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प्रौद्योगिकी के साथ नया आकार लेता वित्तीय क्षेत्र

फिनटेक कंपनियों ने बहुत पहले बैंकिंग को बदल दिया था। अब इन कंपनियों पर ग्राहकों के बढ़ते विश्वास और उनकी तकनीकी क्षमता ने इस क्षेत्र को नए सिरे से प्रभावित किया है।

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अजय शाह   
Last Updated- December 26, 2023 | 9:34 PM IST

विकसित देशों में बैंकिंग व्यवस्था बदल रही है। सबसे पहले वहां ‘फिनटेक क्रांति’ आई। इसके पीछे विचार यह था कि पहले जो काम पारंपरिक रूप से बैंकों द्वारा किए जाते थे उन्हें नई तरह की कंपनियों के द्वारा अंजाम दिया जाए। अब हमने देखा कि इलेक्ट्रॉनिक भुगतान के जरिये बैंकों की देनदारियों की स्थिरता का नुकसान हो रहा है। तीसरी समस्या इस संभावना से जुड़ी है कि कहीं महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय तकनीक आधारित उपभोक्तामुखी कंपनियां बैंकों का स्थान न ले पाएं। केंद्र नियोजित भारतीय वित्तीय बाजार ने ऐसी बातों को आमतौर पर दूर ही रखा है।

एम्सटर्डम विश्वविद्यालय के महान विचारक अर्नोड डब्ल्यू.ए. बूट ने हाल ही में उभरते बाजारों के सम्मेलन में आधुनिक समाज में बैंकों की जगह के बारे में अपनी बात रखी। उन्होंने जो विचार प्रकट किए वे इस बारे में सवाल पैदा करते हैं कि भारत में इसे लेकर क्या हो सकता है।

समस्या

अर्थशास्त्री मर्टन मिलर ने बैंकिंग को 19वीं सदी का ऐसा उद्योग करार दिया था जो आपदा का शिकार हो सकता है। जब बैंकों का नए सिरे से पूंजीकरण करने के लिए करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल किया जाता है तो इसे लेकर काफी हो हल्ला होता है।

इन समस्याओं को हल करने की प्रक्रिया बहुत लंबी रही है। इसे लेकर विचारक दो खेमों में बंटे हुए हैं: एक तो वे जो मानते हैं कि बैंकिंग नियमन और निस्तारण को सही ढंग से अंजाम दिया जा सकता है। दूसरे वे जो मानते हैं कि एकमात्र सुरक्षित रास्ता समाज में बैंकों की भूमिका कम करने में निहित है।
इस बहस में तीन व्यवधान रहे हैं:

फिनटेक क्रांति

पहली थी ‘फिनटेक क्रांति’। इसके पीछे विचार यह है कि जो कंपनियां बैंक नहीं हैं वे ऐसे काम कर सकती हैं जो पारंपरिक तौर पर बैंकों द्वारा किए जाते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर यह व्यावहारिक है कि आधुनिक तकनीक की मदद से ऐसी कंपनियां तैयार की जाएं जो भुगतान करें, आवास ऋण या वाहन ऋण आदि दिला सकें।

ये कंपनियां सीधे बॉन्ड बाजार में जा सकती हैं। वे या तो सीधे अपने बॉन्ड जारी कर सकती हैं या फिर प्रतिभूतिकरण कर सकती हैं। पारंपरिक तौर पर फिनटेक के पास वैसी सूचनाएं नहीं होती थीं जैसी आमतौर पर बैंकों को ग्राहकों के बारे में होती हैं लेकिन वे आईटी सिस्टम बनाने तथा नई तरह की सूचनाओं के प्रसंस्करण के मामले में बेहतर थीं।

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फिनटेक क्रांति की शुरुआती 2005 के आसपास हुई और इसने उस समय गति पकड़ी जब विकसित देशों के नियामकों ने गैर बैंकिंग कंपनियों के लिए अधिक गुंजाइश तैयार की। इस क्षेत्र में बड़ा विचार है ‘मुक्त बैंकिंग’ के जरिये बैंकों को सूचना के मामले में हासिल बढ़त को समाप्त करना।

इसमें बैंकों पर राज्य की यह जबरदस्ती शामिल है कि किसी ग्राहक के बारे में सूचना को बैंक की नहीं बल्कि उस ग्राहक की संपत्ति माना जाए और उसी मुताबिक इस्तेमाल किया जाए। इस प्रक्रिया में जहां ओपन प्रोटोकॉल शामिल है, वहीं इसमें सरकारी एकाधिकार, संरक्षणवाद या जबरदस्ती करने के सरकारी तौर तरीके शामिल नहीं हैं।

अस्थायी मांग जमा

दूसरा बड़ा विचार सिलिकन वैली बैंक के पतन के साथ सामने आया। एक बार उपभोक्ताओं के पास इलेक्ट्रॉनिक भुगतान व्यवस्था आ जाने के बाद बैंकों का कामकाज तेज हो सकता है और सप्ताहांत पर अबाध ढंग से जारी रह सकता है। दुनिया भर के बैंकों में जोखिम प्रबंधन का काम करने वाले अर्थशास्त्र के विद्वानों को यह बात समझ में आ गई कि मांग संबंधी जमा अस्थिर है और उन्होंने बुनियादी बनाम अस्थिर काम को लेकर अपने अनुमानों में संशोधन किया। इन्हीं अनुमानों का इस्तेमाल जोखिम प्रबंधन मॉडल में किया जाता है।

उपभोक्ताओं का स्वामित्व

फिनटेक कंपनियों ने बैंकों के काम का कुछ हिस्सा ले लिया लेकिन ग्राहक अभी भी बैंकों के ही थे क्योंकि वही उनके खाते की जांच कर सकते थे और इससे संबंधित अन्य गतिविधियों को अंजाम दे सकते थे। ग्राहकों के दिलोदिमाग पर बैंकों की गहरी छाप है। अब हालात में बदलाव आ सकता है। गूगल, एमेजॉन और ऐपल जैसी कंपनियां अब हर ग्राहक के साथ जुड़ी हुई हैं और उनके बीच गहरे विश्वास का रिश्ता है।

बड़ी तकनीकी कंपनियों को आईटी की बेहतर समझ है। यही वजह है कि अब ऐपल अमेरिका में 4.15 फीसदी ब्याज दर वाला बचत खाता शुरू कर रही है। गूगल बहुत पहले ‘शैतान मत बनो’ का नारा दे चुकी है जबकि ऐपल ने एफबीआई के साथ डेटा साझा करने से इनकार कर दिया था। अधिकांश उपभोक्ता इन पर विश्वास करते हैं।

इतना ही नहीं इन कंपनियों को ग्राहकों के बारे में सूचनाओं पर काफी नियंत्रण होता है। फिनटेक क्रांति में जहां नई कंपनियां बैंकों के भीतर की जानकारी जुटाने का प्रयास कर रही हैं, वहीं नए प्रतिद्वंद्वियों के पास बैंकों की तुलना में ग्राहकों के बारे में अधिक जानकारी रहती है।

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निष्कर्ष

भविष्य के वित्तीय क्षेत्र को लेकर समकालीन रणनीतिक समझ तो यही है। ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि बैंकिंग नियमन की बार-बार की नाकामी से निपटने के लिए बेहतर बैंक नियामक की जरूरत है। ऐसे भी लोग हैं जो बैंकों पर निर्भरता कम करके समाज का जोखिम कम करना चाहते हैं।

फिनटेक क्रांति के जरिये गैर बैंकिंग कंपनियों को आईटी की मदद से बैंक जैसे काम करने थे। उन्हें आदर्श तौर पर बैंकों के भीतर के आंकड़ों तक पहुंच बनानी थी और फिर इसे बॉन्ड बाजार से जोड़ना था। ग्राहकों की बढ़ती तादाद के कारण बैंकों की स्थिर जमा की मांग में कमी आई और अब ऐसी कंपनियां भी हैं जिन पर ग्राहक अधिक यकीन करते हैं।

भारत में, हम इन घटनाओं को आश्चर्य से देखते हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे हम यूक्रेन में ड्रोन युद्ध देखते हैं। भारतीय बैंकिंग उद्योग लगभग वहीं है जहां 1960 के दशक के अंत में उन्नत अर्थव्यवस्थाएं थीं। वित्तीय सुधार में दशकों की कठिनाइयों के बाद यह उपभोक्ता ऋण के मामले में अच्छा प्रदर्शन कर रहा है लेकिन कंपनियों को ऋण मुहैया कराने में विफल हो रहा है।

फिनटेक क्रांति राज्य के दबाव से प्रभावित हुई, जिसने गैर-बैंकों को भुगतान प्रणाली और कई बैंक जैसी गतिविधियों से और बॉन्ड-मुद्रा-डेरिवेटिव संबंध और प्रतिभूतिकरण की कठिनाइयों से अवरुद्ध कर दिया। कई प्रकार के संरक्षणवादी कदम विदेशी कंपनियों को भारत में काम करने से रोकते हैं। वित्तीय क्षेत्र में मौजूद नीतिगत रणनीति निवेश/जीडीपी अनुपात को जीडीपी वृद्धि दर में तब्दील करने की भारतीय वित्त की क्षमता को बाधित करती है।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : December 26, 2023 | 9:34 PM IST