गुजरते समय के साथ अमेरिकी शुल्क (टैरिफ) से वैश्विक स्तर पर टैरिफ युद्ध की जो स्थिति बनती जा रही है उसका नतीजा अनिश्चित दिख रहा है। हालांकि, एक बात तो स्पष्ट है कि इसका भारत पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। ऐसे में नीति निर्माताओं को वृद्धि में होने वाले नुकसान को कम करने और इस झटके को अवसर में बदलने के तरीकों की तलाश करनी होगी।
भारत की मुख्य रूप से घरेलू बाजार आधारित अर्थव्यवस्था को देखते हुए, टैरिफ युद्ध को खारिज करना लुभावनी बात लग सकती है। हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 2.3 फीसदी ही अमेरिका को निर्यात होता है और यह भी इसके प्रभाव को बढ़ाकर बता सकता है क्योंकि भारत से अमेरिका भेजे जाने वाले आईफोन जैसे उत्पादों में घरेलू स्तर पर जोड़ा गया मूल्य कम होता है।
इसके अलावा, अगर अमेरिका 26 फीसदी शुल्क लगाता है तब भी सभी निर्यात प्रतिकूल तरीके से प्रभावित नहीं होंगे। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इसका प्रभाव सीमित होगा क्योंकि भारत के लिए प्रस्तावित शुल्क चीन, वियतनाम या बांग्लादेश के लिए तय किए गए शुल्क से कम है ऐसे में संभवतः भारत को एक प्रतिस्पर्धी बढ़त मिल सकती है।
हालांकि इस तरह का आशावाद उपयुक्त नहीं है। भारत की इस तरह की कथित प्रतिस्पर्धी बढ़त कभी साकार नहीं हो सकती क्योंकि अन्य एशियाई देश भी अमेरिका के साथ कम टैरिफ को लेकर वार्ता कर सकते हैं। यह भी संभावना है कि कनाडा और मेक्सिको अमेरिका के साथ अपना तरजीही संपर्क बनाए रखेंगे। इसका मतलब है कि अगर भारत के निर्यात को 26 प्रतिशत शुल्क का सामना करना पड़ता है तब वाहन कलपुर्जों के निर्माताओं जैसे निर्यातक, अमेरिकी बाजार में पिछड़ जाएंगे जो कनाडा और मेक्सिको के उत्पादकों के साथ प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं।
भारत की निर्यात वाली सेवा क्षेत्र की कंपनियां भी प्रभावित होंगी। अगर इतिहास पर नजर डालें तो अंदाजा होता है कि जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था धीमी होती है, जो अब लगभग अपरिहार्य ही लग रही है, तब अमेरिकी कंपनियां निवेश में देरी करती हैं। इससे भारत की आईटी फर्मों और वैश्विक क्षमता केंद्रों (जीसीसी) से सहयोग लेने की मांग कम हो जाती है। यही कारण है कि हाल में देखी गई बाजार की गिरावट में आईटी क्षेत्र के शेयर सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि शुल्क युद्ध के परिणाम, भारतीय निर्यातकों को अमेरिकी बाजार में होने वाली मुश्किलों से कहीं आगे की चीजों से जुड़े हैं। अमेरिका का अपने आप में केंद्रित होना और अमेरिका-चीन के बीच तनाव बढ़ने से वैश्विक अर्थव्यवस्था कमजोर होगी। नतीजतन, भारतीय कंपनियां कई मोर्चों पर प्रभावित होंगी जैसे कि वैश्विक बिक्री में गिरावट और कीमतों में कमी की स्थिति बनेगी। यह सिर्फ निर्यातकों को ही प्रभावित नहीं करेगा। इससे घरेलू कंपनियों को भी नुकसान होगा क्योंकि अमेरिका में रोके गए चीन से आने वाले सामान, भारत और दूसरे अन्य मुक्त बाजारों में भर जाएंगे जिससे घरेलू कंपनियों का मुनाफा कम होगा।
हालांकि माना जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतों में गिरावट से कुछ राहत मिलेगी जैसे कि वेस्ट टेक्सस इंटरमीडिएट कच्चा तेल कम होकर 60 डॉलर प्रति बैरल से थोड़ा ऊपर है। लेकिन सेंसेक्स में गिरावट को देखते हुए, मुनाफे में अब भी भारी गिरावट आने की संभावना है। इसके जवाब में, भारतीय कारोबार नकदी बचाने के लिए निवेश में कटौती करेंगे और कुछ परिवार सतर्कता बरतते हुए कम खर्च करेंगे। नतीजतन, अर्थव्यवस्था के सभी प्रमुख कारकों जैसे कि निर्यात, निवेश और खपत में मंदी आने की संभावना बनेगी।
बात यहीं पर खत्म नहीं होगी। वैश्विक अनिश्चितता के समय में, विदेशी निवेशक अक्सर भारत जैसे जोखिम भरे उभरते बाजारों से अपना पैसा निकालकर सुरक्षित स्थानों पर ले जाते हैं। इस बार जोखिम और भी अधिक है क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और अमेरिकी फेडरल रिजर्व विपरीत दिशाओं में आगे बढ़ते दिख रहे हैं। आरबीआई ने पहले ही दो बार ब्याज दरें कम कर दी हैं और उदार रुख अपनाया है, जो जीडीपी वृद्धि और मुद्रास्फीति में कमी के कारण आगे और दरें कम करने के संकेत देता है। इस बीच, अमेरिकी शुल्क के कारण कीमतों में वृद्धि हो सकती है जिससे अमेरिका के केंद्रीय बैंक, फेडरल रिजर्व की दरें कम करने की क्षमता सीमित हो सकती है और यहां तक कि फेड उसे बढ़ाने के लिए भी प्रेरित हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच ब्याज दर का अंतर कम होने से रुपये पर बहुत दबाव पड़ेगा।
अब सवाल यह है कि नीति निर्माताओं को ऐसी स्थिति में कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए? उनकी तारीफ करनी होगी कि भारतीय अधिकारियों ने निर्यात के खतरे को स्वीकार किया है हालांकि जवाबी कार्रवाई से परहेज किया है और ऐसा लगता है कि अमेरिका के साथ व्यापार वार्ता तेजी से बढ़ाई गई है। इन वार्ताओं को सफल बनाने और भारत को लाभ पहुंचाने के लिए टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को कम करना अहम होगा जिससे अमेरिका भी इसी तरह के कदम उठाने के लिए प्रोत्साहित हो। भारत को यूरोप और एशिया के प्रमुख भागीदारों के साथ व्यापार समझौतों में तेजी लानी चाहिए। व्यापक तौर पर इसे वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक विश्वसनीय व्यापार भागीदार के रूप में खुद को स्थापित करना होगा।
विदेशी मुद्रा दरों में उतार-चढ़ाव के संबंध में बात की जाए तो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को रुपये की विनिमय दर को स्वतंत्र रूप से चलने देना चाहिए क्योंकि कमजोर रुपया भारत के निर्यात और फिर वृद्धि में मददगार साबित हो सकता है, खासतौर पर अगर चीन जैसे अन्य उभरते बाजार भी अधिक निर्यात प्रतिस्पर्धा हासिल करने के लिए अपनी मुद्रा को कमजोर होने दें।
इसके अलावा, आरबीआई द्वारा डॉलर बेचकर और रुपये की खरीदारी कर मुद्रा अवमूल्यन को रोकने का कोई भी प्रयास घरेलू स्तर पर नकदी का स्तर कम करेगा और मौद्रिक नीति के असर को बाधित करेगा। यह वास्तव में ऐसे समय में एक अवांछनीय कदम है जब आरबीआई कम ब्याज दरों के माध्यम से वृद्धि में सहयोग करने की कोशिश कर रहा है। अप्रत्याशित विदेशी मुद्रा हस्तक्षेप, आर्थिक अनिश्चितता को बढ़ा सकते हैं।
हालांकि, वृद्धि को बनाए रखने के लिए सरकार की योजनाएं कम स्पष्ट हैं। इसने उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना (पीएलआई) को समाप्त करने की घोषणा की है। योजना की कमियों को देखते हुए यह एक समझदारी भरा निर्णय जरूर है लेकिन सवाल बने हुए हैं। सरकार निजी क्षेत्र के निवेश को कैसे प्रोत्साहित करेगी? चीन से कंपनियों के पलायन का लाभ उठाने की उसकी क्या योजना है?
भारत अब तक कंपनियों को ‘मेक इन इंडिया’ के लिए राजी करने के दो अवसर चूक चुका है, पहला 2010 के दशक में, जब चीन ने सामान्य तकनीकी उत्पादों में प्रतिस्पर्धात्मकता खोनी शुरू कर दी थी और दूसरा हाल ही में जब चीन से जुड़ा राजनीतिक जोखिम बढ़ने लगा। अप्रत्याशित रूप से, एक तीसरा सुनहरा अवसर अब हमारे सामने आ चुका है। इस बार, हमें सुनिश्चित करना होगा कि हम मौका न गंवाएं।
(लेखिका आईजीआईडीआर, मुंबई में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)