सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में अपने एक आदेश में सभी सरकारी विभागों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से कहा है कि वे अपने यहां यौन-प्रताड़ना निरोधक कानूनों का क्रियान्वयन करें। इससे पता चलता है कि हमारे यहां कार्यस्थलों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने में कितनी कम रुचि ली जाती है। यह बात इसलिए भी परेशान करने वाली है कि ये आदेश संसद द्वारा कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन शोषण (रोकथाम, निषेध, निवारण) अधिनियम यानी पॉश अधिनियम के 2013 में पारित होने के 10 साल से अधिक समय के बाद आया है।
यह आदेश सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गत वर्ष मई में दिए गए उस बयान के बाद आया है जिसमें गोवा विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर द्वारा छात्राओं के यौन उत्पीड़न के आरोपों के विरुद्ध अपील के मामले में उसने कहा था कि अधिनियम के क्रियान्वयन में गंभीर चूक हुई है। उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने विस्तृत निर्देश जारी किए थे और केंद्र, राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों से कहा कि वे इस बात की पुष्टि करें कि क्या उनके अधीन आने वाले सभी विभागों ने जिलों में स्थानीय शिकायत समिति या आंतरिक शिकायत समिति का गठन किया है, क्या उनके बारे में सूचनाओं का समुचित प्रसार किया गया है, और क्या नियमित रूप से जागरुकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं? अपने इस आदेश में न्यायालय ने इन समितियों के गठन के लिए जनवरी 2025 की समय सीमा तय की है।
महिलाओं द्वारा शिकायत दर्ज कराने के लिए शीबॉक्स पोर्टल्स बनाने की बात कहने के साथ ही न्यायालय ने कहा कि यह सब मार्च 2025 के पहले हो जाना चाहिए। सबसे बड़ी अदालत से बार-बार ऐसी घोषणा का आना यह रेखांकित करता है कि देश में महिलाओं के संरक्षण के लिए कितनी धीमी गति से काम किया जा रहा है।
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। गत वर्ष महिला पहलवानों ने अखिल भारतीय कुश्ती महासंघ के प्रमुख पर यौन उत्पीड़न के आरोपों पर प्रदर्शन किया था और उसके पश्चात हुई जांच में पाया गया कि देश की अधिकांश अधिमान्य खेल संस्थाओं में आंतरिक शिकायत समितियां नहीं हैं। इस वर्ष के आरंभ में कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक प्रशिक्षु महिला चिकित्सक के बलात्कार और हत्या के मामले में पश्चिम बंगाल की सरकार ने अस्पष्ट प्रतिक्रिया दी थी जिससे कार्य स्थल पर महिलाओं की सुरक्षा के प्रति उदासीनता का भाव उजागर हुआ था।
ये घटनाएं दो स्तर पर दुखद हैं क्योंकि सरकारी संस्थानों को पॉश अधिनियम के क्रियान्वयन की पहल करनी चाहिए थी। ऐसा करने से निजी क्षेत्र को प्रेरणा मिलती क्योंकि वह इस मोर्चे पर काफी पीछे है। यह स्थिति तब है जबकि सभी निजी संस्थानों के लिए यह अधिनियम लागू करना अनिवार्य है। वर्ष 2018 में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड ने सभी सूचीबद्ध कंपनियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया था कि वे अपनी वार्षिक रिपोर्ट में यौन शोषण के मामलों के आंकड़े पेश करें।
इस वर्ष मई में अशोका विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इकनॉमिक डेटा ऐंड एनालिसिस ने दिखाया कि कंपनियों द्वारा अपनी वार्षिक रिपोर्ट में पेश किए जाने वाले यौन शोषण के मामलों के आंकड़ों में यकीनन इजाफा हुआ है। परंतु सूचीबद्ध कंपनियों में ऐसे मामलों की जानकारी देने वाली कंपनियों की तादाद बहुत सीमित है।
इससे भी अहम बात यह है कि कई कंपनियों ने साल दर साल बताया है कि उनके यहां ऐसा कोई प्रकरण सामने नहीं आया। व्यापक तस्वीर यही उभर रही है कि अधिकांश भारतीय कंपनियां चाहे वे निजी हों या सरकारी, सूचीबद्ध हों या गैर सूचीबद्ध, वे पॉश अधिनियम का पालन नहीं करती हैं।
ऐसी कंपनियां भी बड़ी संख्या में हैं जो अनुपालन का दावा करती हैं लेकिन उनके यहां या तो पर्याप्त महिला कर्मी नहीं होती हैं या फिर वहां महिलाओं को शिकायत करने के लिए उचित प्रोत्साहन नहीं मिलता है। यकीनन शिकायतकर्ता का प्रबंधकीय और संगठनात्मक बहिष्कार उन्हें शिकायत करने से हतोत्साहित करता है। इसे सार्वजनिक क्षेत्र मसलन जिला स्तरीय सरकारी संस्थानों पर लागू करें तो भारतीय समाज का पुरुषवादी ढांचा शिकायतकर्ता महिला के लिए ही मुश्किलें पैदा करता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश हालात को व्यवस्थित करने की दिशा में सही कदम हो सकते हैं।