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सब कुछ नहीं बताते जीडीपी के आंकड़े

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार भारत में 110 करोड़ लोग कामकाजी उम्र के हैं और उनमें से केवल 42-43 करोड़ श्रमबल का हिस्सा हैं

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राजेश्वरी सेनगुप्ता   
Last Updated- March 26, 2025 | 9:57 PM IST

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के हाल में आए आंकड़े बता रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था सुधर रही है। इनके मुताबिक जुलाई-सितंबर तिमाही में 5.6 प्रतिशत रही आर्थिक वृद्धि दर अक्टूबर-दिसंबर में बढ़कर 6.2 प्रतिशत हो गई और जनवरी-मार्च में 7.6 प्रतिशत रहने का अनुमान है। वृद्धि दर ऐसे ही बढ़ी तो भारत दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था का तमगा अपने नाम कर लेगा। किंतु इसकी खुशी मनाने से पहले अधिक सावधानी के साथ आर्थिक स्थिति का जायजा लेना जरूरी है। पड़ताल करेंगे तो ऐसी कई कमजोरी मिलेंगी, जिनके लिए नीतिगत स्तर पर काफी काम करना बाकी है।

पहली बात, इतना निवेश ही नहीं हो रहा कि वृद्धि को रफ्तार मिल सके। 2024-25 में वास्तविक निवेश मात्र 6 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है, जो आर्थिक विस्तार की तुलना में कमतर रहेगा। इसकी तुलना 15 प्रतिशत सालाना वृद्धि वाले 2004 से 2007 के दौर से करें तब जीडीपी का 40 प्रतिशत वास्तविक निवेश हो रहा था, जो अब घटकर केवल 33 प्रतिशत रह गया है।

ज्यादा चिंता की बात यह है कि लंबी अवधि के रुझान देखने पर वृद्धि में तेजी गायब हो जाती है। 2024-25 में 6.5 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान है, जो कोविड महामारी के बाद की 8.8 प्रतिशत वृद्धि दर से काफी कम होगी। खुदरा बिक्री में कमी, ऋण आवंटन में सुस्ती, कंपनियों के कमजोर मुनाफे, सुस्त निर्यात, शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में गिरावट और मुद्रास्फीति दर जैसे आंकड़े भी इसकी तसदीक कर रहे हैं।

अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए हमें कुछ साल पीछे जाना होगा। कोविड महामारी से पहले अर्थव्यवस्था ठीक नहीं थी और वृद्धि दर घटकर 4 प्रतिशत से कम रह गई थी। नोटबंदी होने और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को खराब तरीके से लागू किए जाने के कारण असंगठित क्षेत्र की हालत खस्ता हो गई। संगठित क्षेत्र भी पिछली वृद्धि के दौर में लिए गए जरूरत से ज्यादा कर्ज के बोझ से उबर ही रहा था। कुछ समस्याएं अब भी बनी हुई हैं मगर कुछ खास कारणों से कोविड के बाद कम दिख रही हैं।

उनमें से एक कारण था स्थिति सामान्य होना क्योंकि लॉकडाउन के बाद लोग काम पर लौटने लगे और परिवार पैसा खर्च करने लगे। खुदरा ऋण आसानी से मिलने के कारण खपत भी बढ़ गई। खुदरा ऋण में कुछ समय तक 20 प्रतिशत सालाना वृद्धि हुई। बुनियादी ढांचे पर सरकार का जोर रहा और उस पर खर्च 2021-22 और 2023-34 के दरम्यान औसतन 30 प्रतिशत सालाना बढ़ा। इससे अर्थव्यवस्था को ताकत मिलती गई।

मगर सबसे अहम रहा ‘नई अर्थव्यवस्था’ का उदय। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वैश्विक क्षमता केंद्र (जीसीसी) बढ़ने से 2023-24 तक तीस साल में सेवा निर्यात करीब 65 प्रतिशत बढ़ गया। जीसीसी में काम कर रहे लगभग 20 लाख लोगों को अचानक हुई भारी आमदनी एसयूवी और लक्जरी रियल एस्टेट पर खर्च हुई, जिसने वाहन तथा निर्माण क्षेत्रों को एकदम उछाल दिया। उन तीन साल में निर्माण क्षेत्र दो अंकों में बढ़ा।
कोविड के बाद अर्थव्यवस्था दोबारा खुलने से मिली तेजी खत्म हो गई है, राजकोषीय स्थिति तंग होने और (छोटे शहरों में हवाई अड्डे बनाने आदि से) कम रिटर्न मिलता देखकर सरकार ने बुनियादी ढांचे पर खर्च कम कर दिया है। जीसीसी का विस्तार ठहर गया तो सेवा निर्यात की वृद्धि भी अप्रैल-जून 2023 से अप्रैल-जून 2024 के बीच 10 प्रतिशत से कम रही।

दूसरे शब्दों में कहें तो कोविड के बाद आई तेजी को समझने में भूल हो गई। तेजी अपवाद थी और इस समय की सुस्ती सामान्य है और 1991 से अभी तक चलती आई 6 प्रतिशत औसत वृद्धि दर के आसपास है।

सवाल है कि लंबे अरसे तक 6 प्रतिशत औसत आर्थिक वृद्धि दर क्या देश की जरूरत पूरी करने के लिए काफी है? लग तो नहीं रहा। हाल में औसत से अधिक वृद्धि के दौरान भी पर्याप्त रोजगार नहीं हो पाया। ये सभी समस्याएं गहराई में भीतर तक बैठी हैं और मांग को लंबे अरसे तक दबा सकती हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार भारत में 110 करोड़ लोग कामकाजी उम्र के हैं और उनमें से केवल 42-43 करोड़ श्रमबल का हिस्सा हैं, जो या तो नौकरी कर रहे हैं या काम ढूंढ रहे हैं। काम करने लायक आबादी तो बढ़ी है किंतु श्रमबल नहीं बढ़ा, जिससे श्रम बल में आबादी की भागीदारी 2017-18 के 46 प्रतिशत से घटकर 2023-24 में 40 प्रतिशत रह गई। श्रमबल के छोटे से हिस्से को ही औपचारिक रोजगार मिला है यानी रोजगार का संकट बहुत विकट है। मध्य वर्ग के लोगों की ठहरी हुई नॉमिनल वेतन वृद्धि हो रही है। औसत मुद्रास्फीति 5 प्रतिशत रहने से वास्तविक वेतन में गिरावट दिखी है, जिससे मांग पर तगड़ी चोट पड़ी है।

भारत में जीवन स्तर में भी ज्यादा सुधार नहीं हुआ है। अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में देश ऊपर जरूर चढ़ा है मगर प्रगति धीमी रही है। 1980 में भारत 167 देशों की सूची में प्रति व्यक्ति जीडीपी के लिहाज से 142वें स्थान पर था। 20 साल बाद यह 124वें स्थान पर पहुंचा और उसके 20 साल बाद 109वें स्थान तक पहुंच पाया। मगर ज्यादातर अर्थव्यवस्थाओं से यह अब भी पीछे है।

कुल मिलाकर जीडीपी के पैमाने पर दिख रहा अर्थव्यवस्था का आकार और कोविड महामारी के बाद इसकी आर्थिक वृद्धि दर भ्रम में डालती है। मायने तो दीर्घ अवधि की वृद्धि दर ही रखती है क्योंकि वही तय करेगी कि प्रति व्यक्ति आय कितनी तेजी से सहज स्तरों तक पहुंच पाती है। फिलहाल आर्थिक वृद्धि तेज करने के लिए तत्काल एक ठोस योजना की जरूरत है, जो देश की ढांचागत खामियों को दूर कर अर्थव्यवस्था को दीर्घकाल के लिए मजबूती देगी।

First Published : March 26, 2025 | 9:46 PM IST