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विचारधारा का अंत और उसका पुनर्जन्म

महाराष्ट्र की राजनीति में बीते चार साल में जो कुछ हुआ वह हमें बताता है कि शायद यह दौर भी अब समाप्त हो रहा है।

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- July 10, 2023 | 12:50 AM IST

भाजपा ने अपनी विचारधारा की निरंतरता बनाए रखी है जबकि कांग्रेस में विभाजन देखने को मिला है। कांग्रेस एक आधुनिक विचारधारा को अपनाए तो हमें दो दलीय राजनीति की वापसी देखने को मिल सकती है

पिछले दिनों महाराष्ट्र की राजनीति में जो नाटकीय परिवर्तन नजर आया वह हमारी राष्ट्रीय राजनीति के बारे में दिलचस्प झलक पेश करता है। वह बताता है कि फिलहाल हम कहां हैं, हम यहां तक कैसे पहुंचे और हमारा अगला पड़ाव क्या है?
इसके बाद कुछ अन्य दिलचस्प सवाल आते हैं। क्या राजनीति में अभी भी विचारधारा मायने रखती है? अगर आम आदमी पार्टी के उदय पर नजर डालें तो आपको लग सकता है कि नहीं रखती।

भ्रष्टाचार मुक्त सरकार और मुफ्त में चीजें देने के वादों से विचारधारा नहीं बनती। भले ही दीवार पर आंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीरें ही क्यों न लगी हों।

दूसरी ओर यही निष्कर्ष महाराष्ट्र के घटनाक्रम के आधार पर भी निकाला जा सकता है: पहले शिव सेना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से अलग होकर विचारधारा के लिहाज से अपने प्रतिद्वंद्वियों राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) और कांग्रेस से मिली। बाद में शिव सेना के विधायकों का बड़ा हिस्सा दोबारा भाजपा से मिल गया।

यहां विचारधारा और सिद्धांतों की बात करना बेमानी है। राकांपा नेता और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे प्रफुल्ल पटेल ने पत्रकारों से बात करते हुए अपने भाजपा नीत गठबंधन में जाने और मौजूदा राजनीति के बारे में जानकारी प्रदान की।

जब उनसे इस विचारधारात्मक बदलाव के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अगर राकांपा को शिवसेना के साथ जाने में दिक्कत नहीं थी तो अब भाजपा के साथ जाने में क्या समस्या है?

मुझे कहीं शरद पवार की भी टिप्पणी देखने को मिली जिसमें उन्होंने कहा कि शिव सेना के समावेशी हिंदुत्व में समस्या नहीं है लेकिन भाजपा के हिंदुत्व में है।

तथ्य यह है कि अगर खुले दिमाग से व्यापक तस्वीर पर नजर डाली जाए तो विचारधारा अब कुछ दशक पहले की तुलना में अधिक मजबूत शक्ति बनी है लेकिन यह केवल एक पक्ष में नजर आती है और वह है भाजपा।

दूसरी ओर, कई नेता और उनके दल इन दशकों में बिना किसी विचारधारात्मक माहौल के पनपे हैं और उनके सिद्धांत और उनकी प्रतिबद्धताएं सत्ता के साथ रही हैं।

महाराष्ट्र की राजनीति में बीते चार साल में जो कुछ हुआ वह हमें बताता है कि शायद यह दौर भी अब समाप्त हो रहा है। एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की राकांपा को सत्ता में अपनी छोटी पारी का सुख भोगने को मिलेगा लेकिन चुनावी और राजनीतिक दृष्टि से उनकी राजनीतिक शक्ति का पराभव ही होगा।

इस तरह लेनदेन की राजनीति करने वाले दो प्रमुख दलों के अंत की शुरुआत हो सकती है। बीते 25 सालों के दौरान दिल्ली की सत्ता पर काबिज गठबंधन में इनमें से कोई न कोई दल हमेशा शामिल रहा है।

मोदी के पहले के समय में खासतौर पर 2009 के चुनाव के बाद हममें से कई लोगों ने विचारधारा रहित भारतीय राजनीति का स्वागत किया था। हमने निष्कर्ष निकाला था कि अत्यधिक युवा मतदाता वोटिंग मशीन का बटन दबाते समय केवल एक बात का ध्यान रखते हैं: इसमें मेरा क्या फायदा है? नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव अभियान में इस बात का ध्यान रखा था लेकिन उनकी व्यापक अपील हिंदुत्व आधारित राष्ट्रवाद की थी।

वह बार-बार पाकिस्तान का जिक्र करते थे और परोक्ष रूप से मुस्लिमों का भी। खासतौर पर ‘गुलाबी क्रांति’ (मांस निर्यात का चुनावी कोड) का जिक्र करते हुए। दूसरी ओर कांग्रेसनीत विपक्ष महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम तथा अन्य अधिकार आधारित कानूनों और कल्याण योजनाओं के सहारे था।

2019 तक मोदी ने और कठोर हिंदुत्व को अपना लिया यानी पुलवामा/बालाकोट के बाद। जबकि इस बीच कांग्रेस राफेल, चौकीदार चोर है आदि के जरिये भ्रष्टाचार के आरोपों के सहारे मैदान में थी। उसने न्याय योजना के सहारे नई तरह की कल्याण योजना पेश करने का प्रयास किया। स्पष्ट वैचारिक विभाजन तब तक तैयार नहीं हुआ था। अगर कांग्रेस को संघर्ष करना पड़ा तो भाजपा से लड़ रहे छोटे दलों के हश्र का अंदाजा लगाया जा सकता है।

अलग दिखने की उनकी कोशिश या तो मुस्लिमों के संरक्षण पर आधारित थी या फिर मतदाताओं को नि:शुल्क सुविधाएं देने के बारे में। कुछ क्षेत्रीय दलों मसलन द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम और केरल में वाम दलों को छोड़ दिया जाए तो भाजपा के अलावा किसी दल ने विचारधारा के नाम पर चुनाव नहीं लड़ा। इससे मोदी के लिए लड़ाई आसान हो गई।

यह बात सन 1984 के बाद की राजनीति में प्रमुख है और इसलिए हम इसका बार-बार जिक्र करते हैं। हम सन 1984 को इसलिए बीच में रख रहे हैं कि उस वर्ष राजीव गांधी 415 लोक सभा सीटों के साथ सत्ता में आए थे। उसके बाद भारत पर कौन शासन करेगा इसका निर्धारण इस बात से होता आया है कि धर्म के आधार पर बनी एकजुटता को कोई जाति के आधार पर कोई कितना तोड़ सकता है? या फिर जाति में बंटे लोगों को कोई कितना एकजुट कर सकता है? इस अवधि में शुरुआती 25 वर्ष जातीय ताकतें जीतीं जबकि उसके बाद मोदी युग आ गया।

इन्हीं 25 वर्षों में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति भ्रमित हो गई और अपनी वैचारिक धार गंवा बैठी। भाजपा का विरोध बड़े सिद्धांत के रूप में सामने आने के बजाय मुस्लिम वोट पाने का जरिया भर नजर आने लगा।

इस प्रकार धर्मनिरपेक्ष मत मुस्लिम मतों का पर्यायवाची बन गया। इसके बाद विभिन्न दलों के बीच टकराव आरंभ हुआ। मसलन उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस, वाम दल और तृणमूल कांग्रेस।

कांग्रेस तथा नई मुस्लिम ताकतों मसलन असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम तथा असम में बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ में भी ऐसा ही देखने को मिला। महाराष्ट्र के अलावा अधिकांश राज्यों में राकांपा ने अपने प्रत्याशी उतारने शुरू कर दिए। 2017 के गुजरात चुनावों में भी उसने अपने प्रत्याशी उतारे।

इस बीच भाजपा अपनी हिंदू राष्ट्रवादी छवि को निरंतर और तीक्ष्ण बनाती जा रही है। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का उसका नारा भी उस नए आत्मविश्वास को दिखाता था कि उसे पता है मुस्लिम उसे वोट नहीं देते लेकिन उनका उत्पीड़न नहीं होगा। इससे राष्ट्रीय राजनीति एकतरफा होती गई। हालांकि कई राज्यों में भाजपा क्षेत्रीय दलों को हराने में नाकाम रही।

केरल और तमिलनाडु को छोड़कर अधिकांश राज्यों में उसे एक नेता या परिवार वाले दलों से चुनौती मिली। इनमें आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, बिहार और महाराष्ट्र शामिल हैं। इन दलों में से अनेक को पुनर्विचार करने की जरूरत है। परिवार टूट सकते हैं, भतीजे अपने चाचाओं को छोड़ सकते हैं, वफादारों को लुभाया जा सकता है या एजेंसियों से उन पर दबाव बनवाया जा सकता है। प्रफुल्ल पटेल की तरह उन सभी के पास कोई न कोई दलील होती है।

बीते दिनों नई दिल्ली के नेहरू स्मृति पुस्तकालय में स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री के जीवन पर भाषण देते हुए लेखक-संपादक टी एन नाइनन ने एक अहम बात कही। उन्होंने कहा कि अगर शास्त्री की असमय मृत्यु नहीं हुई होती तो एक संभावना यह थी कि शायद कांग्रेस का विभाजन नहीं हुआ होता या शायद इंदिरा गांधी की जगह वाई बी चव्हाण उत्तराधिकारी बनते।

उन्होंने कहा कि अगर 1969 में इंदिरा गांधी ने पार्टी का विभाजन नहीं किया होता तो शायद पार्टी शायद इतनी तेजी से वाम रुझान नहीं लेती जैसा कि उसने उनके नेतृत्व में लिया। उन्होंने अपने ही दल के पुराने नेताओं से निपटने के लिए ऐसा किया। मेरी दृष्टि में यह विचारधारा आधारित बदलाव नहीं बल्कि सुविधा की लड़ाई थी। रूढि़वादी बुजुर्गों से निपटने के लिए प्रगतिशील, युवा वाम से बेहतर भला क्या होता?

परंतु इस प्रक्रिया में कांग्रेस के पास ऐसी विचारधारा बची जिस पर उसके कार्यकर्ता खासकर शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह यकीन नहीं करता था। शायद यही वजह है कि तब से औसतन हर पांच साल में पार्टी का विभाजन होता रहा। अलगाव के बाद ज्यादातर धड़े क्षेत्रीय ताकत बन गए।

राकांपा से लेकर मेघालय में संगमा, तृणमूल कांग्रेस और वाईएसआरसीपी इसमें शामिल हैं। दूसरी ओर भाजपा ने अपना वैचारिक और राजनीतिक सामंजस्य बनाए रखा। बीएस येदियुरप्पा और कल्याण सिंह जैसे कुछ नेता पार्टी से बाहर भी गए तो लौट आए। शंकर सिंह वाघेला जैसे नेता जो कभी नहीं लौटे वे धीरे-धीरे परिदृश्य से गायब हो गए।

इससे मौजूदा राष्ट्रीय राजनीति की स्थिति पता चलती है। महाराष्ट्र से भी यही संदेश निकल रहा है। अगर कांग्रेस अपनी ताकत बटोरकर एक आधुनिक विचारधारा को अपना सके तो हम दो दलीय परिदृश्य की ओर जा सकते हैं।

First Published : July 10, 2023 | 12:50 AM IST