प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो
सरकार ने हाल ही में यह घोषणा की है कि वह स्टील से लेकर मोबाइल कवर तक विभिन्न उत्पादों के विरुद्ध एंटी-डंपिंग जांच करेगी। भारत में एंटी-डंपिंग का इस्तेमाल संरक्षणवादी उपाय के रूप में व्यापक रूप से किया जाता है। इसके साथ-साथ उच्च शुल्क दरें, मात्रात्मक प्रतिबंध, नकारात्मक आयात सूची और अन्य उपाय भी अपनाए जाते हैं। इनमें से कुछ विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों के अनुरूप हैं, कुछ को अनुपालन योग्य बनाया जा सकता है और दूसरों के लिए विश्व बैंक शायद ही मायने रखता है।
जो चीज मायने रखती है वह है भारत द्वारा निर्मित किया जा रहा विनिर्माण संबंधी माहौल। अगर स्टील से लेकर मोबाइल कवर, कांच, पीईटी और सोलर पैनल तक हर चीज को संरक्षण की आवश्यकता है, जबकि सैकड़ों अन्य उत्पादों को पहले ही किसी न किसी तरह का संरक्षण हासिल है तो ऐसे में हमें खुद से एक गहरा प्रश्न करना होगा और वह यह कि आखिर क्या हुआ? और हम इसे कैसे बदल सकते हैं?
इसका एक उत्तर, जो सबसे लोकप्रिय उत्तर भी है, वह यह है कि चीन ने अपना भारी सब्सिडी और उच्च संरक्षण वाला औद्योगिक उत्पादन भारत पर थोप दिया है। ये उत्पाद बहुत आसानी से घरेलू उत्पादन और उद्योग पर छा जाते हैं और रोजगार तथा दीर्घकालिक विनिर्माण वृद्धि को प्रभावित करते हैं। परंतु ये एंटी-डंपिंग जांच केवल चीनी उत्पादों को तो निशाने पर नहीं लेंगी। प्राप्त जानकारी से तो यही लगता है कि वाणिज्य मंत्रालय के तहत आने वाले व्यापार उपाय महानिदेशालय (डीजीटीआर) को थाईलैंड, रूस, ताइवान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम और बांग्लादेश सहित अन्य देशों के उत्पादकों की भी जांच करनी होगी। उपरोक्त उपायों की तरह कई संरक्षणात्मक उपाय मौजूद हैं और अमेरिका, जापान तथा यूरोपीय संघ सहित कई विकसित देशों के उत्पादकों को इसमें शामिल किया गया है।
दूसरे शब्दों में, भारतीय विनिर्माता और उनके संघ मानते हैं कि उन्हें दुनिया भर के उत्पादों से संरक्षण की आवश्यकता है। कई बार तो यह कहा जाता है कि अन्य देशों के उत्पादकों को सस्ते चीनी कच्चे माल से लाभ मिल रहा है और इसके चलते अंतिम उत्पाद की लागत कम रहती है। ऐसे में भारत को खुद को इन सभी देशों के उत्पादकों से बचाने की आवश्यकता है जो सस्ते चीनी कच्चे माल पर निर्भर हैं। इस तर्क में दम हो सकता है, लेकिन यह भी सही है कि भारत खुद भी चीन से बहुत अधिक आयात करता है। गत वर्ष यह आंकड़ा 113 अरब डॉलर था जो इससे पिछले वर्ष से 11 फीसदी अधिक था। इसमें इलेक्ट्रॉनिक्स, रसायन, मशीनरी और उपकरण तथा प्लास्टिक आदि सभी शामिल थे।
अब सरकार के सामने एक गंभीर समस्या है: वह यह कैसे तय करे कि किन उत्पादों को बचाना है और किन्हें नहीं? अपना हित समझने वाला हर उत्पादक सरकार से चाहेगा कि वह उसे आयात से संरक्षण दिलाए। कोई भी सक्रिय सरकार या तो तत्काल संरक्षण वाले कदम उठाएगी या फिर शिकायत की जांच करेगी। परंतु दिक्कत यह है कि चीनी वस्तुओं की जांच कैसे होगी खासकर तब जबकि यह भी कहा जाता है कि हम चीन सरकार के आंकड़ों पर विश्वास नहीं कर सकते। इस समस्या को देखते हुए सरकार के लिए अगला बेहतर विकल्प यही है कि वह भारतीय आंकड़ों के आधार पर वैश्विक उत्पादनों की जांच करे। अगर हम ऐसा करते हैं तो हम उत्पादों का आकलन भारतीय लागत के आधार पर करेंगे। ऐसे में परिणाम उच्च लागत वाले भारतीय विनिर्माताओं के अनुकूल होंगे तथा संरक्षण की उनकी मांग के पक्ष में भी।
यह सवाल पूछना जरूरी है: ऐसे कौन से मानदंड हो सकते हैं जो सरकार को यह तय करने में मदद करें कि किन उत्पादों को किसी न किसी रूप में संरक्षण दिया जाना चाहिए, और किन्हें बिना रोक-टोक, शायद मामूली शुल्क के साथ, आयात की अनुमति दी जानी चाहिए? एक मुक्त बाजार समर्थक दृष्टिकोण यह तर्क देगा कि रुपये का अवमूल्यन किया जाए, टैरिफ हटा दिए जाएं, और भारतीय कंपनियों को यह निर्णय लेने दिया जाए कि वे वैश्विक कच्चे माल का उपयोग करें या घरेलू। वहीं एक वामपंथी-समाजवादी दृष्टिकोण यह मांग करेगा कि आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया जाए, रुपये की विनिमय दर को नियंत्रित किया जाए, और सभी उत्पादन भारत में ही किया जाए। सरकार को बीच का रास्ता निकालना होगा।
पहले तो यह पता करना होगा कि बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हर उत्पाद क्षेत्र में कैसे निपट रही हैं? हमें यह कार्य इस बात की परवाह किए बिना करना चाहिए कि संबंधित देशों के साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते हैं या वे किसी क्षेत्रीय समूह के सदस्य हैं या नहीं। चाहे वह चीन हो, वियतनाम हो या कोई अन्य देश। बात यह है कि यदि किसी कारणवश किसी देश के उत्पादक भारत में डंपिंग कर रहे हैं, तो वे वैश्विक बाजारों में भी ऐसा करने की प्रवृत्ति रखते होंगे। इसलिए भारत में कोई भी संरक्षणात्मक कदम उठाने से पहले उन उत्पाद श्रेणियों को आगे की जांच के लिए चिह्नित किया जाना चाहिए।
दूसरा, जब भी उद्योग जगत से संरक्षण की मांग उठती है, सरकार को पहले उत्पादों के उपयोगकर्ताओं से बात करनी चाहिए और ऐसा तब तक करते रहना चाहिए जब तक कि संरक्षणवादी कदम लागू नहीं हो जाते। संरक्षण एक तरह का आर्थिक न्याय है और निर्णय देने के पहले सरकार को सभी उत्पादकों और उपयोगकर्ताओं को समुचित अवसर देना चाहिए।
तीसरा, सरकार को उपयोगकर्ताओं का भी वैसा ही बचाव करना चाहिए जैसे वह उत्पादकों का करती है। ऐसे में किसी भी संरक्षणवादी उपाय की सख्त निगरानी होनी चाहिए कि वह उत्पादकों और उपयोगकर्ताओं पर क्या असर डालता है।
चौथा, संरक्षणात्मक कदमों का विश्लेषण यह भी बताएगा कि कई मामलों में यह संरक्षण सरकार पर निर्भरता की ओर ले जाता है। यह निर्भरता भारत की दीर्घकालिक वृद्धि पर असर डालती है। ऐसे में फिर चाहे गुणवत्ता नियंत्रण आदेश हो, सामान्य से अधिक शुल्क दर या एंटी-डंपिंग उपाय, ऐसे सभी उपायों की एक समापन अवधि होनी चाहिए।
कुल मिलाकर, भारत के विनिर्माण क्षेत्र को सहारा देने और बढ़ावा देने के कई तरीके हैं। एक तरीका है कुछ लागतों को वहन करना, दूसरा है सब्सिडी प्रदान करना, तीसरा है व्यापार करने की प्रक्रिया को सरल बनाना, और एक अन्य तरीका है संरक्षणवाद अपनाना। इन सभी उपायों के अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं।
उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना एक प्रकार की सब्सिडी है जिसका उद्देश्य उत्पादन के पैमाने में आने वाली समस्या को ठीक करना है, क्योंकि बड़े पैमाने पर उत्पादन से लागत कम होती है। यह एक विशिष्ट समस्या का विशिष्ट समाधान है। व्यवसाय करने में आसानी से जुड़े सुधारों का उद्देश्य व्यापार की प्रक्रिया को सरल बनाना था। ये भी विशिष्ट समस्याओं के लिए लक्षित समाधान हैं। लेकिन संरक्षणवाद ऐसा नहीं है। यह कुछ लोगों को दूसरों की कीमत पर लाभ पहुंचाता है, प्रतिस्पर्धी ताकतों को कम करता है, निर्भरता पैदा करता है, और उद्योग द्वारा लॉबिंग व राजनीतिक दबाव को बढ़ावा देता है। इसलिए, संरक्षणवादी उपायों का उपयोग बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए। चीन के उत्पादों के भारत में बाढ़ आने की आशंका उन लोगों के लिए एक शक्तिशाली साधन बन जाती है जो अपने स्वार्थी हितों के लिए संरक्षण चाहते हैं। सरकार को भारत को ऐसी घरेलू ताकतों से उतनी ही सतर्कता से बचाना चाहिए जितनी सतर्कता से वह चीनी उत्पादों के आधिक्य से बचाती है।
(लेखक सीएसईपी रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख हैं। ये उनके निजी विचार हैं)