जब हमने मोहम्मद एहसान से उसकी फोटो लेने की इजाजत मांगी तो वह खुशी-खुशी तैयार हो गया। वह फौरन अपने करघे के पास जाकर खड़ा हो गया। दो बच्चों का यह पिता हर दिन आठ घंटे तक काम करता है।
हफ्ते के अंत तक वह 72 मीटर कपड़े बुन लेता है यानी हर दिन उसका करघा 12 मीटर कपड़ा बुनता है।
लेकिन वह पेशे से कोई बुनकर नहीं है। दरअसल, वह इस वक्त दिल्ली स्थित दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी जेल, तिहाड़ में सजा काट रहा है। अपने हाथों से बुने हुए कपड़े को गौर से देखते हुए वह कहता है कि,’हमारे लिए रोजाना का टारगेट सात मीटर कपड़ा बुनने का रखा गया है, लेकिन मैं हर दिन ज्यादा ही बुन लेता हूं।’
वैसे आजकल उसका मूड भी काफी अच्छा है। आखिर कुछ ही दिनों पहले उसकी बीवी और बच्चे मुरादाबाद से उससे मिलने जो आए थे। वह इतनी धीरे बोल रहा था कि मुझे उसके पास जाकर बैठना पड़ा। वह बुनकर तो है नहीं, फिर वह यह काम इतनी अच्छी तरह से कैसे कर लेता है? यह सवाल सुनकर उसने सिर उठाया और कहा,’हालात, मैडमजी हालात।
हालात ने मुझे इस करघे पर काम करना सिखा दिया।’ बातचीत के दौरान यह 40 साल का शख्स ज्यादातर चुपचाप ही रहा। जब हमारे जाने का वक्त आया तो उसने एक हल्की सी मुस्कुराहट के साथ कहा कि, ‘बाहरी दुनिया के लिए मैं एक डाकू हूं, लुटेरा हूं, लेकिन यहां मैं केवल एक बुनकर हूं।’
हमने 400 एकड़ में फैली इस हरी भरी जेल में करीब तीन घंटे और एहसान के साथ आधे घंटे बिताकर जीवन की कुछ बेहद बुनियादी, पर काफी अहम बातों के बारे में जाना। यह हमारी खुशकिस्मती है कि एहसान की तरह हम जेल की फाइलों में दफन कोई नंबर नहीं हैं।
दूसरी बात यह है कि हम अपनी जिंदगी के हर पल को आजादी से जी सकते हैं। कहानी कामयाबी कीहम वहां एक सफलता से भी रूबरू हुए। वह सफलता है, तिहाड़ जेल की फैक्टरी की। इस सफलता का पूरा श्रेय जाता है, जेल नंबर दो में बंद 520 कैदियों को।
आंकड़ों की जुबान में इस सफलता की कहानी को बयां करें तो इस फैक्टरी में हर दिन ब्रेड के 1200 पैकेट पैक किए जाते हैं। साथ ही, बेकरी यूनिट में हर रोज तीन सौ किलो चिप्स और 500 किलो नमकीन तैयार किया जाता है।
बिस्कुट में भी यह जलवा कायम है। यहां हर दिन 10 या 15 नहीं, पूरे 90 किलो बिस्कुट तैयार किए जाते हैं। तेल निकालने में तो इस यूनिट का जवाब नहीं है। यहां की तेल निकालने वाली यूनिट से रोजाना 900 किलो सरसों का तेल निकाला जाता है।
यहां के सरसों तेल की डिमांड तो बाहरी मार्केट में भी काफी हो रही है। वैसे तो ब्रांड ‘टीजे’ की शुरुआत तो 1960 के दशक में ही हो गई थी, लेकिन इसका असल जादू तो शुरू हुआ पिछले दशक से ही। आज कम से कम राजधानी में तो बड़ी तादाद में लोग ‘टीजे’ अनजान नहीं रह गए हैं।
जेल में ‘गुरुजी’ के नाम से मशहूर आर. के. ठाकुर का कहना है कि,’मैं यहां 1973 से मौजूद हूं। मैंने देखा है, कैसे इस फैक्टरी ने कई लोगों की जिंदगी बदल डाली। मुझे आज भी इस जेल में आए एक जोड़ा याद है। उन दोनों अलग-अलग जुर्म किए थे।
लेकिन आज वह कानून की इात करने वाले नागरिक हैं। उन दोनों ने तो दिल्ली में ही एक ठीक-ठाक सा ढ़ाबा भी खोल रखा है।’ ठाकुर इस फैक्टरी के इंसट्रक्टर हैं। वह रिटायर हो चुके हैं, फिर भी अक्सर यहां कैदियों को सीखाने के लिए आते-जाते रहते हैं।
मोटी होती कमाई ठाकुर का कहना है कि,’एक वक्त ऐसा भी था, जब यह फैक्टरी साल में केवल 2.5 लाख रुपए ही कमा पाती थी। लेकिन आज तो कमाई के मामले में हमारा जवाब ही नहीं है। 2007 में हमने 4.5 करोड़ रुपए की मोटी कमाई की।
यह अब तक की हमारी सबसे ज्यादा कमाई है। इस साल के लिए हमने छह करोड़ रुपए की कमाई का लक्ष्य रखा है।’ आपको भले ही यह मुकाम नामुमकिन लग रहा हो, लेकिन एहसान जैसे लोग इसे मुमकिन बनाने के लिए सुबह आठ से शाम चार बजे तक बिना रुके कोशिश कर रहे हैं।
जेल अधिकारियों का भी मानना है कि ठाकुर इस नामुमकिन को मुमकिन बना लेंगे। अगर आप क्वालिटी की चिंता कर रहे हैं, तो आप अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं।
इस साल सितंबर में तिहाड़ फैक्टरी को आईएसओ 9002 का सर्टिफिकेट भी मिल जाएगा। इल सर्टिफिकेट का मतलब यह है कि यहां बने उत्पाद ए ग्रेड क्वालिटी के हैं।
सितंबर में ही इसे फैक्टरी को अपने ‘टीजे’ लोगो का भी पेटेंट मिल जाएगा। इस लोगो को आप इस वक्त जेल में बनाए गए बेकरी उत्पादों और यहां की पेपर यूनिट से निकले रिसाइकिल्ड पेपर पर भी देख सकते हैं।
साथ ही, कैदियों की दिहाड़ी भी 10-12-15 रुपए (अकुशल – अर्धकुशल-कुशल) से बढ़ाकर 40-44-52 रुपए कर दी गई है। इस दिहाड़ी का 25 फीसदी हिस्सा तिहाड़ के विक्टिम वेलफेयर फंड में जाता है।
अब तो इस फैक्टरी में बने उत्पादों को बेचने के लिए दिल्ली के पीतमपुरा इलाके बन रहे दिल्ली हाट के नए संस्करण में भी जगह खरीदी जा रही है। साथ ही, जेल के बाहर बने तिहाड़ हाट को भी एक नया रूप दिया जा रहा है।
यहां जेल में बने सामानों को बेचा जाता है। तिहाड़ सेंट्रल जेल के अधीक्षक विवेक कुमार त्रिपाठी का कहना है कि इसके लिए इस साल 1.5 लाख रुपए खर्च किया जाएगा। ट्रेड फेयर का जादूजेल की इस फैक्टरी की सफलता में एक काफी अहम भूमिका इंडिया इंटरनैशनल ट्रेड फेयर ने भी निभाई है।
पिछले साल के ट्रेड फेयर या व्यापार मेले में इस फैक्टरी में बने 2.25 लाख रुपए का सामान बेचा गया, जबकि पांच लाख रुपए का ऑडर बुक किया गया।
यह ऑडर तिहाड़ फैक्टरी को जिन सामानों के लिए मिला है, उनमें मोमबत्तियों, पेपर प्रोडक्ट, खाद्य वस्तुओं, कपड़ों और फर्नीचर भी शामिल हैं। त्रिपाठी का कहना है कि, ‘हमारी लकड़ी का सामान बनाने वाली यूनिट को तो खासी कामयाबी मिली है। हमें शिक्षा विभाग से 50 हजार स्कूल डेस्क बानने का ऑडर मिला है।
इसके लिए हमारे कैदी ओवरटाइम कर रहे हैं।’ अपने कमरे में मौजूद बुकशेल्फ की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि,’जानते हैं, इसे भी हमारे कारपेंट्री यूनिट ने ही बनाया है।
आप लोग जिन कुर्सियों पर बैठे हैं, वे भी यहीं बने हैं। आपके सामने रखी कुकीज भी हमारी ही बेकरी में बनी है।’ करिश्मा स्वाद का कुकीज की तरह, बेकरी की भी तारीफ शब्दों में करना मुश्किल है। इस बेकरी में कदम रखते ही आपका स्वागत ऐसी खुशबू से होता है, जिसकी वजह से आपके मुंह में पानी आ जाए।
इसीलिए तो यह यूनिट पिछले तीन सालों से लगातार रिकॉर्ड तोड़ कमाई दे रही है। 2004-05 में इससे 75.23 लाख रुपए की कमाई होती थी। 2006-07 में कमाई का यही आंकड़ा एक करोड़ रुपए को पार कर गया। इस जेल की बेकरी में हमें मिला विनय।
फर्राटे से अंग्रेजी बोलने वाले इस शख्स ने बताया कि, ‘सालों पहले जब मैं यहां आया था, तब मैं कॉलेज में था।’ जब तक उसकी बात पूरी होती, उसके चेहरे पर महीन लकीरें उभर आईं।
इन लकीरों की वजह जब मैंने तलाशने कोशिश की तो मुझे जेल की इस जबर्दस्त आजाद उड़ान की वजह भी समझ में आ गई। सफलता की राहसफलता की वजह दरअसल कोई अत्याधुनिक मशीनरी या फिर अति कुशल तकनीशियन अथवा कामगार नहीं हैं।
दरअसल, जेल की इन फैक्टरियों में काम करने वाले हत्यारे, लुटरे या फिर किडनैपर्स है। आज वही हाथ बिना किसी लालच काम करने में जुटे हुए हैं। किसी के खून से सने हाथ आज कढ़ाई-बुनाई कर हैं, मिट्टी के खूबसूरत बर्तन बना रहे हैं और पकवान बनाने जैसे सलीके वाले काम में जुटे हुए हैं। यही वह हाथ हैं, जिन्होंने कभी किसी घिनौने जुर्म को अंजाम दिया था।
कुछ कहते हैं, उन्होंने वह अपराध गुस्से में आकर किया तो कुछ का कहना है कि वे बेकसूर हैं और किसी दूसरे के किए की सजा पा रहे हैं। इनमें से कुछ काफी जानी-मानी शख्सियतें हैं, तो कुछ का नाम उनके घरवाले भी भूल चुके हैं।
यहां बंद कोई कैदी एमबीए है, तो किसी को प्राइमरी शिक्षा भी नसीब नहीं हुई है। इंतजार आजादी का इन सभी बेमेल कैदियों के बीच एक बात तो कॉमन है। वह बात है, आजादी का इंतजार यहां बंद एक-एक शख्स उस दिन का इंतजार कर रहा है, जब वह सलाखों के उस पार की दुनिया देख पाएगा।
इंतजार की इन अंधेरी घड़ियों में तिहाड़ जेल की यह फैक्टरी उम्मीद की इकलौती किरण है। इसी बात की मिसाल है राजी नाम का कैदी। यह शख्स यहां हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा काट रहा है। राजी छह साल पहले तिहाड़ लाया गया था। राजी ने बताया, ‘जो कुछ भी हुआ, वह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है।
लेकिन अब तो उसे बदला नहीं जा सकता न। कभी-कभी तो दिल चाहता है कि छत पर खड़ा होकर चिल्लाऊं कि मुझे एक ऐसे जुर्म केलिए सजा मिली, जिसे मैंने कभी किया ही नहीं। लेकिन अब तो इस बात के लिए भी बहुत देर हो चुकी है।’
मददगार फैक्टरीकाफी धीमी आवाज में वह कहता है,’ अगर यहां फैक्टरी नहीं होती तो मैं कब का पागल हो चुका होता।’ राजी दूसरे कैदियों को भी अपनी यूनिट में शामिल होने केलिए प्रोत्साहित करता है। वह काम ही नहीं करता, बल्कि अपनी यूनिट में शामिल होने वैले कैदियों को लकड़ी काटने से लेकर पॉलिशिंग तक की ट्रेनिंग भी देता है।
राजी ने कहा कि इस फैक्ट्री की वजह से कम से कम उसे हर आने वाले दिन का इंतजार तो रहता है। हालांकि अफसोस की बात है कि तिहाड़ में मौजूद हर शख्स राजी की तरह नहीं है।
महबूब आलम जैसे अपेक्षाकृत नए कैदी (वह पिछले साल यहां आया था) अब भी खुद को जेल केमाहौल में ढाल नहीं पा रहे हैं। उसे अपने जुर्म का बेहद अफसोस है। उसने बताया कि गुस्से में उसने किसी की हत्या कर दी थी।
उसने कहा, ‘कभी-कभी मुझे फूटफूट कर रोने का मन करता है।’ हालांकि आलम मानता है कि फैक्ट्री कहीं न कहीं इन सारी बातों से ध्यान बांटने में मददगार साबित होती है। लेकिन कई बार इस कड़वी हकीकत के साथ जीना बहुत मुश्किल लगता है।
एहसान की तरह आलम को भी कुरान पढ़कर काफी सुकून महसूस होता है। लेकिन एहसान की तरह कभी-कभी उसे भी लगता है कि किस्मत उसे और क्या-क्या दिखाएगी। हालांकि, वह तुरंत यह भी जोड़ता है कि उसकी इस बात को अन्यथा नहीं लिया जाए।
फैक्टरी है नेमतआलम के मुताबिक यह फैक्टरी उसके लिए नेमत ही है, फिर भी आजादी की कोई कीमत नहीं हो सकती। उसने बताया कि,’ अगर मुझे यहां बुनाई के लिए हर रोज हजार रुपये भी मिले, तब भी मैं यहां रहना पसंद नहीं करुंगा।
मुझे असली खुशी तो अपने घर में अपने बीवी-बच्चों केसाथ ही मिलेगी।’ आलम की यह बात शायद पूरे हफ्ते या महीनों या फिर सालों तक हमारे दिमाग को झकझोरती रहेगी। बहरहाल हम जेल कीपेपर यूनिट की तरफ आगे बढ़ाने को मजबूर थे। यहां हमारी मुलाकात मेरठ के पूर्व निवासी केशव त्यागी से हुई।
उसने हमें 40 टन होजियरी कॉटन का कचरा दिखाया, जिसे इस पेपर यूनिट में रीसाइकल किया जाता है। उसने बताया कि हत्या के जुर्म में वह उम्रकैद की सजा काट रहा है और पिछले 13 साल से वह तिहाड़ में है। उसे छूटने में अभी दो साल और लगेंगे।
हुनरमंदी की लगनत्यागी पेपर यूनिट को छोड़कर जाना नहीं चाहता, क्योंकि यहां रहकर वह पेपर बनाने के काम में विशेषज्ञता हासिल कर लेगा और जेल से छूटने के बाद वह बाहर में अपने इस हुनर का इस्तेमाल करेगा। इसलिए तो वह पूरे लगन से काम में जुटा रहता है।
उसे अपने परिवार से मिलने का बेसब्री से इंतजार है।वह मानता है कि उसके साथी कैदी उसे खुशकिस्मत मानते हैं। उसके मुताबिक, जब भी कोई कैदी छूटता है, बाकी कैदियों को लगता है कि उनकी रिहाई की दिशा में एक कदम और बढ़ा है।
यह बताते वक्त कि इस पेपर को अपोलो के अस्पतालों और दिल्ली स्थित राजीव गांधी कैंसर संस्थान में खरीदा जाता है, केशव त्यागी की आंखें छलछला गईं। इसके अलावा तिहाड़ की पेपर यूनिट में सरकारी फाइलें भी बनती हैं।
इत्तेफाक से लोगों की जिंदगी और मौत के बारे में फैसला करने वाले जज जिस कुर्सी पर बैठते हैं, वह कुर्सी भी तिहाड़ की कारपेंट्री यूनिट में बनाई जाती है। निखरती खूबसूरतीजेल से बाहर निकलते वक्त रास्ते में हमारी मुलाकात राय सिंह नामक नौजवान से हुई।
अलीगढ़ का रहने वाला यह नौजवान पिछले नौ साल से तिहाड़ जेल में बंद है। वह तिहाड़ की बर्तन बनाने वाली इकाई का हिस्सा है। उसने बताया कि यह यूनिट रोजाना एक खास किस्म के 100 कंटनेर बनाती है।
उसके मुताबिक, हालांकि अगर यूनिट में और बेहतर उपकरण मुहैया करा दिए जाएं तो इसके उत्पादन में और बढ़ोतरी हो सकती है। उसका कहना है कि फैक्टरी की सफलता का राज यही है कि यहां सभी लोग दिल से काम करते हैं।
यहां फायदे-नुकसान को ध्यान में रखकर काम नहीं किया जाता है। राय सिंह ने कहा, ‘किसी बर्तन को बनाते वक्त यह बात हमेशा मेरे दिमाग में रहती है कि मैं उसे एक बेहतर शक्ल दूं ताकि उसे एक आकार देने की पूरी जिम्मेदारी मेरी है।
‘ उसने मुस्कुराते हुए हमें अपनी कला का कुछ बेहतरीन नूमना पेश किया। हालांकि रंग कुछ फैल सा गया था, लेकिन बर्तनों की खूबसूरती इससे और निखर गई थी।
जब हम जेल से बाहर निकले तो हमारी नजर तिहाड़ की दीवार को पार करती एक चिड़िया पर पड़ी। वही दीवार जो इस जेल के छोटे से जहान को बाकी की दुनिया से अलग करती है, इस चिड़िया के सामने छोटी थी।
शायद आजादी इसी चिड़िया का नाम है। जब तक तिहाड़ जेल इन कैदियों के लिए घर है, ये फैक्टरियां उनके गम को भुलाने और जिंदगी को आसान बनाने का एकमात्र जरिया हैं।