संपादकीय

विकास नीति में बढ़े वंचितों पर ध्यान

हालिया चुनाव के नतीजे बताते हैं कि देश के मतदाता हमारी मौजूदा और भविष्य की अर्थव्यवस्था को लेकर बहुप्रचारित आशावाद को लेकर पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे।

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नितिन देसाई   
Last Updated- June 19, 2024 | 9:28 PM IST

हमारी विकास संबंधी नीति का मुख्य ध्यान निर्णायक तौर पर वंचितों के लिए अवसरों के विस्तार पर केंद्रित होना चाहिए। बता रहे हैं नितिन देसाई

हालिया चुनाव के नतीजे बताते हैं कि देश के मतदाता हमारी मौजूदा और भविष्य की अर्थव्यवस्था को लेकर बहुप्रचारित आशावाद को लेकर पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे। ऐसा भी नहीं है कि अर्थव्यवस्था में निरंतर वृद्धि को चिह्नित नहीं किया गया।

उत्तर प्रदेश में लोगों का सर्वेक्षण करने वाले एक व्यक्ति के मुताबिक जब लोगों से उनकी आर्थिक स्थिति के बारे में पूछा जाता तो अक्सर उनका जवाब होता, ‘हां, अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी है लेकिन हम ठीक नहीं हैं।’ वृद्धि और वंचितों के लिए आय के अवसरों की कमी ही नीतिगत प्रदर्शन को लेकर लोगों के आकलन के मूल में है।

सन 1991 के उदारीकरण के सुधारों के तीन दशक बाद देश की आर्थिक वृद्धि दर करीब 6 फीसदी रही है। इस अवधि में देश का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी छह गुना बढ़ गया। इसका एक मानक देश के जीडीपी की क्रय शक्ति समता का अनुमान भी है जो विश्व बैंक के हालिया अनुमानों के मुताबिक 10 लाख करोड़ डॉलर या कहें तो वैश्विक जीडीपी के 7.2 फीसदी के बराबर है।

जीडीपी में छह गुना इजाफे के साथ विशुद्ध गरीबी में कमी आई है। परंतु असमानता में भी इजाफा हुआ है। विश्व असमानता डेटाबेस के अनुसार देश की राष्ट्रीय आय में सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों की हिस्सेदारी 1992 के 35 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 58 फीसदी हो गई।

इसी अवधि में सबसे अमीर एक फीसदी लोगों की हिस्सेदारी 10 फीसदी से बढ़कर 23 फीसदी हो गई। दूसरी ओर सबसे निचले 50 फीसदी लोग 1992 के 22 फीसदी से घटकर 2022 में 15 फीसदी रह गए। संपत्ति के वितरण की बात करें तो असमानता और अधिक है।

इस दौर की विकास रणनीति निजी क्षेत्र के उदारीकरण, विदेशी निवेश और संबंधित संस्थागत सुधारों पर आधारित है। परंतु इसमें कुछ कंपनियों के लिए पक्षपात भी शामिल रहा जिसके चलते वे तेजी से शीर्ष पर पहुंचने में कामयाब रहे। आज शीर्ष 10 कंपनियां 22 फीसदी पूंजी की मालिक हैं जबकि 5,000 से अधिक सूचीबद्ध कंपनियों में शीर्ष 100 कंपनियां 64 फीसदी पूंजीकरण की मालिक हैं।

कंपनियों के विस्तार पर इस प्रकार ध्यान केंद्रित करना ही वृद्धि को गति देने वाला अहम कारक रहा है। इसके बावजूद चुनिंदा आईटी कंपनियों को छोड़ दिया जाए तो भारत की कंपनियों ने वह नहीं हासिल किया है जो अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक वृद्धि संभावनाओं के लिए जरूरी है। यानी वह वैश्विक कद जो चीन और पूर्वी एशिया की कंपनियां पहले ही हासिल कर चुकी हैं।

कंपनियों ने मोटे तौर पर घरेलू मांग पूरी करने पर ध्यान दिया है और साथ ही बढ़ती असमानता के कारण उपभोग की वस्तुओं की वृद्धि कम हुई जिससे कई कंपनियों की वृद्धि और निवेश योजनाओं में धीमापन आया है। सार्वजनिक नीति में बदलाव के बाद अधोसंरचना विकास में उनकी बढ़ती संबद्धता एक अपवाद है।

कुछ मायनों में निजी कारोबारियों की इस वृद्धि और सरकार तथा कुछ कारोबारी समूहों के बीच का गठजोड़ वैसा ही है जैसा कि अमेरिका में 1870 से 1900 के बीच गील्डेड युग में देखने को मिला था। उस समय तेज आर्थिक वृद्धि हुई थी और अधोसंरचना खासकर रेल मार्गों में जमकर निवेश हुआ।

इसके साथ ही निजी पूंजी का विस्तार और कंपनियों की ताकत में भी इजाफा देखने को मिला था। इसमें अहम बात थी कंपनियों के साथ गठजोड़। अमेरिकी सरकार व्यवस्था बनाए रखने के लिए निष्पक्ष दिखने की कोशिश कर रही थी लेकिन वह अमीरों के हितों का पालन कर रही थी।

वास्तव में दिलचस्प बात है गील्डेड युग का उस दौर के चुनावों पर प्रभाव। बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में हुए चुनावों में थियोडोर रूजवेल्ट राष्ट्रपति बने थे। उस समय राजनीति का ध्यान तेजी से उन समस्याओ को हल करने की ओर गया जो उस दौर आर्थिक बदलावों के कारण उत्पन्न हुई थीं।

राजनीतिक भ्रष्टाचार और औद्योगिक स्वामित्व के एकीकरण की समस्या को दूर करने का प्रयास किया गया। प्रगतिशील दौर की राजनीति सामाजिक सक्रियता से प्रेरित थी। हालिया लोक सभा चुनावों का एक आशावादी पाठ यह हो सकता है कि हमें भारत में भी ऐसा बदलाव देखने को मिल रहा है।

मुफ्त राशन और अन्य लोक लुभावन घोषणाओं की बात करें तो उनसे गरीबों के लिए अवसर नहीं बदलते। हालिया चुनाव नतीजे बताते हैं कि सामाजिक सक्रियता नजर आ रही है जो वंचितों के लिए बेहतर अवसरों की तलाश से संबंधित है।

इसके पीछे की शक्ति शायद यह भय रहा होगा कि जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था का क्या होगा। राजनीतिक पहलू को जाति जनगणना और मराठा जैसी जातियों की आरक्षण की मांग को समर्थन के रूप में देखा जा सकता है। इस तरह की जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था असमानता से ध्यान हटाने की कोशिश नहीं है, जिसे प्रमुख कारक नीति होना चाहिए था।

देश में असमानता की हकीकत यह है कि यह जाति से बहुत हद तक संबद्ध है। ऐसा इसलिए कि अतीत में भी जाति और असमानता का बहुत करीबी संबंध रहा है। बढ़ते बहुसंख्यकवाद की वजह से इसका संबंध धर्म से भी है। आरक्षण पर ध्यान देने की तुलना पश्चिम में कामगारों के अधिकारों की मांग से की जा सकती है।

क्या विपक्ष के वोटों में अप्रत्याशित वृद्धि को भारत में प्रगतिशील युग की शुरुआत के संकेतक के रूप में देखा जा सकता है? उत्तर प्रदेश में जहां सीटों में बहुत फर्क आया वहां मतों का सर्वेक्षण दिखाता है कि दलित और मुस्लिम मतों का बड़ा हिस्सा विपक्ष को और उच्च जातियों का मत सत्ताधारी दल को गया। इसके साथ ही वंचितों और वरीयता प्राप्त समुदायों को मिलने वाले अवसरों में भी भारी अंतर रहा। परंतु हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में यह नहीं देखने को मिला जबकि वह उत्तर प्रदेश से ज्यादा अलग नहीं है।

मेरी नजर में चुनाव नतीजे बताते हैं कि विकास नीति का प्राथमिक स्रोत समेकित जीडीपी या देश को दुनिया की चुनिंदा शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में शामिल करना नहीं होना चाहिए। बल्कि उसकी जगह वंचितों और रोजगार से वंचित लोगों के लिए अवसरों में सुधार करना चाहिए।
गत माह मैंने नई सरकार की प्राथमिकताओं से संबंधित अपने स्तंभ में कहा था कि रोजगार तैयार करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

खासतौर पर कम वृद्धि वाले राज्यों में ऐसा करने की आवश्यकता है जहां कामकाजी आयु वाली आबादी तेजी से बढ़ रही है। मेरा यह अनुमान नहीं था कि वंचितों की चिंताएं इस तरह मुखर होंगी जैसी कि वे चुनाव नतीजों में नजर आईं। इससे स्पष्ट होता है कि विकास नीतियों को अब तेज गति से उत्पादक रोजगार तैयार करने पर काम करना चाहिए।

करीब एक दशक तक उसे कामकाजी आयु की आबादी में वृद्धि की दर से अधिक तेजी से रोजगार तैयार करने चाहिए। स्थानीय मांग के लिए अंतिम उत्पाद तैयार करने में छोटे आपूर्तिकर्ताओं को बढ़ावा देना चाहिए।

भौतिक और डिजिटल अधोसंरचना में सुधार तथा ई-कॉमर्स एवं डिजिटल भुगतान प्रणालियों के तेजी से उभार का उपयोग करके रोजगार की आवश्यकता वाले उत्तरी राज्यो को राष्ट्रीय मूल्य श्रृंखलाओं में उच्च विकास वाले दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों से जोड़ा जा सकता है। एक ऐसी व्यापार नीति बनाई जानी चाहिए जा कारोबारियों को निर्यात बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करे। दीर्घावधि में कौशल विकास के लिए बेहतर व्यवस्था की आवश्यकता होगी।

रोजगार निर्माण का काम वृद्धि आधारित रणनीति का सह उत्पाद नहीं होना चाहिए। बल्कि तेज वृद्धि रोजगार निर्माण के कारण आनी चाहिए। क्या केंद्र सरकार इस दिशा में बढ़ेगी?

First Published : June 19, 2024 | 9:23 PM IST