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कम जन्म दर के बीच गोद लेने में बढ़ती जटिलताएं

जन्म दर में भारी गिरावट, गोद लेने की प्रक्रिया का खराब नियमन और अन्य बाधाओं से गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्याएं बढ़ सकती हैं। बता रहे हैं के पी कृष्णन

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के पी कृष्णन   
Last Updated- December 25, 2023 | 10:48 PM IST

कई दशकों से हमें यह बात बताई गई है कि भारत में जनसंख्या की अधिक समस्या है। हालांकि, हाल के दिनों में चीजें बहुत बदल गई हैं। चीन और यूरोप में हमें कम जन्म दर और प्रजनन दर में तेज गिरावट के प्रतिकूल परिणाम देखने को मिले हैं।

हालांकि भारत में 2011 के बाद से जनगणना नहीं कराई गई है और कुछ सबूत ऐसे मिल रहे हैं जिससे प्रजनन दर में तेज कमी के संकेत हैं। महिला-पुरुष के असंतुलित अनुपात के कारण यह समस्या और बढ़ जाती है, क्योंकि महिलाएं ही बच्चे पैदा करती हैं। यह बात भी व्यापक रूप से स्वीकार नहीं की जाती है कि तमिलनाडु में कुल प्रजनन दर अब जर्मनी से भी कम है।

हमने इतने दशकों तक सिर्फ अधिक जनसंख्या की समस्या पर इस तरह विचार किया है कि अब हम इसके दूसरे पहलू की ओर देखने के आदी नहीं हैं। आने वाले वर्षों में भारत में कम बच्चों की समस्या भी बढ़ने वाली है और इसके गंभीर प्रभाव हो सकते हैं। हमें इस बुनियादी बात पर गौर करना होगा कि लोग आमतौर पर बच्चे पैदा करने और इससे जुड़ी पारिवारिक संरचनाओं के बारे में निर्णय कैसे लेते हैं तभी हम इस दिशा में कुछ बेहतर कर पाएंगे।

इस दुनिया में बड़े हो रहे प्रत्येक बच्चे के लिए हमें उस पारिवारिक संरचना के बारे में सोचना होगा जिसमें इस बच्चे की परवरिश होगी और हमें उन बाधाओं के बारे में सोचना होगा जिसके चलते अधिक लोग बच्चे पैदा करने-पालने वाले परिवार का हिस्सा बनने से खुद को रोकते हैं।

यह मूल रूप से व्यक्तिगत प्रश्न हैं और प्रत्येक व्यक्ति को ही यह तय करना होता है कि उन्हें क्या करना है। लेकिन सार्वजनिक नीति के दृष्टिकोण से देखा जाए तो परिवार बनाने को लेकर राज्य की ओर से दबाव देने की पूरी प्रणाली है जिस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

उदाहरण के तौर पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत में सरोगेसी (किराये की कोख) पर प्रतिबंध लगाया गया है जिसके चलते कुछ वयस्क अपने मन मुताबिक परिवार नहीं बना पाते हैं। इसी तरह, हमें गोद लेने वाली व्यवस्था पर भी ध्यान देना चाहिए। कई अनाथ बच्चों को किसी बिना बच्चे वाली दंपती को सौंप कर सुंदर परिवार बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। हालांकि इन बच्चों को किसी कलहपूर्ण पारिवारिक परिवेश में देने से बचने की कोशिश करने के लिए सावधानी बरती जानी चाहिए।

किसी अनाथ या परित्यक्त बच्चे को किसी परिवार के साथ मिलाने की सफलता को एक नैतिक जीत के रूप में देखा जाना चाहिए।

भारत में अनाथ और छोड़ दिए गए बच्चों की संख्या हैरान करती है और यह सभी बच्चों का संभवतः चार प्रतिशत तक हिस्सा है जो संख्या लाखों में है। समस्या यह है कि भारत की मौजूदा नियामकीय संरचनाओं में कई खामियां हैं और यह गोद लेने की प्रक्रिया में भी हस्तक्षेप करती है।

केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की केंद्रीय दत्तक-ग्रहण एवं संसाधन प्राधिकरण (सीएआरए) ने उच्चतम न्यायालय को सूचना दी है कि एक वर्ष में कुल गोद लेने की संख्या कभी भी 5,000 से अधिक नहीं हुई है। इसके अलावा, सीएआरए के अनुसार, अक्टूबर 2023 तक गोद लेने के लिए केवल 2,146 बच्चे ही उपलब्ध थे जबकि इन बच्चों को गोद लेने के लिए 30,000 से अधिक संभावित दंपती थे। भारत की राज्य एजेंसियों के निम्न मानकों के अनुसार भी यह अविश्वसनीय रूप से एक खराब प्रदर्शन है।

गोद लेना, कानूनी रूप से नियमित प्रक्रिया के तहत आता है जिसमें सार्वजनिक प्राधिकरण को यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी जाती है कि इस प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो। इस प्रक्रिया में निर्णय के दो महत्त्वपूर्ण बिंदु हैं।

पहला, यह तय करना होता है कि बच्चा अनाथ, या छोड़ दिए गए बच्चे की श्रेणी में आता है या नहीं, जिससे उसका गोद लेने के दायरे में शामिल होना तय होगा। दूसरी बात यह है कि इस बात का आकलन करना भी जरूरी है कि गोद लेने वाला परिवार बच्चे की बेहतरी के लायक है या नहीं।

सरकारी नीतियों की समस्याओं की जटिलता के मूल्यांकन के लिए केलकर एवं शाह के चार-परीक्षण वाले फ्रेमवर्क में यह एक बड़ी समस्या है। ऐसे करीब 10 लाख से अधिक बच्चे हैं और इसमें बड़ी संख्या में लेनदेन भी शामिल होता है। इस पूरी प्रक्रिया में अग्रिम पंक्ति के सरकारी कर्मचारियों के विवेक पर काफी कुछ निर्भर करता है। बच्चों और माता-पिता के लिए दांव बहुत अधिक हैं। चौथी जांच गोपनीयता से जुड़ी होती है जिसको लेकर कोई समस्या नहीं है क्योंकि इसमें पर्याप्त पारदर्शिता हो सकती है। इस प्रकार, राज्य की निगरानी एक कठिन समस्या है खासतौर पर इस लिहाज से कि चार में से तीन जटिल जांच पूरे किए जाने ही होते हैं।

कानून में 2021 के संशोधन ने प्रशासनिक एवं नियामकीय प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने में लंबी दूरी तय की। पिछले महीने उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी आदेश में, भारत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन-न्यायाधीशों के पीठ ने अनाथ और छोड़े जाने वाले बच्चों की शीघ्र पहचान करने, राज्यों में प्रशासनिक बुनियादी ढांचे का नवीनीकरण करने, गोद लेने की प्रक्रिया को पूरा करने से जुड़ी निर्धारित समयसीमा की जवाबदेही तय करने और पर्याप्त डेटा संकलन का आदेश दिया है ताकि जिन बच्चों की निगरानी की जा रही है उन बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जा सके। ऐसे आदेशों का क्रियान्वयन स्पष्ट रूप से सही दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है जो भारतीय प्रशासनिक राज्य के माहौल के लिए हमेशा एक चुनौती है।

एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा जिस पर ध्यान देने की जरूरत है वह है किशोर न्याय अधिनियम में ‘अनाथ’ को परिभाषित करने में आने वाली समस्या। वर्तमान, परिभाषा व्याख्या के लिए खुली है और कई ऐसे निर्णय लिए गए हैं जो बच्चे के हित में नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, डेटा में यह भी शामिल होना चाहिए कि किन धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों के तहत गोद लिया गया है। लंबी अवधि में सहयोग के सिद्धांत के अनुरूप ही गोद लेने की मंजूरी केंद्र सरकार के बजाय राज्य और शहर का विषय होना चाहिए।

प्रौद्योगिकी और सिविल सोसाइटी संगठन (सीएसओ) इसमें मददगार साबित हो सकते हैं। तेलंगाना, महाराष्ट्र और कर्नाटक में सक्रिय एक सिविल सोसायटी संगठन ने बाल जीवन चक्र प्रबंधन समाधान नाम से एक तकनीकी समाधान का डिजाइन तैयार किया है। यह विशेष रूप से यह सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है कि बच्चों पर कम उम्र से ही लगातार और निरंतर निगरानी की जा सके।

हालांकि, गोद लेने की प्रक्रिया में राज्य ही केंद्रीय भूमिका में है। एक संवेदनशील मानवीय मामले को अफसरशाही से जोड़ने के भी कई निहित खतरे हैं और राज्य की भी अपनी एक सीमा है। गोद लिए जाने के मामले में बड़ा लेनदेन शामिल है और इसमें विवेकपूर्ण फैसला भी करना पड़ता है ऐसे में इसे सिविल सोसायटी संगठनों के साथ साझा किया जा सकता है।

हम में से सभी कम से कम एक अच्छे सिविल सोसाइटी की पहचान कर सकते हैं जिस पर इस तरह की चीजों के लिए भरोसा किया जा सकता है और 10 ऐसे संगठन की पहचान की जा सकती है जिन पर भरोसा नहीं करना चाहिए। हमें एक भरोसेमंद और पारदर्शी प्रणाली की जरूरत है ताकि यह फैसला किया जा सके कि किस सिविल सोसाइटी पर भरोसा किया जा सकता है।

अगर भावनात्मक होकर नहीं बल्कि तार्किक तरीके से सोचें, तब गोद लेना एक महत्त्वपूर्ण उपाय लगेगा लेकिन कम जन्म दर की चुनौती से निपटने के लिए और भी समाधान हैं। सरकार ने सरोगेसी और इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) पर जो अनावश्यक पाबंदियां लगा रखी हैं, उन्हें हटाना चाहिए। विवाह की अवधारणा और किसी अकेले व्यक्ति द्वारा बच्चों के पालन-पोषण फैसले पर से सरकारी सीमाओं को हटाना ही आगे का रास्ता है।

(लेखक सीपीआर में मानद प्रोफेसर हैं। कुछ लाभकारी और गैर-लाभकारी बोर्ड के सदस्य भी हैं)

First Published : December 25, 2023 | 10:48 PM IST