संपादकीय

COP28: भारत के पास जलवायु परिवर्तन लक्ष्यों को हासिल करने का मौका

भारत ऐसी घोषणाओं पर हस्ताक्षर करे अथवा नहीं लेकिन जलवायु परिवर्तन पर उसके नेतृत्व की वजह से उसे नाभिकीय ऊर्जा को और खुले दिल से स्वीकार करना होगा।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- December 05, 2023 | 7:34 AM IST

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन या कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज के 28वें संस्करण यानी कॉप 28 की बैठक इस समय दुबई में चल रही है और कुछ महत्त्वपूर्ण घोषणाएं सुनने को मिल चुकी हैं। कॉप शिखर बैठकों का मूल उद्देश्य ऐसे बाध्यकारी समझौतों को अंजाम देना था जो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करने में मदद करे।

पेरिस समझौते के बाद के दौर में इसमें काफी बदलाव आया है। अब ऐसी शिखर बैठकों की उपयोगिता इस बात के इर्दगिर्द तय होती है कि क्या वहां उपस्थित नेताओं को साझा लक्ष्य तय करने की दिशा में ले जाया जा सकता है, भले ही वे कानूनी रूप से बाध्यकारी न हों।

कॉप में ऐसे दो लक्ष्य घोषित किए गए। इनके अलावा जलवायु और स्वास्थ्य को लेकर एक व्यापक समझौता हुआ। वैश्विक स्तर पर नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को 2030 तक तीन गुना करने के लक्ष्य को 20 देशों का समूह अपने नई दिल्ली घोषणापत्र में ही आगे बढ़ा चुका है। दूसरा लक्ष्य था 22 देशों द्वारा 2050 तक नाभिकीय ऊर्जा को तीन गुना करने का वचन।

नाभिकीय ऊर्जा संबंधी घोषणा खासतौर पर दिलचस्प है। आंशिक तौर पर इसलिए कि हरित ऊर्जा बदलाव में नाभिकीय ऊर्जा की भूमिका का विरोध देखने को मिला है। यहां तक कि यूरोपीय संघ के भीतर भी दो प्रमुख शक्तियों फ्रांस और जर्मनी का नजरिया इस विषय पर एकदम अलग-अलग है।

पूर्व चांसलर एंगेला मर्केल के नेतृत्व में जर्मनी ने एक दशक से भी अधिक पहले अपने नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों को बंद करना आरंभ कर दिया था। इस बीच फ्रांस अभी भी ऊर्जा उत्पादन के लिए काफी हद तक नाभिकीय ऊर्जा पर भरोसा करता है।

जर्मनी का रुख कई पर्यावरण कार्यकर्ताओं के अनुरूप है जो परमाणु ऊर्जा उत्पादन को बुनियादी तौर पर असुरक्षित मानते हैं। परंतु यह स्पष्ट है कि दलील का यह पहलू सैद्धांतिक रूप से कमजोर है। अंतरराष्ट्रीय नाभिकीय ऊर्जा एजेंसी ने कॉप28 में कई देशों के साथ एक वक्तव्य तैयार किया जिसने स्पष्ट किया कि विशुद्ध शून्य उत्सर्जन के लिए नाभिकीय ऊर्जा की आवश्यकता है।

नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में इजाफा किए बिना उत्सर्जन में कमी का कोई लक्ष्य हासिल नहीं होगा। आज भी वर्षों से बंद पड़े संयंत्रों और सीमित निवेश के बाद 30 देशों में करीब 400 नाभिकीय रिएक्टर अभी भी दुनिया की कुल बिजली का 10 फीसदी उत्पादित कर रहे हैं और दुनिया के कम कार्बन वाले उत्पादन में उनकी हिस्सेदारी 25 फीसदी है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राष्ट्रीय या ग्रिड स्तर पर आर्थिक रूप से व्यवहार्य बिजली भंडारण सुविधाओं के अभाव में 24 घंटे बिजली की निश्चितता का एकमात्र विश्वसनीय हल जलविद्युत या नाभिकीय ऊर्जा ही है क्योंकि पवन और सौर ऊर्जा में अंतराल की समस्या आती है। जीवाश्म ईंधन का कोई भी स्थायी विकल्प ऐसा होना चाहिए जिसमें ये दोनों स्रोत शामिल हों, फिर भले ही उनकी अन्य कोई भी समस्या हो।

बहरहाल चिंता की बात यह है कि भारत इनमें से किसी भी घोषणा में शामिल होने का इच्छुक नहीं है। कुछ मामलों में तो ऐसा इसलिए हो सकता है कि इसके पाठ में कोयला उत्पादन को चरणबद्ध तरीके से कम करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।

यह मसौदा तैयार करने वालों की ओर से उठाया गया अनावश्यक कदम है। इसके बावजूद भारत को इन घोषणाओं में शामिल सैद्धांतिक बातों पर ध्यान देना चाहिए था। भारत के नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम में ज्यादा जोश देखने को नहीं मिला है।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल के दौरान इसके पारित होते वक्त परमाणु क्षति के लिए नागरिक देनदारी अधिनियम पर लगाए गए उपबंधों ने भारत में नाभिकीय ऊर्जा क्षेत्र में निजी निवेश में इजाफे की वाणिज्यिक संभावनाओं को प्रभावी ढंग से नुकसान पहुंचाया। इन पर तत्काल दोबारा विचार करने की आवश्यकता है।

खासतौर पर इसलिए कि उन्होंने भारत को रूसी प्रदाता रोस्तोम पर रणनीतिक रूप से निर्भर कर दिया है। फ्रांस तथा अन्य देशों के नए रिएक्टरों को मौजूदा व्यवस्था में जुटा पाना मुश्किल है। भारत ऐसी घोषणाओं पर हस्ताक्षर करे अथवा नहीं लेकिन जलवायु परिवर्तन पर उसके नेतृत्व की वजह से उसे नाभिकीय ऊर्जा को और खुले दिल से स्वीकार करना होगा।

First Published : December 5, 2023 | 7:34 AM IST