Delhi Pollution: वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (CAQM) द्वारा ग्रेडेड रिस्पॉन्स ऐक्शन प्लान (ग्रेप) के चरण चार को अधिसूचित किए जाने के एक दिन बाद भी दिल्ली की हवा की गुणवत्ता में मामूली सुधार ही देखने को मिला। राजधानी में इस सप्ताह वायु गुणवत्ता सूचकांक अथवा एक्यूआई 450 के ऊपर बना रहा। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्कुल सही कहा कि प्रदूषण से बचने के उपायों के क्रियान्वयन में देरी हो रही है।
ग्रेप-4 के अंतर्गत दिल्ली में ट्रकों के आवागमन पर रोक, दिल्ली में पंजीकृत बीएस-4 और उससे नीचे की श्रेणी के डीजल चालित मझोले मालवाहक वाहनों तथा भारी मालवाहक वाहनों पर प्रतिबंध, विनिर्माण और तोड़फोड़ की गतिविधियों पर अस्थायी रोक, शैक्षणिक संस्थानों में विद्यार्थियों को बुलाकर पढ़ाने पर रोक तथा कार्यालयों में 50 फीसदी लोगों को घर से काम करने का विकल्प देने जैसी बातें शामिल हैं।
जाहिर सी बात है कि इनमें से कोई भी कदम समस्या को हल करने वाला नहीं है। प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ा हुआ है और वह लगातार ‘गंभीर’ से भी ऊपर की श्रेणी में है। भूरे रंग की गहरी धुंध ने न केवल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) का दम घोंट रखा है बल्कि उसने रेल और हवाई यातायात को भी प्रभावित किया है।
मौसम विज्ञान सहित कई ऐसी तमाम वजह हैं जिनके चलते दिल्ली और उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों के निवासी खुद को नाउम्मीद स्थिति में पाते हैं। यह सिलसिला सालों से चल रहा है। पराली जलाने का सिलसिला भले ही नया और मौसमी है लेकिन निर्माण कार्यों से उड़ने वाली धूल, कचरा जलाने से लगने वाली आग, वाहनों से होने वाला प्रदूषण और कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से होने वाला प्रदूषण वर्षों से दिक्कत दे रहा है।
एक दिलचस्प बात यह है कि सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी ऐंड क्लीन एयर (सीआरईए) द्वारा किया गया एक नया अध्ययन इस पुरानी मान्यता पर सवाल उठाता है कि पंजाब और हरियाणा में अक्टूबर-नवंबर के महीने में पराली को जलाया जाना ही दिल्ली की हवा की गुणवत्ता में खराबी का प्रमुख उदाहरण है।
अध्ययन बताता है कि एनसीआर में मौजूद ताप बिजली घर पराली जलाए जाने की तुलना में 16 गुना अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। ताप बिजली संयंत्र एनसीआर के इकलौता उद्योग हैं जिनमें कोयले के इस्तेमाल की इजाजत है।
वहीं भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) का ताजा अध्ययन दिखाता है कि पराली का जलाया जाना एनसीआर की हवा गुणवत्ता खराब करने में 38 फीसदी योगदान करता है। इसकी सबसे अधिक हिस्सेदारी 2024 में रही। वाहनों से होने वाला प्रदूषण भी अहम योगदान करता है।
अतीत की पहलें जिनमें निजी वाहनों पर एक किस्म की रोक शामिल रही है, वे अपेक्षित परिणाम पाने में मददगार नहीं हो सके हैं। अनुमान है कि परिवहन और उद्योग जगत शहर में प्रदूषण के दो प्रमुख कारक हैं क्योंकि सभी चौराहों पर यातायात की भीड़ के कारण उत्सर्जन का भारी दबाव रहता है।
स्पष्ट है कि इसके लिए किसी एक को दोष नहीं दिया जा सकता है। दीर्घकालीन हल की अनुपस्थिति में प्रतिबंधात्मक उपाय मसलन निर्माण कार्यों पर रोक आदि के सीमित लाभ होंगे जबकि ऐसे कदम निर्माण श्रमिकों की आजीविका पर असर डालेंगे जो पहले ही कई-कई हफ्तों तक बेरोजगार रहते हैं।
बहरहाल, इसका प्रभाव केवल सबसे वंचित वर्ग तक सीमित नहीं रहेगा। खराब हवा के कारण उत्पन्न जन स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं लंबी अवधि के दौरान आर्थिक प्रभाव भी डालेंगी। दुर्भाग्यवश देश में राजनीतिक प्रतिबद्धता और जनता का दबाव दोनों सीमित हैं और इसलिए पर्यावरण संबंधी चिंताएं हल नहीं हो पा रही हैं।
भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में यह बात रहस्यमय है। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने कई छिटपुट उपाय अपनाए हैं, जिनसे समस्या हल करने में कोई मदद नहीं मिली। राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप में लगे हैं, जिससे आवश्यक समन्वय नहीं हो पा रहा है।
जरूरत इस बात की है कि दीर्घकालिक योजना अपनाई जाए जो एनसीआर तथा उत्तर भारत के अधिकांश इलाकों को रहने योग्य बनाने में मदद करे। इसकी वजह चाहे पराली जलाना हो, वाहन प्रदूषण हो या ताप बिजली घर की चिमनी का धुआं, इसे हल करना ही होगा। इसके लिए सरकार को पहल करनी होगी और सर्वोच्च न्यायालय को दबाव बनाना होगा।
इसके साथ ही सिविल सोसाइटी के प्रभावशाली नागरिकों को इसकी प्रगति पर निगाह रखनी होगी। अल्पावधि के आर्थिक हितों को आम नागरिकों के जीवन जीने के बुनियादी अधिकारों पर भारी नहीं पड़ने देना चाहिए।