प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो क्रेडिट: ShutterStock
भारतीय चुनाव आयोग ने चुनाव से पहले प्रचार अभियान की अवधि तय कर दी है। जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत आयोग की देखरेख में होने वाले सभी चुनावों पर यह अवधि लागू होती है। इस प्रावधान के अंतर्गत उम्मीदवारों की अंतिम सूची जारी होने के बाद दो हफ्ते तक चुनाव प्रचार हो सकता है मगर मतदान समाप्त होने के समय से 48 घंटे पहले इसे खत्म करना पड़ता है। किंतु इंटरनेट और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के दौर में इस समय सीमा का कोई मतलब नहीं रह गया है। दो सप्ताह की यह अवधि इसलिए रखी गई थी ताकि निर्वाचन आयोग के कर्मचारी पता कर सकें कि पार्टियां या उम्मीदवार वोटरों को घूस तो नहीं दे रहे, उनसे जाति या धर्म के नाम पर वोट तो नहीं मांग रहे और प्रचार के सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे।
लेकिन चुनाव कार्यक्रम की घोषणा बहुत पहले हो जाने के कारण राजनेता आसानी से इन तीनों पाबंदियों का उल्लंघन कर लेते हैं। कुछ बहस योग्य मुद्दे भी हैं मसलन केंद्रीय बजट आदि की तारीख चुनावों के हिसाब से बदली जानी चाहिए या नहीं। इस पर सबके अलग नजरिये हैं।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने 2012 में पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के कारण बजट टालने की विपक्ष की मांग मान ली थी। तब फरवरी के मध्य से मार्च तक उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में चुनाव हुए थे और बजट को फरवरी के अंतिम दिन के बजाय 16 मार्च को पेश किया गया था। मगर 2017 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने विपक्ष की ऐसी मांग ठुकरा दी थी। बजट की तारीख आगे बढ़ाने के लिए एक जनहित याचिका भी दायर हुई थी मगर शीर्ष न्यायालय ने यह कहकर उसे खारिज कर दिया कि मतदाताओं के फैसले पर बजट का असर पड़ने के सबूत नहीं हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि बजट को विधान सभा चुनाव के हिसाब से आगे-पीछे नहीं किया जा सकता क्योंकि ये चुनाव अक्सर होते रहते हैं। इससे पता चलता है कि प्रचार के सिद्धांत पार्टियों के संयम और नैतिक धारणाओं पर निर्भर करते हैं।
अब सवाल उठ सकते हैं कि मतदान के दिन से पहले 48 घंटे तक चुनावी सभाओं और इंटरनेट, रेडियो, टेलीविजन तथा प्रिंट मीडिया से प्रचार पर रोक लगाने का क्या फायदा है। वैसे यह रोक इसलिए लगाई जाती है कि मतदाता शांत बैठकर सोच सकें कि किसे वोट देना है। कई देश 24 से 48 घंटे के लिए ऐसी रोक लगाते हैं। लेकिन ज्यादातर देशों में चुनावी कवायद बहुत छोटी होती है और आम तौर पर एक ही दिन में पूरी हो जाती है। इसके उलट भारत जैसे बड़े तथा भौगोलिक विविधता वाले देश में यह कवायद बहुत पेचीदा हो जाती है। इधर कई चरणों में लंबे समय तक चुनाव कराने के मामले बढ़ते जा रहे हैं। 2024 में लोक सभा चुनाव सात चरणों में हुए, जिसमें डेढ़ महीना लग गया।
कुछ राज्यों में तो कई चरणों में मतदान हुआ, जिससे प्रचार 48 घंटे पहले रोक देने का कोई फायदा नहीं रह गया। पहली बात, कई चरणों में चुनाव कराने से धन बल वाले बड़े राष्ट्रीय दलों को अनुचित फायदा मिल जाता है। इससे कुछ हिस्सों में प्रचार अभियान थमने के बाद भी वे देश के दूसरे हिस्सों में प्रचार करते रहते हैं। दूसरी बात, लगातार फैलते सोशल मीडिया पर लोग इस बंदिश के दायरे में नहीं आते, जो लोगों के राजनीतिक विचारों को प्रभावित कर सकते हैं। वे इस बंदिश का मखौल उड़ाते रहते हैं।
तीसरी बात, कई पार्टियां मतदान के दिन प्रभावशाली संचार माध्यमों पर बड़े विज्ञापन देते हैं। पता नहीं इसे चुनाव प्रचार क्यों नहीं माना जाता। इस तरह प्रचार अभियान पर पाबंदी की अवधि के लगातार बढ़ते उल्लंघन ने इसकी अहमियत ही खत्म कर दी है। इसलिए अमेरिका की तर्ज पर काम करना बेहतर होगा, जहां मतदान से पहले चुनाव प्रचार पर पाबंदी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन माना जाता है और मतदान के दिन मतदान केंद्र के आसपास सीधे प्रचार पर ही रोक होती है।