को बदलने से नहीं हिचकिचाएगी जो विदेशी निवेशकों को रास न आ रहे हों।
उन्होंने कहा, ‘भारत, जो एक समय विदेशी निवेश को लेकर आशंकित रहता था, वह अब हर तरह के निवेश का स्वागत कर रहा है। भारत, जिसकी कर नीतियां एक समय निवेशकों की निराशा की वजह थीं, अब वह दुनिया का सबसे प्रतिस्पर्धी कॉर्पोरेट कर और फेसलेस कर व्यवस्था वाला देश है।’ उन्होंने हाल में कॉर्पोरेशन कर दर में कमी और 2012 के पूंजीगत वस्तु कर के पुरानी तिथि से लागू प्रावधान हटाने की ओर संकेत किया।
तीसरा, प्रधानमंत्री ने उद्योग जगत को लंबे समय से परेशान करने वाले कानूनों और नियमों को सहज सरल बनाने की प्रतिबद्धता भी जताई। उन्होंने हाल ही में 19 केंद्रीय श्रम कानूनों को चार संहिताओं में समावेशित किए जाने का उदाहरण दिया।
उद्योग जगत की बैठक में श्रम कानून सुधार का जिक्र समझ में आता है। लेकिन उद्योग जगत की बैठक में अपनी सरकार के हालिया कृषि सुधारों की महत्ता बताना अस्वाभाविक था। इन सुधारों की यूं भी काफी आलोचना हो चुकी है। उन्होंने कहा, ‘एक समय जहां कृषि को किसी तरह आजीविका चलाने का माध्यम माना जाता था, वहीं अब प्रयास यह है कि ऐतिहासिक कृषि सुधारों के जरिये देश के किसानों को सीधे देश और विदेश के बाजार से जोड़ा जाए।’
चौथी बात, प्रधानमंत्री ने उद्योग जगत के नेताओं से कहा कि सरकारी क्षेत्र की उपस्थिति को तार्किक बनाने तथा उसे न्यूनतम करने के लिए नई सार्वजनिक उपक्रम नीति के जरिये निर्णय लिए गए। उन्होंने उद्योग जगत से कहा कि वह भी अपनी ओर से अधिकतम उत्साह और ऊर्जा दिखाए।
कुल मिलाकर ये चारों संदेश मोदी सरकार के आर्थिक नीति निर्माण के बारे में काफी कुछ स्पष्ट करते हैं। निश्चित रूप से मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत अभियान का हिस्सा है लेकिन यह विदेशी पूंजी की जीवंत और बढ़ती भूमिका को रोकता नहीं है। निश्चित रूप से मेक इन इंडिया नीति वे परियोजनाएं भी शामिल होंगी जो विदेशी पूंजी या विदेशी कंपनियों द्वारा संचालित होंगी।
प्रमुख शर्त यही है कि ऐसी वस्तु देश में बनी होनी चाहिए। शायद देश की सीमाओं में निर्माण बढ़ाने की चाह ने सरकार को टैरिफ बढ़ाने को प्रोत्साहित किया। मूल विचार है निवेशकों को घरेलू निर्माण परियोजना में समान अवसर मुहैया कराना। यह बात अलग है कि ऐसा टैरिफ आधारित रुख अर्थव्यवस्था या उपभोक्ताओं को स्थायी लाभ नहीं दिलाता बल्कि लंबी अवधि के दौरान यह उनकी प्रतिस्पर्धी और निर्यात क्षमता पर असर डालता है। यह बात ध्यान देने लायक है कि सरकार विदेशी निवेश का खुले दिल से स्वागत केवल मेक इन इंडिया अभियान के तहत विनिर्माण क्षेत्र के लिए कर रही है। सेवा क्षेत्र या ई-कॉमर्स कंपनियों के विदेशी निवेश को यह सुविधा हासिल नहीं है। यह सरकार की ओर से उद्योग जगत को नई पेशकश प्रतीत होती है।
यह नई पेशकश इन नए वादों के साथ आई है कि श्रम कानून सुधार और नए कृषि कानून देश के कारोबारी जगत को कृषि क्षेत्र के साथ संबंध कायम करने की इजाजत देगा।
श्रम कानून और कृषि कानून दोनों में बदलाव पर काफी विवाद हुआ है। चार श्रम संहिताओं के नियम अब तक नहीं बने हैं। नए श्रम मंत्री देश के प्रमुख श्रम संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ चर्चा कर रहे हैं और वह सरकार, नियोक्ताओं और कर्मचारियों की इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस को नए सिरे से शुरू करने को लेकर भी राजी है।
इसी तरह फिलहाल निलंबित कृषि सुधारों को उद्योग जगत के लिए कारोबारी लिंकेज करार देना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मोदी सरकार इन कानूनों की वापसी को लेकर उत्सुक है। यदि ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री उद्योग संगठन की बैठक में कृषि सुधारों की बात नहीं करते। ऐसा लग रहा है कि मोदी सरकार और भारतीय उद्योग जगत के बीच सुधारों को लेकर एक नया समझौता हो रहा है।
परंतु सार्वजनिक उपक्रम नीति का क्या? शब्दों के सावधानीपूर्वक किए गए इस्तेमाल पर ध्यान दीजिए। मोदी ने ऐसी सार्वजनिक उपक्रम नीति की बात की है जो सरकारी उपक्रमों की छाप को तार्किक और न्यूनतम करने की बात करती है। निजीकरण की कोई बात नहीं की गई। वित्त मंत्री ने आखिरी बार निजीकरण का जिक्र फरवरी 2021 के बजट भाषण में किया था। सरकार द्वारा सरकारी बीमा कंपनियों के निजीकरण के लिए संसद की मंजूरी मांगते वक्त भी वित्त मंत्री का स्पष्टीकरण दिलचस्प था: ‘यह निजीकरण नहीं है। हम कुछ सक्षम प्रावधान ला रहे हैं ताकि नागरिकों की कुछ भागीदारी तय हो सके। हमारा बाजार रिटेल फंडों की मदद से पैसे दे सकता है…जनता की भागीदारी से नए संसाधन जुटाने में मदद मिलेगी।’ याद रहे जनरल इंश्योरेंस बिजनेस (नैशनलाइजेशन) संशोधन विधेयक, 2021 में उस प्रावधान को हटाने की बात शामिल है जिसके तहत चार सरकारी बीमा कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी 51 फीसदी से कम नहीं होनी चाहिए।
यह एक और नया और अहम संदेश प्रतीत होता है। मोदी सरकार निजीकरण के खिलाफ नहीं है। लेकिन अब उस शब्द के इस्तेमाल को प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा। यह सूक्ष्म संकेतों के माध्यम से सुधारों और नीति निर्माण की दिशा में बढऩे का उदाहरण है। कई वर्ष पहले इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव रहे पीएन हक्सर ने कहा था कि देश में वृद्धि और सुधार को चोरी छिपे अंजाम देना होता था। मोदी सरकार के कार्यकाल में यह सूक्ष्म संकेतों के माध्यम से हो सकता है।