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सरकारी खरीद में सुधार के करने होंगे प्रयास

भारत को अपना उत्पाद बेचने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही विदेशी कंपनियों की संख्या में वृद्धि मददगार हो सकती है लेकिन वास्तविक समस्या कहीं और है। बता रहे हैं

Published by
अजय शाह   
सुजैन थॉमस   
Last Updated- May 14, 2025 | 10:40 PM IST

भारत हर वर्ष तकरीबन 60 लाख करोड़ रुपये मूल्य की वस्तुओं और सेवाओं की खरीद करता है जो उसके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का लगभग 15-20 फीसदी होता है। सरकारी खरीद कैसे की जाती है यह सार्वजनिक वित्त की केंद्रीय चिंता होनी चाहिए। इसके बावजूद अक्सर देश में सरकारी खरीद के अनुबंधों को राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाता है और माना जाता है कि यह औद्योगिक नीति या संरक्षणवाद को ध्यान में रखकर किए जाते हैं।  

अब वक्त आ गया है कि हम थोड़ा ठहरें और सोचें। सरकारी खरीद के मूल में व्यय की किफायत है। राज्य करदाताओं के एजेंट की भूमिका में रहता है और यह उसका कर्तव्य है कि वह हर खर्च होने वाले रुपये का किफायत से इस्तेमाल करे। फिर चाहे मामला अधोसंरचना परियोजनाओं के लिए स्टील खरीदने की हो, स्कूलों के लिए कंप्यूटर या सरकारी अस्पतालों के लिए दवा खरीदने की, केवल एक ही लक्ष्य को आगे बढ़ाया जाना चाहिए: न्यूनतम संभव मूल्य पर खास गुणवत्ता की आपूर्ति करना वह भी एक तय समय में। संरक्षणवादी भावना से बचना चाहिए जहां विक्रेता को लाभ पहुंचाया जाता है और आम नागरिक नुकसान में रहते हैं।

एक मजबूत, पारदर्शी और प्रतिस्पर्धी बाजार ही सरकारी अनुबंधों के लिए सही तरीका है। हम अपने घर के लिए खरीदारी करते समय भी पूरी सावधानी बरतते हैं। सार्वजनिक खरीद के लिए सरकारी फंड का इस्तेमाल करने का सिद्धांत भी अलग नहीं होना चाहिए, बस उसके प्रभाव में वृद्धि होनी चाहिए।

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देश में सरकारी अनुबंधों की हकीकत इस आदर्श को नहीं निभा पाती। जैसा कि एक्सकेडीआर फोरम के शोध ने दर्शाया, हमारी सरकारी खरीद प्रक्रिया खामियों से भरी हुई है। वास्तविक प्रतिस्पर्धा की कमी है। निविदाओं में अक्सर गिनेचुने लोग बोली लगाते हैं। कई बार तो केवल एक कारोबारी बोली लगाता है। अक्सर आपूर्ति में देरी होती है और लागत बढ़ती है। सरकारी अनुबंध की व्यवस्था को अक्सर जटिल, अस्पष्ट और अनिश्चित माना जाता है। इसमें भुगतान और विवाद समाधान की दिक्कतें भी शामिल हैं। जब प्रतिस्पर्धा कमजोर होती है तो कीमतें बढ़ती हैं। अगर सरकारी खरीद में सुधार से कीमतों में 10 फीसदी की भी कमी आती है तो इससे बिना एक रुपये का अतिरिक्त शुल्क लागू किए भी सरकारी अनुबंधों में 10 फीसदी की बढ़त हो जाती है। इसलिए सरकारी वित्त की प्राथमिक रणनीति में सरकारी अनुबंध की प्रणाली सुधारने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इससे अच्छी खासी राजकोषीय गुंजाइश तैयार होगी।

कम प्रतिस्पर्धा वाले माहौल में थोड़ा योगदान इस बात का भी है कि हम ऐतिहासिक रूप से सरकारी खरीद को विदेशी कंपनियों के लिए खोलने से बचते रहे हैं। विकसित देशों के उलट भारत ने विश्व व्यापार संगठन के सरकारी खरीद समझौते यानी जीपीए पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। 2017 के सरकारी खरीद ऑर्डर में संरक्षणवाद को महसूस किया जा सकता है जो कहता है कि स्थानीय सामग्री के आधार वाले घरेलू विनिर्माताओं को प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिए। यहां तक कि जब वैश्विक निविदाएं आमंत्रित की जाती हैं तब भी अक्सर स्थानीय आपूर्तिकर्ताओं को प्राथमिकता दी जाती है बशर्ते कि उनकी बोली सबसे कम रकम वाली विदेशी बोली से एक खास मार्जिन के भीतर हो। यह बात विदेशी कंपनियों को भारत में बिक्री करने से रोकती है।

भारतीय कंपनियों का पक्ष लेने का यह रुख जहां भारतीय नागरिकों को नुकसान पहुंचाता है वहीं संरक्षणवाद के विचार जैसे ही यह घरेलू कंपनियों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करने से भी बचाता है। यह नवाचार, गुणवत्ता सुधार और प्रतिस्पर्धी मूल्य हासिल करने के लिए प्रोत्साहन को सीमित करता है। आखिरकार इसकी कीमत करदाताओं को चुकानी पड़ती है। या तो वे उच्च कीमतों के रूप में इसका खमियाजा उठाते हैं या फिर वस्तुओं और सेवाओं की देर से आपूर्ति के रूप में। जिस तरह स्टील पर आयात शुल्क कंपनियों और उद्योगों को नुकसान पहुंचाता है उसी तरह सरकारी खरीद में संरक्षणवाद सरकारी सेवाओं की उपभोक्ता यानी जनता को नुकसान पहुंचाता है।

एक स्वागतयोग्य बदलाव के संकेत नजर आ रहे हैं। भारत-संयुक्त अरब अमीरात व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता (सीईपीए) जो मई 2022 से प्रभावी है, एक अहम कदम है। इसमें भारत के किसी मुक्त व्यापार समझौते यानी एफटीए में पहली बार एक अध्याय शामिल था जिसमें सरकारी खरीद बाजार में पहुंच देने को लेकर स्पष्ट प्रतिबद्धताएं शामिल थीं। इसके बाद दिसंबर 2022 में भारत-ऑस्ट्रेलिया आर्थिक साझेदारी और व्यापार समझौता (ईसीटीए)  हुआ। हाल में मार्च 2024 में भारत-यूरोप मुक्त व्यापार संघ के बीच व्यापार और आर्थिक साझेदारी समझौता (टीईपीए) हुआ जिसमें सरकारी खरीद का अध्याय शामिल है। हाल ही में संपन्न भारत-यूनाइटेड किंगडम एफटीए कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।

 इस समझौते के जरिये यूके की कंपनियों को केंद्र सरकार की चुनिंदा निविदाओं तक पहुंच मुहैया कराई गई है। हालांकि इसके लिए विशिष्ट शर्तें और सीमाएं तय की गई हैं। ये सराहनीय कदम हैं। ये कम से कम सैद्धांतिक रूप से इस मान्यता का संकेत देते हैं कि विदेशी इकाइयों को शामिल कर प्रतिस्पर्धा बढ़ाना फायदेमंद हो सकता है। वे भारतीय राज्य को जनता के लिए निष्पक्षता के अधिक करीब लाते हैं। एफटीए आधारित ये पहल सही दिशा में हैं और सराहनीय हैं लेकिन हमें अपनी अपेक्षाओं और सरकारी खरीद के नतीजों पर उनके तात्कालिक प्रभाव को भी ध्यान में रखना होगा। गहरी समस्या यह है कि देश की घरेलू खरीद व्यवस्था कमजोर है।

यह आज की कड़वी हकीकत है कि कई उच्च क्षमता संपन्न निजी क्षेत्र की कंपनियां जानबूझकर ऐसी आंतरिक नीतियां अपना रही हैं कि वे सरकारी निविदा प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लेंगी। उन्हें समूचे अनुबंध चक्र में दिक्कत नजर आती है। लेनदेन की अधिक लागत, निर्णय लेने में देरी और भुगतान, मनमाने कदमों का जोखिम, निष्प्रभावी विवाद समाधान प्रणाली और कमजोर कानून-कायदे इसके उदाहरण हैं। अगर खुद भारत की बेहतरीन कंपनियां दूरी बनाएंगी तो विदेशी कंपनियां क्यों आएंगी?

आगे की राह में दोहरे आयाम वाली रणनीति अपनाने की आवश्यकता है। पहला, एफटीए में सरकारी खरीद को खोलने के लिए जो पहल की गई है उसको अधिक जोश और महत्त्वाकांक्षा के साथ अंजाम देना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि अधिक क्षेत्रों को इसके दायरे में लाना चाहिए और भागीदारी सीमा को धीरे-धीरे कम करते हुए अधिक इकाइयों को शामिल किया जाना चाहिए। इन सिद्धांतों को अधिकांश कारोबारी साझेदारों तक विस्तारित करना चाहिए।

दूसरी और अहम बात, इस बाहरी उदारीकरण के साथ घरेलू खरीद प्रक्रिया में भी व्यवस्थित सुधार किए जाने चाहिए। एक मजबूत शोध संस्था अब हमारे पास है जो राह दिखा रही है। सूचना प्रौद्योगिकी सुधार प्रक्रिया के लिए अहम है लेकिन वांछित सुधार केवल सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ा नहीं है। इसके लिए:

  1. अनुबंध के आरंभ से अंत तक किफायत में सुधार: दस्तावेजीकरण को मजबूत बनाना, बोली प्रक्रिया से लेकर भुगतान तक, खुले अनुबंध डेटा मानकों के साथ पूर्ण खरीद चक्र में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए डिजिटल सूचना प्रबंधन व्यवस्था अपनाना।
  2. अनुबंध हेतु मानव संसाधन का निर्माण: खरीद अधिकारियों के प्रशिक्षण और उन्हें पेशवर बनाने पर खर्च हो। उन्हें अनुबंध डिजाइन, बातचीत और परियोजना प्रबंधन में कौशल संपन्न बनाया जाए।
  3. मजबूत और त्वरित विवाद समाधान: बोली लगाने वालों के लिए काली सूची में डाले जाने की आशंका के बिना विवाद समाधान के लिए स्वतंत्र विश्वसनीय तंत्र की स्थापना।

सरकारी खरीद में सुधार राज्य की क्षमता बढ़ाने और लोगों को बेहतर सार्वजनिक सेवाएं देने के लिहाज से महत्त्वपूर्ण है। हाल ही में किए गए एफटीए इस दिशा में छोटे किंतु सकारात्मक कदम हैं।

(साथ में और सुजैन थॉमस)

(दोनों लेखक एक्सकेडीआर फोरम के संस्थापक हैं)

First Published : May 14, 2025 | 10:28 PM IST