सरकार की उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना देश की औद्योगिक नीति के सबसे करीब है। कई पीएलआई कार्यक्रम उन क्षेत्रों के लिए भी तैयार किए गए जिनके बारे में सरकार मानती है कि वे देश के विकास और आर्थिक सुरक्षा के लिए प्रासंगिक हैं।
इनमें से कुछ सीधे तौर पर पर्यावरण के अनुकूल बदलाव से संबंधित हैं-मिसाल के तौर पर बैटरी संबंधी योजना। परंतु कई अन्य भी हैं जो अधिक पारंपरिक निर्यातोन्मुखी क्षेत्र हैं। कपड़ा ऐसा ही एक क्षेत्र है जहां श्रम का बहुत अधिक इस्तेमाल होता है जो रोजगार वृद्धि के लिए भी आवश्यक है। जैसा कि इस समाचार पत्र ने प्रकाशित किया, इनमें से कुछ क्षेत्रों मसलन कपड़ा, सूचना प्रौद्योगिकी हार्डवेयर और खासतौर पर इस्पात के लिए निजी निवेश में वृद्धि अनुमान से कम रही है।
एक अंतर-मंत्रालय पैनल द्वारा योजनाओं की समीक्षा के मुताबिक कई क्षेत्रों में निवेश कमजोर है। यह बात तेजी से स्पष्ट होती जा रही है कि कई क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें गहन नीतिगत सुधारों की आवश्यकता है। केवल तभी वे सही ढंग से प्रतिस्पर्धी बन पाएंगे। कपड़ा भी ऐसा ही एक क्षेत्र है।
रोजगार निर्माण और लोगों की आजीविका पर इसकी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। निश्चित तौर पर बांग्लादेश जैसे देशों में टिकाऊ वृद्धि और गरीबी में कमी इसी क्षेत्र के बेहतर प्रदर्शन का नतीजा है। सरकार का मानना है कि कुछ सार्वजनिक धनराशि को इस क्षेत्र का उत्पादन बढ़ाने में निवेश किया जाए तो यह गति पकड़ सकता है।
परंतु ऐसा नहीं हुआ। इस कार्यक्रम के लिए 10,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि अलग रखी गई है जो मानव निर्मित धागों और वस्त्र पर आधारित होगा। इस राशि का बहुत छोटा हिस्सा अब तक बांटा गया है। इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि इससे इस क्षेत्र में नया उत्साह आएगा या रोजगार के रुझान में कोई परिवर्तन आएगा।
कार्यक्रम में पहले ही कई बदलाव प्रस्तावित और क्रियान्वित किए गए हैं। पिछले महीने ही खबर आई थी कि कपड़ा मंत्रालय एक और संशोधन पर काम कर रहा है। अब यह विचार करने का वक्त आ गया है कि वास्तविक समस्या पीएलआई योजना के समुचित मानक नहीं हैं बल्कि यह उम्मीद है कि यह गहरे सुधारों की कमी पूरी करेगी।
कुछ देशों ने कपड़ा और वस्त्र निर्यात के क्षेत्र में इसलिए अच्छा प्रदर्शन किया क्योंकि उनके पास मजबूत बुनियादी ढांचा, कच्चे माल पर कम शुल्क वाली विश्वसनीय व्यापार नीति, रोजगार योग्य श्रम शक्ति और निवेशकों के अनुकूल नियम हैं। इन चार जरूरतों की बात करें तो भारत सरकार ने अधोसंरचना बनाने और नियमों को सहज बनाने पर बहुत ध्यान दिया है।
बहरहाल व्यापार नीति काफी हद तक अप्रत्याशित रही है और श्रम शक्ति में भी वांछित विकास नहीं हुआ। ऐसे न्यायिक या प्रशासनिक सुधार भी नहीं हुए जो कारोबारों को यह भरोसा दे सकें कि नियमों को लागू किया ही जाएगा। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि सरकार की पेशकश पर कम लोग ध्यान दे रहे हैं।
सरकार को पीएलआई योजनाओं के लिए अलग की गई राशि के बारे में बात करने के बजाय हर कमजोर क्षेत्र के संभावित निवेशकों की वास्तविक चिंताओं को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। कपड़ा और खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र इसका उदाहरण हैं।
पीएलआई कार्यक्रम समस्या का हल नहीं हैं और उन्हें खुली पेशकश भी नहीं मानना चाहिए। सरकारी वित्त के समक्ष दिक्कत यह है कि अगर सरकार अर्हता का दायरा बढ़ा देती है तो सार्वजनिक धन ऐसी गैर टिकाऊ परियोजनाओं में जाने लगता है जिन्हें लेकर निजी क्षेत्र गंभीर नहीं है। श्रम आधारित निर्यात बढ़ाने का इकलौता तरीका कारोबारियों के अनुकूल हालात बनाना है।