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Editorial: अनुसंधान से विकास तक: प्रयासों का दायरा RDI योजना तक न रहे सीमित

भारत को विश्वविद्यालयों और अन्य अनुसंधान संस्थानों में मौलिक एवं नवाचारी अनुसंधान के लिए वित्तीय संसाधनों को कुशलता से प्रवाहित करने के रास्ते तलाशने होंगे।

Last Updated- July 03, 2025 | 11:30 PM IST
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केंद्र सरकार द्वारा गत सप्ताह मंजूर शोध विकास एवं नवाचार (आरडीआई) योजना इस बात की स्वीकारोक्ति है कि नीति निर्माताओं को नवाचार को बढ़ाने के तरीके तलाशने होंगे और फंडिंग के जरिये इनकी मदद करनी होगी। बहरहाल, आरडीआई सही दिशा में उठाया गया कदम है। हालांकि, इसके बावजूद काफी कुछ करने की जरूरत होगी क्योंकि योजना को जिस तरह डिजाइन किया गया है, संभव है कि वह देश के शोध एवं विकास क्षेत्र से जुड़ी कुछ अहम चिंताओं को दूर न कर पाए। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 1 फीसदी से भी कम हिस्सा शोध एवं विकास पर खर्च करता है, जबकि चीन और दक्षिण कोरिया जीडीपी का 2.5 फीसदी इस पर खर्च करते हैं। ऐसे में भारत में जहां बड़ी तादाद में टेक स्नातक हैं, वहीं उनमें से कई विदेश चले जाते हैं या फिर ऐसी भूमिकाओं में रोजगार हासिल करते हैं जहां उनके कौशल का कोई खास उपयोग नहीं होता है। वैश्विक नवाचार सूचकांक में भारत 39वें स्थान पर है जो उसकी क्षमताओं से काफी नीचे है।

योजना में शोध एवं विकास के क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए दो-स्तरीय व्यवस्था के माध्यम से शोध एवं विकास के लिए कम ब्याज दरों पर दीर्घकालिक वित्तीय मदद की बात की गई है। पहले स्तर पर अनुसंधान नैशनल रिसर्च फाउंडेशन (एएनआरएफ) 1 लाख करोड़ रुपये के कोष को संभालेगा। इसे एक विशेष उद्देश्य वाले फंड के जरिये जुटाया जाएगा और इसकी राशि शून्य या बहुत कम ब्याज पर दूसरे स्तर के फंड प्रबंधकों को स्थानांतरित की जाएगी। दूसरे स्तर से इस राशि को निजी क्षेत्र की रुचिकर परियोजनाओं में बांटा जाएगा। इसके पीछे विचार यह है कि उभरते और रणनीतिक क्षेत्रों को वृद्धि और जोखिम पूंजी मुहैया कराई जा सके ताकि वे नवाचार को बढ़ावा दें। योजना का लक्ष्य निजी क्षेत्रों को उभरते क्षेत्रों में शोध एवं विकास बढ़ाने के लिए प्रेरित करना तथा अहम तकनीक का अधिग्रहण करने के योग्य बनाना भी है। तुलनात्मक रूप से देखें तो यह अपने आप में उपयोगी है। हालांकि तुलना जरूर की जाएगी। उदाहरण के लिए दो सरकारी संस्थान जिनके द्वारा शोध को फंडिंग मशहूर है वे हैं- अमेरिकी डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी अथवा डीएआरपीए और दूसरा जापान का पूर्व अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय (एमआईटीआई)।

एमआईटीआई ने लगभग पांच दशक तक वैसी भूमिका निभाई जो शोध एवं विकास के लिए सोची गई थी। उसने ऐसी परियोजनाओं को फंड किया जिन्होंने जापान के निजी क्षेत्र को मजबूत तकनीकी-औद्योगिक आधार बनाने में मदद की। परंतु जापान के पास पहले ही ऐसी शिक्षा व्यवस्था थी जहां शोध संस्थान फल-फूल रहे थे और विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों में शोध हो रहा था। एमआईटीआई ने उस ज्ञान और उन कौशलों का इस्तेमाल औद्योगिक कामों में किया। डीएआरपीए ने अमेरिका के तमाम विश्वविद्यालयों और शोध प्रयोगशालाओं को फंड किया। यह मोटे तौर पर रक्षा क्षेत्र पर केंद्रित था लेकिन इसकी बदौलत ही इंटरनेट, रोबोटिक्स, चिकित्सा शोध एवं सौर ऊर्जा क्षेत्र के शोध संभव हुए। एमआईटीआई की दृष्टि जहां निवेश पर रिटर्न में थी वहीं डीएआरपीए ने बिना इसे वरीयता दिए शोध पर बल दिया।

तुलनात्मक रूप से देखें तो भारत में शोध एवं विकास में निजी कॉरपारेट फंडिंग और विश्वविद्यालयों में मौलिक शोध के लिए फंडिंग दोनों का अभाव है। भारत से प्रतिभा पलायन की एक वजह यह भी है कि तकनीकी क्षेत्र में हमारे देश में अवसरों की कमी है। इसकी कई वजह हैं। इनमें शोध अनुदान की कमी और फंड का देरी से जारी होना भी एक वजह है। शोध विकास एवं नवाचार योजना निजी क्षेत्र में शोध की कुछ चिंताओं को दूर करेगी लेकिन यह भी जरूरी है कि यह सही परियोजनाओं के लिए काम करे। यह बात ध्यान देने लायक है कि बड़े नवाचार अक्सर छोटे स्टार्टअप्स से आते हैं बजाय कि बड़े निकायों के। योजना की कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि किस तरह के संस्थानों और परियोजनाओं को फंड किया जाता है। ऐसे में तकनीकी शोध कर रही छोटी और उत्साही कंपनियों पर ध्यान देना जरूरी है। बड़ी कंपनियों के पास अक्सर निवेश के लिए काफी धनराशि रहती है। भारत को ऐसे तरीके तलाशने होंगे ताकि फंड को किफायती ढंग से विश्वविद्यालयों तथा अन्य संस्थानों के मौलिक और दीर्घकालिक शोध में लगाया जाए।

 

First Published - July 3, 2025 | 11:10 PM IST

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