संपादकीय

Editorial: बहुत कुछ कहता घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (HCES)

ग्यारह सालों के अंतराल के बाद गत दो वर्षों से एचसीईएस के आंकड़े जारी किए जा रहे हैं।

Published by
बीएस संपादकीय   
Last Updated- December 30, 2024 | 10:40 PM IST

सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय ने घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण यानी एचसीईएस का 2023-24 का संस्करण गत सप्ताह जारी किया। हाल के महीनों में देश की अर्थव्यवस्था में मांग की स्थिति को लेकर तमाम चिंताएं जाहिर की गईं, खासकर बड़े शहरों में। इसके अलावा व्यापक अर्थव्यवस्था की दिशा पर इसके असर को लेकर भी बात हो रही थी। ऐसे में इस सर्वे की उत्सुकता से प्रतीक्षा थी। इसके आंकड़ों की जब ऐतिहासिक इजाफे से तुलना की जाती है तो कुछ राहत मिलती है।

ग्यारह सालों के अंतराल के बाद गत दो वर्षों से एचसीईएस के आंकड़े जारी किए जा रहे हैं। जब विगत दो वर्षों में परिवारों के मासिक प्रति व्यक्ति व्यय की तुलना की जाती है तो पता चलता है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में इसमें औसतन 3.5 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह ग्रामीण क्षेत्रों के ऐतिहासिक औसत के अनुरूप है जबकि शहरी इलाकों की बात करें तो यह 2022-23 के पूर्व 11 साल के अंतराल में परिवारों के मासिक प्रति व्यक्ति व्यय में देखी गई तीन फीसदी की वार्षिक चक्रवृद्धि दर से काफी अधिक है। उद्योग जगत ने इस पर जोर दिया है कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में खपत का अंतर कम हो रहा है। परंतु वृद्धि का समर्थन करने वाली मांग से जुड़ी चिंताओं को देखें तो शायद यह ध्यान देना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि शहरी इलाकों में औसत व्यय धीमा होता नहीं नजर आता।

हालांकि एचसीईएस से कम से कम एक अहम नीतिगत प्रभाव उभरा और वह गत वर्ष के संस्करण में भी साफ नजर आया: एचसीईएएस में खाद्य पदार्थों पर किए जाने वाले पारिवारिक व्यय को जिस तरह दिखाया गया है वह आधिकारिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में भली भांति नहीं नजर आता। सर्वे में पाया गया कि शहरी परिवार अपने बजट का 60 फीसदी हिस्सा खाद्य पदार्थों के अलावा खर्च करते हैं जबकि ग्रामीण परिवार अपने व्यय का करीब आधा हिस्सा दूसरी चीजों पर खर्च करते हैं।

विकसित देशों की तुलना में यह काफी अधिक है लेकिन बजट में खाद्य पदार्थों की हिस्सेदारी में गिरावट के रुख को नकारा नहीं जा सकता है। खाद्य पदार्थों पर इस व्यय के साथ अर्थशास्त्रियों ने यह भी कहा कि खाद्यान्न से सब्जियों और पैकेटबंद खाद्य पदार्थों की दिशा में भी बदलाव आएगा। लोगों के खाद्य बजट में अब सब्जियों और पैकेटबंद चीजों की ही बड़ी हिस्सेदारी है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने एक हालिया रिपोर्ट में कहा कि सर्वे में शामिल लोगों में से सबसे गरीब 20 फीसदी लोगों में यह हिस्सेदारी सबसे तेजी से घटी है। उसने इस गिरावट को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण से जोड़ा है। उसी रिपोर्ट में इस तथ्य को भी रेखांकित किया गया है कि खाद्यान्न कीमतों में मौसमी उतार चढ़ावा 2011-12 से कम हुए हैं। यह शायद बेहतर आपूर्ति श्रृंखला ढांचे के कारण संभव हुआ।

व्यय में इन बदलते रुझानों तथा मुद्रास्फीति सूचकांक में संशोधन, खाद्य सुरक्षा नीतियों और कृषि सब्सिडी आदि पर ध्यान देना जरूरी है। सरकार को कृषि सुधारों से पीछे हटना पड़ा था लेकिन चूंकि गरीब से गरीब लोगों की खपत में भी ये बदलाव आ रहे हैं इसलिए अधिक समय तक इससे दूर नहीं रहा जा सकता है। कृषि सब्सिडी को दुरुस्त करने का काम लंबे समय से अटका है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों में भी खाद्य पदार्थों पर अधिक जोर नहीं दिया जाना चाहिए। खासतौर पर अनाजों पर क्योंकि भोजन में उनकी हिस्सेदारी कम हो रही है।

रिजर्व बैंक के ब्याज दर निर्धारण की कुछ आलोचना हुई है क्योंकि उसे खाद्य कीमतों में होने वाले बदलावों पर सख्ती से प्रतिक्रिया करनी पड़ी है। जबकि मौद्रिक नीति ऐसी कीमतों को प्रभावित करने के लिए सीमित मात्रा में ही कदम उठा सकती है। खुदरा महंगाई सूचकांक में खाद्य पदार्थों के लिए अधिक भार इस तनाव को कम करने में मदद करेगा। इससे मौद्रिक नीति को में यह गुंजाइश बनेगी कि अनुमानों तथा अन्य वृहद मुद्दों पर प्रतिक्रिया दे सके।

 

First Published : December 30, 2024 | 10:34 PM IST