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औद्योगिक क्रांति के बाद AI में पिछड़ने का डर

भारत औद्योगिक क्रांति के लाभ लेने से वंचित रह गया। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के मामले में भी ऐसा ही कुछ होने की स्थितियां बनती रही हैं। बता रहे हैं अजित बालकृष्णन

Last Updated- June 10, 2024 | 10:20 PM IST
औद्योगिक क्रांति के बाद एआई में पिछड़ने का डर, A new fear of AI dawning?
इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती

वह एक थुलथुले शरीर वाले अशिक्षित व्यक्ति थे, एक कसाई के बेटे जो अपने छोटे से घर में चरखे पर कपास की बुनाई करके अपने 13 बच्चों वाले परिवार का पालन-पोषण करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। तभी उनके मन में विचार आया कि वह अपने चरखे में कुछ ऐसा सुधार करें जिससे वह समान प्रयास में अधिक उत्पादक साबित हो सके। इसलिए उन्होंने चरखे में एक ही पहिए से चलने वाले आठ अलग-अलग तकुए लगाए।

इससे वह पहले जितने समय में एक धागा तैयार कर पाते थे उतने ही समय में आठ धागे तैयार करने लगे। उन्होंने इसे स्पिनिंग जेनी का नाम दिया और इसके कुछ और नमूने बनाकर अपने पड़ोसियों को बेचे जिससे उन्हें कुछ धनराशि कमाने में मदद मिली। यह सन 1764 की बात है और उस शख्स का नाम था जेम्स हार्गीव्स जो इंगलैंड के लंकाशर के रहने वाले थे। उनके आविष्कार ने सैम्यूल क्रॉम्पटन को स्पिनिंग म्यूल और चार्ल्स बाबेज को बुनाई मशीन का आविष्कार करने की प्रेरणा दी और इन बातों ने औद्योगिक क्रांति को प्रेरित किया।

स्पिनिंग जेनी के इस मामूली से आविष्कार ने भारत की अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरित करने का काम किया क्योंकि कपास के कपड़े बनाने में अब पहले की तुलना में कम कामगारों की जरूरत पड़ती थी। इससे देश की आज़ादी की लड़ाई को गति मिली और राष्ट्रीय ध्वज के आंदोलन में चरखा एक प्रतीक बनकर उभरा।

हजारों वेब पेज और किताबों को खंगालने के बाद भी एक बात मुझे आज भी आश्चर्यचकित करती है: अगर कई तकुओं वाले चरखे का विचार लंकाशर के किसी एक व्यक्ति के मन में आया था तो लगभग उसी समय भारत के हजारों-लाखों कपास कताई करने वालों में से किसी के मन में ऐसा ही विचार क्यों नहीं आया?

विद्वान आर्थिक इतिहासकार रॉबर्ट ऐलन का मानना है कि स्पिनिंग जेनी और उससे संबंधित औद्योगिक क्रांति भारत के बजाय ब्रिटेन में हुई क्योंकि वहां वेतन भत्ते पूंजी की कीमत की तुलना में बहुत अधिक थी। ऐसे में जेनी का इस्तेमाल ब्रिटेन में बहुत अधिक फायदेमंद था। उनका कहना है कि चूंकि जेनी का इस्तेमाल ब्रिटेन में ही फायदेमंद था इसलिए वह इकलौता देश हुआ जहां इसे बड़ी तादाद में बनाना और इस्तेमाल करना उपयोगी समझा गया। उन्होंने कहा कि भारत के लोगों के संस्थानों की गुणवत्ता अथवा उनकी सांस्कृतिक प्रगतिशीलता के परे भारतीयों को शायद अठारहवीं सदी में कपास उत्पादन का मशीनीकरण लाभदायक नहीं नजर आता।

भारत ने न तो स्पिनिंग जेनी का आविष्कार किया न ही मेकेनिकल बुनाई या इसके बाद आने वाले अन्य नवाचार मसलन भाप इंजन, भाप संचालित लोकोमोटिव, जहाज आदि बनाए। इन बातों के कारण हम औद्योगीकरण के पहले वाले समय में उलझे रहे और औद्योगीकरण के लिए हमें ब्रिटिश उपनिवेश बनने की प्रतीक्षा करनी पड़ी।
क्या ऐसी ही कुछ अन्य परेशान करने वाली बातें हैं जो शायद संकेत दे रही हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ है? मैं कुछ बातों की सूची बना सकता हूं और कृपया आप भी ऐसी बातों की सूची बनाएं जो आपको परेशान कर रही हैं।

हमने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसे उच्च गुणवत्ता वाले संस्थान स्थापित किए ताकि वहां से पढ़ाई करने वाले बच्चे विश्वस्तरीय नवाचार कर सकें और भारत को दुनिया के अन्य शीर्ष देशों के साथ बराबरी पर खड़ा कर सकें। परंतु हुआ क्या? देश में कोटा जैसे ट्यूशन कारोबार केंद्र खुल गए जहां लाखों की तादाद में छात्र कोचिंग पढ़ते हैं और आईआईटी की प्रवेश परीक्षाओं को निकालने का प्रयास करते हैं। करीब दो लाख बच्चे ऐसी परीक्षाओं में बैठते हैं जिनमें से करीब 10,000 को दाखिला मिलता है। यानी 95 फीसदी बच्चे निराश होकर घर जाते हैं।

उसके बाद ऐसे भी बच्चे हैं जो आईआईटी और आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला नहीं ले पाते और उनके माता-पिता 50-60 लाख रुपये सालाना शुल्क देकर उन्हें विदेशों में पढ़ने भेज देते हैं। एक अनुमान के मुताबिक हर वर्ष करीब 4.50 लाख बच्चे पढ़ने के लिए विदेश जाते हैं।

इस पहेली के एक अन्य पहलू पर नजर डालते हैं। सन 1980 के दशक के अंत में भारत में बहुत थोड़ी सी टेक कंपनियां थीं जो कंप्यूटर डिजाइन आदि बनाती थीं और हार्डवेयर सामग्री का निर्माण करती थीं। उन्हें ऐसी वस्तुओं पर 100 फीसदी आयात शुल्क रियायत मिलती।

सिद्धार्थ मुखर्जी अपनी हालिया पुस्तक इंडियाज सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री: पॉलिटिक्स इंस्टीट्यूशंस ऐंड पॉलिसी शिफ्ट में कहते हैं, ‘सन 1991 के दौरान नैस्कॉम ने सरकार के साथ मिलकर लॉबीइंग की और पहली बार सॉफ्टवेयर निर्यात में हुए लाभ पर आयकर से छूट हासिल की। बाद में नैसकॉम के दबाव में सरकार ने आयात शुल्क को 114 फीसदी के ऊंचे स्तर से कम करके लगभग शून्य कर दिया।’

ऐसे में कंप्यूटर हार्डवेयर की डिजाइन तैयार करने या उन्हें बनाने वाले तमाम कारोबारी विदेशी कंपनियों को सेवा प्रदान करने के काम में लग गए। सूचना प्रौद्योगिकी उत्पादों से आईटी सेवा की ओर यह बदलाव उसी दिन से हुआ। अब हम गर्व के साथ खुद को ऐसा देश कहते हैं जो दुनिया भर में आईटी उद्योग को कर्मचारी मुहैया कराता है।

यह उद्योग 250 अरब डॉलर का राजस्व कमाता है और इसमें 50 लाख से अधिक युवा भारतीय काम कर रहे हैं। यह एक बड़ी उपलब्धि है लेकिन आईटी उत्पाद बाजार पर अमेरिकी टेक कंपनियों का दबदबा है। आश्चर्य की बात है कि भारतीय मूल के लोग इन अमेरिकी टेक कंपनियों में बड़े पदों पर पहुंच रहे हैं।

अब जबकि दुनिया आर्टिफिशल इंटेलिजेंस यानी एआई के दबदबे की ओर बढ़ रही है तो ऐसा लगता है कि भारत की भूमिका एक बार फिर अमेरिका की बड़ी टेक कंपनियों मसलन ओपन एआई आदि को कामगार मुहैया कराने की रह जाएगी। ये कंपनियां इस क्षेत्र में दबदबा रखने वाली होंगेी। अगर हमें पता चले कि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस सस्ते प्रौद्योगिकी श्रमिकों की जरूरत को ही समाप्त कर देगा तब?

इससे भी महत्त्वपूर्ण बात, भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में ऐसा क्या है जो हमें प्रमुख आईटी उत्पाद बनाने के बजाय आईटी सेवा राजस्व चाहने वाला देश बनाती है‌? इस सवाल का जवाब हमें बताएगा कि आखिर क्यों स्पिनिंग जेनी का आविष्कार और औद्योगिक क्रांति की शुरुआत दोनों भारत में नहीं हुए।

(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)

First Published - June 10, 2024 | 10:20 PM IST

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