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नेताओं के लिए ‘आईक्यू’ से ज्यादा अहम ‘ईक्यू’

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 3:46 AM IST

पिछले महीने तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलनिवेल त्यागराजन (पीटीआर) के रूप में एक नए सितारे का उदय हुआ। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संबंधी नीति-निर्धारक संस्था जीएसटी परिषद की गत 28 मई को संपन्न बैठक में त्यागराजन के पांडित्यपूर्ण एवं सशक्त हस्तक्षेप की अंग्रेजी मीडिया में खूब तारीफ हुई।
त्यागराजन का जीएसटी परिषद में दिया गया भाषण सटीक था। उन्होंने कहा कि जीएसटी प्रणाली अपने वादे पर खरा नहीं उतर पाई है और अब इसमें आमूलचूल बदलाव करने की जरूरत है। उन्होंने राज्यों को अधिक राजकोषीय शक्तियां देने की मांग करते हुए कहा कि वित्त आयोग की अनुशंसा के अनुरूप राज्यों को वित्त मुहैया कराने की व्यवस्था केंद्र द्वारा अधिभार एवं उपकर लगाने से भोथरी हो चुकी है क्योंकि इन शुल्कों का बंटवारा नहींं होता है। उन्होंने सही मायने में एक संघीय गणतंत्र की स्थापना के लिए लंबे समय तक केंद्र-राज्य और राज्यों के बीच आपसी विचार-विमर्श के नए मंचों के गठन की मांग भी रखी।
राज्यों को अधिक राजकोषीय एवं आर्थिक शक्तियां दिए जाने के प्रबल समर्थक के तौर पर यह लेखक भी उम्मीद करता है कि पीटीआर उस मोर्चे पर कामयाब हों जहां पहले कोई भी सफल नहीं हो पाया है। लेकिन क्या तमिलनाडु के वित्त मंत्री के पास इस काम को पूरा करने के लिए जरूरी भावनात्मक गुणक (ईक्यू) है? सार्वजनिक जीवन में ईक्यू की अधिक जरूरत होने के बीच क्या बुद्धिमत्ता गुणक (आईक्यू) होना ही काफी है? जीएसटी परिषद की बैठक में वह गोवा के मंत्री पर काफी सख्त लहजा अख्तियार करते हुए नजर आए। उन्होंने उस मंत्री को ‘खाली बर्तन’ तक बोल दिया। उन्होंने तमिलनाडु की ही विधायक वनाती श्रीनिवासन को यह कहते हुए ट्विटर पर ब्लॉक भी कर दिया कि वह ‘बदबू से बचना’ चाहते हैं। क्या ब्लॉक करना ही अपने-आप में पर्याप्त नहीं था? इसके पहले उन्होंने आध्यात्मिक गुरु जग्गी वासुदेव को ‘प्रचार का भूखा’ कहकर उनके तमाम अनुयायियों को नाराज कर दिया था।
तमिलनाडु के नए वित्त मंत्री त्यागराजन को एमआईटी से हासिल अपनी डिग्री के लिए भले ही अंग्रेजी-भाषी संभ्रांतों से प्रशंसा मिल सकती है लेकिन वह दोस्ती करने एवं दूसरों को प्रभावित करने में ज्यादा यकीन नहीं रखते हैं। इससे पता चलता है कि वह राष्ट्रीय विमर्श को राज्यों की स्वायत्तता जैसे बेहद सामयिक मसले की ओर केंद्रित कराने के मकसद में नाकाम भी हो सकते हैं। असल में, वह केंद्र को भी चिढ़ाते हुए दिखे जब उन्होंने कहा कि संघ जैसी कोई चीज नहीं होती है क्योंकि वह तो महज राज्यों का समूह होता है। संविधान में भारत को ‘राज्यों के संघ’ के तौर पर परिभाषित किया गया है लेकिन पीटीआर कहते हैं कि संघ का कोई मतदाता ही नहीं होता है। हरेक मतदाता भारत का नागरिक है, न कि अपने निवास वाले राज्य का नागरिक कहा जाता है। चाहे कोई तमिलनाडु में रहे या पश्चिम बंगाल चला जाए, वह भारत का नागरिक ही कहा जाएगा। दरअसल संविधान में ‘राज्यों का संघ’ कहने के पीछे शायद तत्कालीन रियासतों एवं ब्रिटिश प्रांतों के समूह का भाव था, न कि आजादी के बाद भाषाई आधार पर बने राज्यों का। खुद तमिलनाडु ही राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 के तहत गठित एक राज्य है।
राजकोषीय स्वायत्तता को लेकर पीटीआर की पार्टी द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) जैसे क्षेत्रीय दलों की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने के पुख्ता कारण हैं। इन दलों के पास कम-से-कम तीन ऐसे मौके आए थे जब वे राज्यों को अधिक राजकोषीय अधिकार दिए जाने का दबाव बना सकते थे। उस समय क्षेत्रीय दलों के ही गठजोड़ वाली सरकारें केंद्र में बनी थीं। सबसे अच्छा मौका 1996-98 में बनी संयुक्त मोर्चा सरकार के समय मिला था। असल में देवेगौड़ा और गुजराल की अगुआई वाली सरकारें क्षेत्रीय दलों के गठजोड़ की ही उपज थीं। लेकिन किसी भी दल ने राज्यों को अधिक शक्ति देने के लिए जरूरी संवैधानिक बदलाव की मांग भी नहीं की। फिर अटल बिहारी वाजपेयी (1998-2004) और मनमोहन सिंह (2004-2014) की अगुआई में गठबंधन सरकारें वजूद में आईं। इन दोनों ही सरकारों में द्रमुक एक प्रमुख साझेदार दल था लेकिन किसी भी दल ने केंद्र-राज्य संबंधों को नए सिरे से तय करने की मांग नहीं रखी। इसके बजाय द्रमुक समेत तमाम क्षेत्रीय दलों की नजर ‘एटीएम मंत्रालयों’ पर लगी रहीं और हमें बखूबी मालूम है कि आखिर में क्या हाल हुए। अगर क्षेत्रीय दल अपने संकीर्ण राजनीति हितों को अपने राज्यों के राजकोषीय हितों के ऊपर रखते हैं तो फिर उन्हें इस हाल के लिए खुद को भी दोष देना चाहिए।
इससे भी बुरा हुआ जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के समय क्षेत्रीय दल सूचना का अधिकार कानून, भूमि अधिग्रहण एवं खाद्य सुरक्षा जैसे कानूनों के जरिये केंद्र को अधिक ताकत देने पर राजी हो गए। इनमें से हरेक कानून ने राज्यों की तरफ से कानून-निर्माण के संदर्भ में केंद्र को अधिक शक्तियां दीं लेकिन क्षेत्रीय दलों ने इसे चुपचाप मान लिया।
पीटीआर को जीएसटी परिषद के मतदान नियमों और वित्त आयोग की अनुशंसा के अनुरूप राज्यों को बांटे जाने वाले कर राजस्व में व्यापक बदलाव की मांग भी पूरे सोच-विचार के बाद रखनी चाहिए थी। उन्होंने कहा, ‘स्वतंत्रता के बाद गठित वित्त आयोग लगातार विकसित राज्यों के प्रति एक तरह की नाइंसाफी करते रहे हैं। उन्होंने कर राजस्व के बंटवारे की अनुशंसा करते समय कभी भी इस बात का ख्याल नहीं रखा कि राजस्व कहां से आ रहा है। इसी तरह से जीएसटी परिषद में लागू ‘एक राज्य एक मत’ व्यवस्था भी जनसंख्या या एसजीडीपी जैसे पहलुओं को नजरअंदाज करती है। यह विकसित राज्यों के साथ नाइंसाफी ही है।’
यह तर्क थोड़ा अटपटा है। इस हिसाब से कोई भी यह दलील दे सकता है कि लोकसभा के मत जनसंख्या के अनुपात में होने चाहिए और इससे तमिलनाडु की कीमत पर उत्तर प्रदेश को फायदा हो जाएगा। निश्चित रूप से पीटीआर को पता है कि छोटे राज्यों के पक्ष में मत क्यों भारित होते हैं। (अमेरिका के छोटे प्रांतों में भी सीनेट की 2 सीटें ही होती हैं।) इसके पीछे मकसद यह होता है कि बड़े, समृद्ध एवं अधिक ताकतवर राज्य छोटे राज्यों के हितों को चोट न पहुंचा सकें। उन्हें छोटे राज्यों को अधिक हिस्सा देने का वादा कर उनकी निष्ठा हासिल करनी होगी। अगर पीटीआर राज्यों के लिए अधिक राजकोषीय शक्तियां चाहते हैं तो उन्हें छोटे राज्यों के साथ लडऩे के बजाय उनका एक गठजोड़ बनाना होगा।
हमें यह याद रखना होगा कि केंद्र की सहमति के बगैर राज्यों को अधिक शक्तियां देने का काम नहीं हो सकता है। कुछ उसी तरह जैसे जीएसटी कानून राज्यों को तस्वीर में लाए बगैर नहीं लाया जा सकता था। जीएसटी की वकालत करने वाले अधिकांश राज्य उपभोग-केंद्रित थे जिन्हें बताया गया था कि जीएसटी के गंतव्य-आधारित प्रणाली होने से उन्हें अधिक राजस्व मिलेंगे।
अगर पीटीआर जीएसटी प्रणाली एवं संघीय व्यवस्था में व्यापक बदलाव लाना चाहते हैं तो उन्हें लोगों को अपने साथ लेकर चलना होगा और ऐसा दिखावा नहीं करना चाहिए कि उनकी जबानी कारीगरी से बात बन जाएगी। वह भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन से भी पूछ सकते हैं जो अपनी तमाम विलक्षणता के बावजूद ऐसा सोचते थे कि अपने भाषणों में हिटलर (न कि स्टालिन) और ‘एक आंख वाले राजा’ का जिक्र कर केंद्र को परेशान करना उनके काम का हिस्सा है। अपना मकसद हासिल करने की चाहत रखने वाले किसी भी भारतीय नेता के लिए विनम्रता, न कि अक्खड़पन एक अनिवार्य गुण होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

First Published : June 12, 2021 | 12:11 AM IST