प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो
अपनी नीति में व्यापक परिवर्तन करते हुए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इसी माह 11 जुलाई को कोयला आधारित बिजली संयंत्रों में फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (एफजीडी) सिस्टम के लिए 2015 के अपने आदेश में संशोधन किया है। वैज्ञानिक अध्ययनों और हितधारकों से परामर्श के बाद नए दिशानिर्देश जारी किए गए हैं, जिनमें क्षेत्र-विशेष और साक्ष्य आधारित नियम बनाए गए हैं ताकि देश की जरूरतों और पर्यावरण प्राथमिकताओं के बीच संतुलन कायम किया जा सके।
नियमों में यह बदलाव वायु प्रदूषण पर दशकों की न्यायिक और नियामकीय कार्रवाई के बाद हुआ है। दिल्ली के वायु प्रदूषण को लक्षित करते हुए एमसी मेहता जनहित याचिका (1985) को थर्मल पावर प्लांट (टीपीपी) से होने वाले उत्सर्जन को शामिल करने के लिए विस्तारित किया गया, जिससे न्यायिक और नियामकीय जांच हुई। इसके बाद ही पर्यावरण मंत्रालय ने 2015 में अधिसूचना जारी कर 2017 तक सभी थर्मल प्लांट के लिए एफजीडी की स्थापना अनिवार्य कर दी। इन निमयों के तहत सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन की सीमा 600 से घटा कर 100 मिलीग्राम प्रति घन मीटर तक कर दी गई।
इसका असर यह हुआ कि उच्च पूंजी लागत, तकनीकी बाधाओं और अस्पष्ट लागत वसूली का हवाला देते हुए सार्वजनिक और निजी बिजली उत्पादकों की ओर से 25 से अधिक याचिकाएं दाखिल की गईं। इनमें से कई ने टैरिफ पास-थ्रू शुल्क के लिए कानून में बदलाव तक की मांग भी उठाई। पर्यावरणविदों ने कानून को सख्ती से लागू कराने के लिए राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) का रुख किया।
इस पर एनजीटी ने मंत्रालय को निर्देश दिया कि मानदंडों का पालन नहीं करने वालों को नए टीपीपी के लिए पर्यावरण मंजूरी न दी जाए। इन कानूनी विवादों के साथ-साथ अतिरिक्त उत्पादन क्षमता की कमी और रेट्रोफिटिंग के लिए कामकाज बंद रखने की जरूरत के कारण मंत्रालय ने एफजीडी की समय-सीमा 2022 तक बढ़ा दी। वर्ष 2020 में बिजली उत्पादक संघ (एपीपी) ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर इसका विस्तार 2024 तक करने की मांग की लेकिन इसे खारिज कर दिया गया।
इस उठापटक के बीच एफजीडी स्थापना का काम काफी पिछड़ गया। अप्रैल 2021 में पर्यावरण मंत्रालय ने नियमों में संशोधन करते हुए 2015 वाली अधिसूचना को तीसरी बार रद्द कर दिया और टीपीपी को तीन समूहों में वर्गीकृत किया:
श्रेणी ए: राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र या 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के 10 किलोमीटर के भीतर टीपीपी के लिए समय-सीमा दिसंबर 2022 तक।
श्रेणी बी: गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों/प्रदूषण नियंत्रण लक्ष्यों में पिछड़े शहरों के 10 किलोमीटर के दायरे में टीपीपी के लिए समय-सीमा दिसंबर 2023 तक।
श्रेणी सी : अन्य सभी टीपीपी के लिए समय-सीमा दिसंबर 2024 तक।
वर्ष 2022 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ए, बी और सी श्रेणी के टीपीपी के लिए यह समय-सीमा क्रमशः 2024, 2025 और 2026 तक बढ़ाई थी। इस वर्ष अप्रैल में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के आसपास के टीपीपी की समीक्षा की जिसमें नियमों के अनुपालन संबंधी खामियां पाई गईं। अदालत ने फटकार लगाते हुए पूर्व में बढ़ाई गई समय-सीमा रद्द कर दी और सरकार को निर्देश दिया कि वह नियमों का पालन नहीं करने वाले 9 संयंत्रों को फौरन नोटिस जारी करे।
इस बीच, एफजीडी नीति का पुनर्मूल्यांकन शुरू किया गया। इसके बाद ही 11 जुलाई वाले संशोधित दिशानिर्देश आए। नए नियमों में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2022 के टीपीपी वर्गीकरण को तो बरकरार रखा गया लेकिन एफजीडी स्थापना और समयसीमा में कुछ ढील दी गई। नई व्यवस्था में चिह्नित किए गए 537 संयंत्रों में से श्रेणी ए में वर्गीकृत केवल 65 इकाइयों को अब 31 दिसंबर, 2027 तक एफजीडी स्थापित करना होगा। श्रेणी बी में शामिल 66 संयंत्रों की अलग-अलग स्थिति देखकर निर्णय लिया जाएगा, जबकि श्रेणी सी के 406 संयंत्र यदि स्टैक ऊंचाई के मानदंडों को पूरा करते हैं तो उन्हें इससे छूट दी गई है। खास बात यह कि सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन सीमा में परिवर्तन नहीं किया गया। ये 2015 के मानकों के अनुरूप ही हैं।
भारत घरेलू कोयले पर बहुत अधिक निर्भर है। देश की लगभग 92फीसदी बिजली का उत्पादन कोयले से ही होता है और फिलहाल इसमें कोई बड़ी कमी होने का अनुमान नहीं है। नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज की सितंबर 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, टीपीपी में उपयोग किए जाने वाले कोयले में आमतौर पर राख की मात्रा अधिक (वजन के हिसाब से 35-45 फीसदी) और सल्फर कम (0.2-0.7 फीसदी) होती है। अमेरिकी कोयले (1-1.8 फीसदी) और चीनी कोयले (1 फीसदी से अधिक) के सल्फर के मुकाबले यह मात्रा काफी कम है। इसलिए भारतीय कोयले को ‘बहुत कम सल्फर वाला कोयला’ माना जाता है।
आईआईटी दिल्ली द्वारा मई 2024 में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि सभी शहरों में, जिनमें बिना एफजीडी वाले कोयला संयंत्र भी हैं, सल्फर डाइऑक्साइड का स्तर राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक सीमा 80 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के भीतर रहा। अध्ययन में पाया गया कि भारत में क्षारीय धूल और तटीय समुद्री हवाओं की उपस्थिति के कारण अम्लीय वर्षा कोई बड़ी चिंता का विषय नहीं है। भारत में एफजीडी स्थापित करने का काम बहुत धीमा रहा है।
रेट्रोफिटिंग के लिए चिह्नित 537 टीपीपी में से केवल 44 टीपीपी (केंद्रीय 17, राज्य 8 और निजी 19) ने ही एफजीडी लगाए हैं। इसकी स्थापना में 1.2 करोड़ रुपये प्रति मेगावाॅट की अनुमानित लागत के हिसाब से कुल पूंजी परिव्यय 96,000 करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है। कई पुराने टीपीपी एफजीडी की स्थापना पर किए गए इस भारी-भरकम खर्च को निकालने के लिए जूझ रहे हैं। एफजीडी लागत का बोझ उपभोक्ताओं पर डाला गया तो बिजली की कीमतें 0.30 से 0.40 रुपये प्रति यूनिट तक बढ़ जाएंगी।
ऊर्जा विशेषज्ञ इसी महीने जारी संशोधित दिशानिर्देशों की चार कारणों से सराहना कर रहे हैं: पहला, नए दिशानिर्देशों में यह माना गया है कि टीपीपी से सल्फर डाइऑक्साइड प्रदूषण पहले जितनी आशंका जताई गई थी, उससे कम खतरनाक है। दूसरा, यह सभी के लिए एक ही प्रकार के नियम के बजाय एक स्तरीय अनुपालन तंत्र लागू करता है। तीसरा, उच्च बिजली शुल्क का भुगतान नहीं करने से उपभोक्ताओं को लाभ होता है। चौथा, यह केंद्र-राज्य और निजी बिजली उत्पादकों का काफी पूंजीगत व्यय बचाता है, जिससे हरित पहलों समेत तमाम उच्च-प्रभाव वाले निवेश के लिए काफी धन बच जाता है।
इससे दीर्घकालिक स्थिरता लक्ष्यों को बेहतर ढंग से अंजाम देने में मदद मिलती है। एक बात और, इस निर्णय से भारत का मकसद वैश्विक स्तर पर यह स्पष्ट संदेश देना है कि वह उच्च-सल्फर कोयले के लिए पश्चिमी तर्ज पर बनाए गए पर्यावरण दिशानिर्देशों को आंख मूंद कर नहीं अपनाएगा। इसके बजाय, यह क्षेत्र-विशिष्ट, साक्ष्य-आधारित रणनीति अपना रहा है, जो जलवायु और आर्थिक हितों के साथ वायु गुणवत्ता लक्ष्यों से संतुलन बनाती दिखती है। स्पष्ट रूप से, इसे पीछे हटना नहीं कह सकते, बल्कि इसमें नियामकीय परिपक्वता, वैज्ञानिक ईमानदारी और तर्कसंगत राष्ट्रीय हितों के प्रति प्रतिबद्धता झलकती है।
(लेखक बुनियादी ढांचा विशेषज्ञ हैं। वह द इन्फ्राविजन फाउंडेशन के सह-संस्थापक और प्रबंध न्यासी भी हैं)